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वो शायद माँ की ओर से उनको रिटर्न गिफ्ट था…

जो माँ उन दोनों के जन्मदिन को उत्सव की तरह मनाती थी, वो दोनों आज उसी का जन्मदिन भूल गये और उसी दिन घर बेच दिया जो माँ को सबसे ज्यादा प्यारा था।

जो माँ उन दोनों के जन्मदिन को उत्सव की तरह मनाती थी, वो दोनों आज उसी का जन्मदिन भूल गये और उसी दिन घर बेच दिया जो माँ को सबसे ज्यादा प्यारा था।

घर में लोगों का आना लगा हुआ था। भीड़ भाड़ से पूरे घर में रौनक सी थी। पिछले 15 दिनों से दोनो बच्चे घर पर ही थे। आज आशा जी की तेहरवीं का हवन हो रहा था। जो घर आशा जी की आवाज़ से, उनकी चूड़ियों की खन खन से, उनकी पायल की खनक से रौशन रहता था, उनके बनाये खाने की खुशबू से महकता रहता था, आज उनके नाम के हवन से गमक रहा था।

लोगों की ज़ुबान उनकी तारीफें करते नही थक रही थी। अंदर बैठी औरतें मन ही मन उनकी तरह जीवन पाने की कामना कर रही थीं। बाहर बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठे आशा जी के पति अरुण जी आने जाने वालों की सांत्वना स्वीकार कर रहे थे। उनके चेहरे पर उदासी और निश्चिंतता के मिले जुले भाव थे। 50 साल की जीवन संगनी से बिछड़ने की उदासी और आशा जी से किया वादा निभाने की निश्चिंतता।

“देखिये मुझे डोली में लाये हैं, अर्थी तक ले जाने की ज़िम्मेदारी आप की ही है”, हंस कर आशा जी कहती। जवाब में अरुण जी झुंझला कर बोलते “आज तक कभी ऐसा हुआ है कि आपसे किया वादा न निभाया हो मैंने फिर बार बार वही क्यों दोहराती रहती हैं आप” और आशा जी खिलखिला कर हंस देतीं। सोचते हुए अरुण जी की आंखें नम हो आयी। जाफ़री से आती हवा का झोंका जैसे उन्हें घसीट कर वर्तमान में ले आया।

उनके दोनों बच्चे बेहद सफल और वेल सेटल्ड़ थे। बड़ा बेटा अविनाश उच्च सरकारी अधिकारी और बेटी अविका की शादी सरकारी इंजीनियर से कर के आशा जी और अरुण जी अपनी जिम्मेदारियों को पूरी कर सुकून से थे। सम्पन्न संस्कारी बच्चे, भरी पूरी गृहस्थी, और इस उम्र में भी इतनी खूबसूरत जोड़ी दोनो समाज में मॉडल कपल थे। लोग मिसाल दिया करते थे दोनो की। शायद लोगों की ही नज़र लग गयी। अचानक आशा जी को हार्ट अटैक आया और दो दिन की बीमारी में चल बसीं।

हवन वगैरह खत्म हुआ। बेटे अविनाश ने बाबू जी को मना कर साथ चलने को राज़ी कर लिया। अरुण जी भी अब जैसे जीवन से विरक्त हो गए थे तो दुखी मन से ही सही साथ चलने को मान गए। बेटी अविका अगले दिन ही पति बच्चों के साथ चल दी। आशा व अरुण जी की 50 सालों की गृहस्थी बहु अनिता ने दो दिनों में जैसे तैसे समेट कर इस लायक कर दी कि उसे बंद किया जा सके। घर बंद करके वो लोग भी दो दिन बाद चल पड़े।

जीवन वापस अपनी धुरी पर चलने लगा। अरुण जी के लिये आशा जी के बिना जीवन अधूरा था पर फिर भी पोता पोती में व्यस्त होकर जीवन व्यतीत कर रहे थे। बेटा बहू भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त रह कर भी भरसक ध्यान रखते। 

जीवन यूँ ही चल रहा था। कई महीने बीत गए। एक दिन ऑफिस से आ कर अविनाश ने बताया कि किसी सरकारी काम से बरैली शहर जाना है, सोचा चलो घर भी देख आएंगे।

घर खोलते ही गंदगी, जाले, दीमक देख कर अविनाश का दिमाग भन्ना गया। जैसे तैसे थोड़ा वक्त गुज़ार कर वापस चला आया।

वापस आकर बाबूजी को फैसला सुना दिया “घर खाली करके किराये पर उठा दें नही तो पूरा घर दीमक खा जाएगी।” बाबूजी निर्विकार भाव से देखते हुए धीरे से बोले, “जैसा तुम लोग चाहो।” मन चुपचाप रो दिया। उनके और आशा जी के सपनों के घर में अब किरायदार रहेंगे पर कुछ कह न सके।

