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हमें हिंदी को दूसरी भाषा से कमतर नहीं बनाना है न ही दूसरी भाषा को हिंदी के सामने कमतर बनाना है, दोनों ही भाषाओं की पहचान और इज़्ज़त बनाये रखनी है।
घड़ी में डेढ़ बजे है या सवा चार। पिच्चासी रूपए की चीज है या उनतालीस। आज कई बच्चों को तो यह समझ में नहीं आता लेकिन आज महानगरों, शहरो, कस्बों और मुहल्लों में रहने वाला परिवार भी अपने बच्चों को यह समझाने की कोशिश भी नहीं करता है। आज जब बच्चों को हिंदी या देशज भाषा में कोई शब्द समझ में नहीं आता तो हर परिवार के अभिभावक यही सोचते है कि स्कूल सिखा क्या रहा है बच्चों को? महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या परिवार के सदस्यों की कोई जिम्मेदारी हिंदी या देशज भाषा और बच्चों के प्रति नहीं है?
आज बच्चों के लालन-पालन में माता-पिता या परिवार के सदस्यों के बीच हिंदी और स्थानीय भाषा के शब्द विलुप्त हो गए है। इसकी बानगी यह है कि ‘काऊ आई’, ‘देखो डॉग’, ‘कैट’, ‘बेटा आपका नोज कहां है’, ‘आई किधर है?’
नादान और मासूम बच्चे बोलने और समझने से पहले ही कहीं न कहीं अंग्रेजी भाषा में शामिल हो जाते हैं, बाद में यही उनका माध्यम बन जाता है। जब कभी वही बच्चा इनके लिए हिंदी या देशज भाषाओं का संबोधन सुनता है, तो चौंक जाता है। यह उसके नन्हे से मस्तिषक पर हलका सा आघात तो जरूर है जिसका नुकसान कुछ तात्कालिक तो नहीं दूरगामी जरूर होता है।
मैं यहां अपनी बात अंग्रेजी भाषा के विरोध में या हिंदी की पक्ष में मुखालफत करने के लिए कतई नहीं कर रहा हूं। हर भाषा को सीखना हमेशा हर किसी के व्यक्तित्व के लिए अच्छा है हमें परिवार, समाज और देश को अपनी मातृभाषा के प्रति संवेदनशील और जागरूक तो होना ही चाहिए।
व्यक्तिगत रूप में मेरे लालन-पालन और भाषा के साथ मेरे समाजीकरण में मेरी मां जो मात्र हायर सेकंडरी तक ही पढ़ी थी और मेरे दादाजी जो हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा मैथली में निपुण थे, के संरक्षण में हुआ। घर मैं मैथली बोल-चाल की भाषा थी, हिंदी-अंग्रेजी के अखबार, समकालीन पत्र-पत्रिकाएं और उपन्यास आया करती थीं और हम भाई-बहनों की नींद संस्कृत के उच्चारणों से खुलती थी क्योंकि संस्कृत के मंत्रोचारण से ही दादाजी पूजा-पाठ करते थे।
घर के काम काज से मां जब फुर्सत पाती तो हिंदी के पत्र-पत्रिकाओ और उपन्यासों को पढ़ती थी। उन उपन्यासों में महिला लेखिकाएं महादेवी वर्मा, इस्मत चुकतई, शिवानी, महाश्वेता देवी, अमृता प्रीतम हुआ करती थीं। कई पुरुष लेखक के उपन्यास भी थे गोया शंरतचंद्र, बंकिमचंद्र, प्रेमचंद, रविन्द्रनाथ, आर्चाय चतुरसेन, फणीश्वर नाथ रेणु और अन्य।
इन उपन्यासों की भाषा और उसमें हुए शब्दों का प्रयोग हम लोग के साथ भी घर में प्रयोग हो रही चीजों के साथ होता था। मसलन, उन दिनों बिजली समान्य से बहुत कम रहती थी, आती-जाती रहती थी तो किसी आयोजन के अवसर पर पेट्रोमैक्स का उपयोग होता था जिसको पंचलाइट कहा जाता था। हास्पिटल को अस्पताल या ट्रेन को बचपन में लेलगाड़ी बाद में रेलगाड़ी कहना हमने बचपन में इन साहित्य के वजह से ही सीखा।
