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लैंगिक असमानता की ट्रेनिंग शरू होती है बचपन में, अपने परिवार से…

लैंगिक असमानता हटाने के लिए हमें उस प्रक्रिया को ही परिवर्तित करना होगा जो बचपन से ही शारीरिक भेद को सामाजिक विभेद में बदल देती है।

लैंगिक असमानता हटाने के लिए हमें उस प्रक्रिया को ही परिवर्तित करना होगा जो बचपन से ही शारीरिक भेद को सामाजिक विभेद में बदल देती है।

बात हाल फिलहाल की नहीं पुरानी है जब दिल्ली में कोरोना काल से पहले डीटीसी की बसें धड़ाधड़ चला करती थीं। एक बार डीटीसी बस नम्बर 615 से जेएनयू से जनपथ बाज़ार के सफर में, मैंने कान में गाने सुनने के लिए लीड नहीं लगाई और दो महिलाओं की बातें सुनने लगा। उन दोनों महिलाओं की बातें यह बयां कर रही थी कि ‘जीवन की पहली पाठशाला’, परिवार, ही लैंगिक असमानता के बीज बोता है, जिसका असर बाद में सामाजिक जीवन में दिखता है।

बच्चों के बीच लैंगिक असामनता का भाव न आने देें

पहली महिला परेशान और दुखी थी कि बेटे के जन्म के बाद से परिवार में बड़े-बुर्जु़गों का व्यवहार अचानक से उनकी बड़ी बेटी के प्रति बदल गया है, यह बदलाव महिला के मन में एक टीस पैदा कर रहा था। दूसरी महिला ने भी अपने अनुभव से यही बयां किया कि होता तो यही है, हमारे हाथ में यही है कि हम बच्चों के बीच में यह भाव नहीं आने दे। ससुराल में तो बड़े-बुर्जु़गों को कुछ कहा नहीं जा सकता, हम अपने बच्चों को ही यह सीख दे सकते हैं कि लड़का-लड़की समान होते हैं।

परिवार में ही शुरू होती है लैंगिक असमानता की ट्रेनिंग

उन दोनों महिलाओं के बातचीत से मैं समाजीकरण और लैंगिक असमानता ही नहीं उन सारी बातों की लिस्ट बना रहा था जो मैंने जीवन की पहली पाठशाला से सीखी थी जो बाद के दिनों में खोखली सिद्ध हुई। मैं उन दोनों महिलाओं की बातों से यह थाह लगाने की कोशिश कर रहा था कि उनकी बातों को समान्य सामाजिक व्यवहार और तमाम असमानताओं के संदर्भ में कैसे समझा जाए? जनपथ तक पहुंचते-पहुंचते मैं इस निष्कर्ष तक था कि वास्तव में हम लड़कियों, महिलाओं या इतरलिंगों के प्रति असंवेदनशील पैदा नहीं होते हैं, हम असंवेदनशील बना दिए जाते हैं, इसकी ट्रेनिंग हमें बचपन में परिवार और आस-पास के असंवेदनशील लोगों से मिलती है।

जीवन की पहली पाठशाला से मिली प्राइमरी सोशलाइजेशन, जिसके ज़रिए हम समाज के सदस्य के तौर पर जो कुछ सीखते हैं उसके अनुकूल अपना सामाजिक व्यवहार भी बनाते हैं। जैसे-जैसे हम प्राइमरी सोशलाइजेशन से निकलकर सेकेंडरीसोशलाइजेशन के दायरे में आते हैं और तमाम चीज़ों पर प्रतिक्रिया देने के बाद जो कुछ हासिल करते हैं, वो हमें धीरे-धीरे सेल्फ सोशलाइजेशन की तरफ ढकेलता है, सोचने समझने को मजबूर करता है कि हमें लोकतांत्रिक और मानवीय होने के लिए, एक बेहतर इंसान और बेहतर नागरिक बनने के लिए कितना कुछ जानना-समझना ज़रूरी है।

इस लैंगिक समानता की लड़ाई में हम खड़े कहां हैं?

तमाम सोशलाइजेशन की यही असंवेदनशीलता मुझे सोशल मीडिया पर या अपने फेसबुक स्टेट्स पर महिलाओं के अधिकारों या महिलाओं से जुड़े विषयों पर लिखने के बाद कमेंट्स में मिले दूसरों के विचारों द्वारा भी मिलती है। यह केवल संगठित ट्रोल भर का मामला नहीं है इसमें भी सोशलाइजेशन की बड़ी भूमिका है, जो यह सिद्ध कर देती है कि समाज में इस वक्त तमाम समानता के क्या मायने हैं या तमाम समानता की लड़ाई में हम खड़े कहां हैं?

लैंगिक असामनता को हटाने के लिए लैंगिक समानता के प्राइरी सोशलाइजेशन में यह समझना और समझाना अधिक ज़रूरी है कि लड़का-लड़की या स्त्री-पुरुष के बीच सिर्फ जैविक संरचना का विभेद है, तमाम पारिवारिक परिस्थितियां, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक निर्धारण इसको जेंडर में तब्दील कर देते हैं इस श्रेष्ठता के साथ कि पुरुष विशेष है और स्त्री हीन।

जेंडर पूरी तरह से समाज निर्मित है

नारीवादी विचारधारा इसको पुष्ट करती है कि जेंडर सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना या परिघटना है जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व के गुणों को गढ़ने के लिए सामाजिक नियम व कायदों का निर्धारण करता है। जेंडर पूरी तरह से समाज निर्मित है।

महिलाओं को कमज़ोर मानने के पीछे उनमें शारीरिक बल की कमी नहीं। मौजूदा असमानता उनकी जैविक असमानता से पैदा नहीं होती है। यह असमानता समाज में उनपर केंद्रित सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की ही देन है। पुरुष यह साबित करता है कि उसका बलशाली होना ही पुरुषत्व की पहचान है। लड़कियां कमज़ोर होती हैं और लड़के मज़बूत।

कई रिपोर्ट और सामाजिक व्यवहार इसका खुलासा करते हैं कि दुनियाभर के बच्चों के दिमाग में दस साल से भी कम उम्र में लैंगिक भेद भर दिया जाता है। अर्थात लड़कों को लड़का होना और लड़कियों को लड़की होना सीखा दिया जाता है।

लैंगिक असमानता की जगह समानता स्थापित करने के लिए हमें उस प्रक्रिया को ही परिवर्तित करना होगा जो शारीरिक भेद को सामाजिक विभेद में बदल देती है। इस क्रिया में सबसे अहम भूमिका परिवार और समाज की तो होती ही है, साथ ही शैक्षणिक संस्थाओं के महत्व को भी नहीं नकारा जा सकता है।

ज़रूरत इस बात की अधिक है कि परिवार और समाज प्राथमिक जीवन की पहली पाठशाला में प्राथमिक समाजिकरण/सोशलाइजेशन को लोकतांत्रिक और मानवीय बनाए। क्योंकि हमारा बचपन ही हमको अंसवेदनशील और अलोकतांत्रिक बना रहा है, जो स्वस्थ लोकतंत्र के साथ-साथ मानवीय विकास के लिए सही नहीं है।

मूल चित्र : VikramRaghuvanshi from Getty Images Signature via Canva Pro 

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