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ज़्यादा नहीं, बस एक बराबरी वाला जहां चाहती हूँ…

नहीं रहना चाहती ऐसे समाज में जहाँ स्त्री-पुरूष आपस में ही द्वन्द करें, अपने अहं के लिए, न ही ऐसा समाज चाहती हूँ जहाँ पितृसत्ता व मातृसत्ता का नाम भी हो...

नहीं रहना चाहती ऐसे समाज में जहाँ स्त्री-पुरूष आपस में ही द्वन्द करें, अपने अहं के लिए, न ही ऐसा समाज चाहती हूँ जहाँ पितृसत्ता व मातृसत्ता का नाम भी हो…

मैं रहना चाहती हूँ एक ऐसे जहान में, जहाँ न हो स्त्री-पुरुष की बंदिशे
जहाँ न तो स्त्री को पुरुष से छोटा समझा जाए न बड़ा…

नहीं रहना चाहती ऐसे समाज में,
जहाँ सिर्फ औरत को ही लड़ना पड़े,
और न ही मेरा मकसद है कि स्त्री-पुरूष आपस में ही द्वन्द करें, अपने अहं के लिए…
न ही ऐसा समाज चाहती हूँ जहाँ पितृसत्ता व मातृसत्ता का नाम भी हो

बल्कि में तो ऐसा आसमान चाहती हूँ अपने सिर पर
जहाँ बात हो बराबरी की…
जहाँ मैं खुल के जीने का अहसास कर सकूं,
जहाँ मैं उन्मुक्त होकर अपनी हर एक बात बोल सकूँ…

जहाँ मुझे हर बार मेरे होने का एहसास न कराना पड़े
और न कभी अपनी छोटी-छोटी चाहतों के लिए समझौता करना पड़े…
न ही जहाँ मै संस्कारों के नाम पर ठगी जाऊं
मुझे नहीं उतरना लोगों की कसौटियों पर खरा

ऐसा जहां चाहिए जहाँ मैं खुल के रो भी सकूँ और हँस भी सकूँ,
मेरे इस जहां में सब एक दूसरे के बराबर हों
जहाँ एक लड़की को रिश्ते के तराजू पर न तौला जाए बल्कि एक इंसान समझा जाए,
एक ऐसा समाज जिसका निर्माण स्त्री और पुरूष मिल कर करें!

मूल चित्र : Canva Pro 

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