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मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं थी। सर में दर्द था और हल्का बुखार भी था। मैं अपने कमरे में लेटी थी, कोई भी नहीं आया था। सुबह से मैंने कुछ खाया भी नहीं।
शादी के दूसरे दिन जब ननद रेखा चाय ले कर आई, मेरे पास बैठकर बोली, “भाभी! भाई ने मुंह दिखाई में क्या दिया?”
“ये!” मैंने अपना हाथ आगे कर दिया।
“क्या बात कर रही हैं! ये कंगन?” उसे जैसे यकीन नहीं हो रहा था।
“हां!” मैंने कहा।
“मगर ये कैसे हो सकता है? उन्होंने तो कहा था कि अंगूठी देंगे…”
मुझे उसके बात करने का तरीका बड़ा अजीब लगा। लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा। ससुराल में पहला दिन था, मुझे उसके बारे में कुछ पता भी नहीं था कि किस मिजाज़ की है।
मेरे पति पूरब बहुत अच्छे थे, मेरा बहुत ख्याल रखते थे। उन लोगों का समझ में नहीं आता था कि कैसी हैं और मेरी ज्यादा बात नहीं होती थी। रेखा ही मेरे कमरे में आ जाती थी। मुझे ऐसा लगता था मुझे देख कर वो लोग बातें बदल देते हैं। इसलिए मैं बहुत कम जाती थी उनके कमरे में।
खैर मैं पूरी कोशिश कर रही थी कि किसी को मुझसे कोई शिकायत न हो मगर ताली एक हाथ से तो बजती नहीं। रेखा को मुझसे कुछ चाहिए होता तो वो पूरब के सामने मांगती जिससे मैं मना न कर पाऊँ।
कुछ चीजें तो मैं बडे़ आराम से दे देती थी, मगर जब वो मेरे फेवरेट सामान मांगती, तो मेरा बिल्कुल दिल न करता कि मैं दूँ। एक तो वो लेने के बाद वापस भी नहीं करती थी, अगर मांग लो तो मम्मी जी भी खड़ी हो जाती थीं, “बहू एक दुपट्टा ही तो है, उसे अगर पसंद है दे दो। तुम दूसरा ले लेना।” कैसे आराम से बोलती थीं वो।
“बात ये नहीं है मम्मी जी ये वाली चुनरी मेरे पापा लाए थे, वो मम्मी के लिए कभी कुछ नहीं लाए मगर पहली बार मेरे लिए लाए थे।”
“इसे दे दो रेखा प्लीज, मैं तुम्हारे लिए ऐसा ही ला दूंगी”, मैंने रेखा से कहा।
“तो आप अपने लिए ही दूसरा ले लीजिएगा”, वो बिल्कुल तैयार नहीं थी देने के लिए। मुझे गुस्सा आने लगा था।
मैं अलमारी में कपड़े रख रही थी जब ये चुनरी मुझे दिखाई थी और मैं ले कर बैठ गई थी। मुझे पापा की याद आने लगी थी। तभी रेखा वहाँ आई और उसे मेरे हाथ से लेकर ओढ़ लिया था, “भाभी मैं अभी ले जा रही हूँ, बाद में दूंगी।” वो ये बोल कर भाग आई थी।
मगर अब तैयार नहीं थी देने के लिए। मम्मी जी भी उसका साथ दे रही थी। मेरा दिल कर रहा था मैं उनसे कहूँ, ‘इतना भी सर न चढ़ाइए कि बाद में मुश्किल हो जाए। क्या मैं अपना सामान वापस भी नहीं ले सकती। अपने लिए खरीद लो। जब देखो कुछ न कुछ चाहिए होता है मैडम को।’ अन्दर से मेरा दिल रो रहा था।
मैं खामोशी से उठ कर आ गई। पूरब से बात करने से कोई फायदा नही था। मुझसे प्यार जरूर करते थे मगर रेखा को कुछ कहते नहीं थे। उनको ये सब बातें बहुत छोटी लगती थी।
मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। ऐसे भी कोई करता है भला? क्या ससुराल ऐसा ही होता है? मेरा दिल कर रहा था छीन लूं मगर मम्मी की सीख याद आ गई, ‘बेटा! दूसरे घर जगह बनाने में थोड़ा टाइम लगता है, खुद को थोड़ा बदलना पड़ेगा, थोड़ा दिल को मारना पड़ेगा। इसलिए सब्र रखना, छोटी छोटी बातों में अपने मायके वालों को न घुसा लेना, नहीं तो घर टूटते देर नहीं लगती।’ इसलिए मैं बहुत कम बातें उनसे बताती थी।
मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं थी। सर में दर्द था और हल्का बुखार भी था। मैं अपने कमरे में लेटी थी, कोई भी नहीं आया था। सुबह से मैंने कुछ खाया भी नहीं। मुझे भूख लगी थी। पूरब आफिस की तरफ से शहर से बाहर थे। मुझे एकदम से रोना आ रहा था और मैं रोने भी लगी खूब आवाज के साथ।
“क्या हुआ भाभी सब ठीक तो है?” रेखा की आवाज पर मैंने सर उठा कर देखा। मैं कुछ नहीं बोली बस रोये ही जा रही थी तो वो भागकर मम्मी जी को बुला लाई।
“क्या हो गया भई? इस तरह क्यों रो रही हो?” वो मेरे पास बैठते हुए बोलीं।
“कुछ नहीं…”,अब मेरा रोना थोड़ा कम हो गया था मगर मैंने अपना सर फिर झुका लिया। एक तो कुछ खाया नहीं था ऊपर से अपनी मम्मी की बहुत याद आ रही थी। अगर वहाँ होती तो वो मेरे पास ही बैठी रहतीं और मेरी फरमाइश पूरी करती रहतीं।
“क्या हो गया तबियत ठीक नहीं है क्या?” इस बार उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा। उफ्फ्फ! कितना गरम था उनका हाथ।
“क्या हुआ मम्मी जी आपको फीवर है क्या?” मैंने एकदम से पूछा।
“हाँ, रात से ही है इसलिए तो मैं बाहर ही नहीं निकली। मुझे पता ही नहीं चला तुमको क्या हुआ है।”
“अच्छा आप लेटिए मैं गीली पट्टी लाती हूँ मैं जल्दी से बेड से नीचे उतरी।”
“इसकी कोई जरूरत नहीं मैं ठीक हूँ। रेखा मेरे साथ ही थी तभी वो तुम्हारे कमरे में नहीं आ पाई। गीली पट्टी रख रही थी, दवा ले लिया है मैंने। अभी थोड़ी देर में फीवर उतर जाएगा”, उन्होंने मुझे वापस बैठा दिया।
“कुछ खाया नहीं क्या?”
“नहीं! मैंने गरदन हिलाई।”
“जाओ रेखा, भाभी के लिए कुछ ले लाओ।”
वो अभी बिल्कुल माँ लग रहीं थी। फिर वे बताने लगीं, “हमारे खानदान में बहुत टाइम के बाद बाद कोई लड़की हुई थी। न मेरी सास को कोई लड़की थी न उनकी सास को। फिर पूरब आया, लेकिन रेखा के आने के बाद तुम्हारी दादी सास बहुत खुश थीं। लक्ष्मी कहतीं थी इसको, न कोई डांट सकता था न कोई मार सकता था। रोने लगे तो पूरा घर सर पे उठा लेती थी।”
“उन्होंने ही नाम भी रखा था, वो जो फिल्मों में काम करती है रेखा! उन्हें बहुत बहुत पसंद थी इसलिए इसका नाम रेखा रख दिया। मुंह से निकलने से पहले फरमाइश पूरी करती थीं”, मम्मी जी जैसे पुराने दिनों में खो गई थीं।
“तुम्हारी दादी सास जब बहुत बीमार हुईं तो मुझसे वादा लिया कि कोई तकलीफ न हो रेखा को। नहीं तो उनकी आत्मा भटकती रहेगी। उनके जाने के बाद पूरब के पापा जी भी ज्यादा दिन तक हमारे साथ नहीं रहे। पूरब और मैंने इसका पूरा ख्याल रखा। शायद हमनें ही इसको थोड़ा जिद्दी बना दिया।”
“तुमको लगता होगा कि मैं उसे कुछ कहती नहीं। ऐसा नहीं है, मैं उसको बहुत समझाती हूँ पहले से बहुत सही भी हो गई है। तुमसे प्यार भी बहुत करती है, मगर थोड़ा और वक़्त लगेगा। बड़ी जल्दी रोने लगती है। उसका रोना मुझसे देखा नहीं जाता इसलिए उसकी तरफ से बोल देती हूँ। माफ़ कर देना बहू,” उन्होंने कहा तो मुझे बहुत बुरा लगा।
“नहीं मम्मी जी ऐसे माफी तो न मांगिए प्लीज”, मुझे लग रहा था गलती मेरी भी थी।
मुझे उनके साथ बैठ कर उन्हें समझना चाहिए था। मैंने शायद वही देखा जो मेरे दिमाग ने दिखाया। लेकर मैं भी क्या करती वो काम ही ऐसा करती थी और उनकों भी ये सब पहले ही बता देना चाहिए था। मगर देर अभी भी नहीं हुई थी…
मूल चित्र : Canva Pro
Arshin Fatmia read more...
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