हम बचपन में अमरूद के फल को अग्रेजी में ग्वावा और मैथली में लताम कहना भी सीखा तो आम तो मैगो और आम्र कहना भी सीखा। इस तरह का प्रयोग अन्य कई चीजों के साथ भी होता था मसलन पेड़-पौधे की पहचान में भी। हिंदी के साथ स्थानीय भाषा की यह समझ प्रकृति से जोड़ने का भी साध्य बनता था।
आज के बचपन में यह कमोबेश नदारद है। कहने का तात्पर्य यह है कि बचपन में गृहणी महिलाएं जिन साहित्य को पढ़कर अपनी भाषा समृद्ध कर रही थी उससे हमारा भाषायी समझ का भी विस्तार हो रहा था। हम भाषा के स्त्रीलिंग और पुलिंग विभाजन को व्याकरण के किताबों से कम घर में समाजीकरण से अधिक सीख रहे थे। इसके पीछे हिंदी के उपन्यास और पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण थी।
हिंदी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार में अन्य प्रयासों के साथ आम घरों के गृहणीयों की भूमिका को अब तक नोटिस नहीं किया गया, जिसको नोटिस किया जाना बहुत जरूरी है। कहा भी जाता है कि मां ही बच्चों की पहली शिक्षक होती है। हिंदी भाषी प्रदेशों की गृहणीयों ने हिदी भाषा की सामाजिक-सास्कृति विरासत को न केवल मजबूत किया है उसको गतिशील भी बनाया है।
मेरी पीढ़ी के कई साथी अपने मध्यवर्गीय परिवारों में मातृभाषा के साथ हिंदी भाषा के संस्कार के कारण ही हिंदी भाषा में कोई भी काम करने में समक्ष हुए है। याद करें स्कूल के दिनों में कमोबेश हर विषय में तो नहीं पर हिंदी विषय में मां की थोड़ी सी मदद कितनी मददगार होती थी, वो हिंदी के स्कूल टीचर के सामने कम जरूर थी परंतु जरूरत के समय मिली सबसे बड़ी मदद थी।
यही नहीं घरों में काम करने के लिए आने वाली कामवाली, सब्जीवाली या फल बेचने वाली भी जिन क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग करती थी, वह कहीं न कहीं हिंदी के साथ मिलकर एक नया सृजन कर लेती थी। इन क्षेत्रीय भाषाओं ने भी हिंदी को समॄद्ध और विकसित किया है। हिंदी के विकास में इनकी भूमिकाओं की पहचान भी नहीं के बराबर हुई है।
जरूरी यह है कि घर में सरल हिंदी भाषा का भी प्रयोग हो और अंग्रेजी भाषा का भी। क्योंकि मौजूदा भारतीय समाज, राज्य और देश इन दोनों भाषाओं के साथ ही चल रहा है। सवाल यह है कि दूसरी भाषा को महत्व देने के साथ हम अपनी भाषा के साथ सौतेला व्यवहार करने लग जाते हैं जिसका हमको एहसास ही नहीं है।
हिंदी केवल हमारी भाषा ही नहीं हमारी पहचान से जुड़ी हुई भाषा भी है। इसका विस्तार हर भारतीय न सही पर हिंदी भाषा-भाषी समाज को होना ही चाहिए। हमें हिंदी को दूसरी भाषा से कमतर नहीं बनाना है न ही दूसरी भाषा को हिंदी के सामने कमतर बनाना है, दोनों ही भाषाओं को एक-दूसरे का परिजीवी या सहयोगी बनाना है। गोया हिंदी भाषा को स्वयं हिंदुस्तानी होने की प्रतिष्ठा भी सामासिक संस्कृति के वज़ह से ही मिली है।
आज हिंदी भाषा या अन्य क्षेत्रीय भाषा को समृद्ध या विकसित करने के लिए उसकी सामजिकता और उसके समाजीकरण को पहचान कर, मजबूत करने की जरूरत है। इसके अभाव में हर वर्ष हिंदी दिवस को जरूर मना रहे होंगे परंतु हिंदी के विकास और उसको समृद्ध करने के लिए कोई ठोस काम नहीं कर रहे होंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि राज्य, समाज और देश की एक पूरी पीढ़ी को एक भाषा से ही वंचित कर रहे होंगे।
मूल चित्र : Canva Pro
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