“छुटकी कल छुट्टी लेकर एक हफ्ते के लिए घर जा रहा हूँ। खाली करके किराए पर दे दूँगा। तू भी आ जा, तुझे जो चाहिए हो ले जाना।” 

“भैया माँ बाबूजी के आशीर्वाद से मेरे पास सब कुछ है। अब घर का सामान भी कबाड़ हो गया होगा। उससे क्या लूंगी। तुम सब डिस्पोज़ कर दो।” 

“फिर भी मां की कुछ साड़ी ही ले जाना, उनकी याद समझ कर रख लेना।”

“अरे भैया, साड़ियां सभी पुराने फैशन की हैं। तुम भाभी को दे दो वरना वहीं बांट देना” कह कर अविका ने फ़ोन काट दिया।

अरुण जी ने सुना तो कलेजा मुँह को आ गया। मां के जाने के बाद जब अरुण जी ने उनके जेवर बेटी बहु में बांटे तब किसी को पुराने डिज़ाइन के नही लगे और अब साड़ियाँ आदि आशीर्वाद समझ कर भी लेने को तैयार नही है। पर मन की बात मन मे रख कर चुप रह गए।

अविनाश और अनिता घर गए और सारा सामान बाहर कर के सभी काम वालों और आशा जी के पुराने सेवकों को बुला कर बांट दिया। जो जिसको चाहिये ले जाये। एक एक सामान के साथ आशा जी व अरुण जी की तमाम यादें जुड़ी थीं। क्रोकरी, फर्नीचर, फ़्रिज, टीवी, सब या तो औने पौने दामों में बेच दिया या फिर बांट दिया।

एक हफ्ते में अविनाश और अनिता पूरे घर का सामान डिस्पोज़ करके घर किराये पर दे कर वापस आ गये।

अरुण जी अब पूरी तरह टूट गये थे। बोलना पहले ही कम हो गया था, अब तो ना के बराबर बोलते। पोती आव्या ज़बर्दस्ती कुछ छेड़ती तो ज़रा सा बोलते फिर चुप। पूरे घर में आव्या ही थी जो उनका ध्यान रखती, नहीं तो मशीनी जिंदगी हो गयी थी समय पर खाना, दवा, वगैरह बस।

एक रात ऐसे ही सोये तो सुबह उठे ही नहीं हमेशा के लिए चुप हो गए। बच्चों ने अंतिम संस्कार विधि पूर्वक कर दिया। अविका आयी और जाते जाते अविनाश से बोली “भैया अब घर का क्या करना है” अविनाश उसका मुंह देख रहा था। वो फिर बोली “अब कोई वहाँ रहने तो जा नहीं रहा, फिर उसे रखने का क्या फायदा उसे तो बेच ही देना चाहिए।” अविनाश कुछ नही बोला “देखते हैं” कह कर बात खत्म कर दी। पर साल बीतते न बीतते जब अविका दो तीन बार घर बेचने की बात कर चुकी तो अविनाश ने भी इसे गंभीरता से लेना शुरू कर दिया।

कुछ और महीने बीते तो अविनाश ने पेपर में घर बेचने का इश्तिहार दे दिया। बड़ा घर ,शानदार लोकेशन, फोन पर फोन आने लगे। घर का दाम लगने लगा और उनमें से सबसे ऊंचा दाम लगाने वाले के साथ सौदा तय हो गया। आनन फानन में रजिस्ट्री की तारीख भी तय हो गई। सब एक साथ बरेली जाने को तैयार हो गये। अविनाश ने छुट्टी लेली, बच्चों की छुट्टी कराई, अविका भी पति बच्चों के साथ आ गयी। सब फाइनल करके वो चल पड़े घर बेचने। रास्ते भर वो आने वाले पैसे के इन्वेस्टमेंट की बातें करते रहे।

रजिस्ट्री के कागज़ पर अविनाश और अविका के साइन हो गए, दोनो ने अंगूठे की छाप लगा दी और भी बहुत सारी औपचारिकताएँ पूरी की गईं और फिर एक मोटी रक़म का चेक दोनों के हाथ में थमा दिया गया। अभी वो ये सोच ही रहे थे कि रात को डिनर के लिए कहाँ जाएं कि अचानक आव्या को दादी की याद आयी वो बोली “पापा दादी का जन्मदिन भी तो जुलाई में ही होता है ना।”

 “हाँ 18 जुलाई को होता है।” अविका बेखयाली से बोली इतना सुनते ही अविनाश की आँखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा।

“आज 18 जुलाई है” अविनाश खाली सी आवाज़ में बोला। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जो माँ उन दोनों के जन्मदिन को उत्सव की तरह मनाती थी, वो दोनों आज उसी का जन्मदिन भूल गये और उसी दिन घर बेच दिया जो माँ को सबसे ज्यादा प्यारा था।

दोनो की आंखों में आँसू थे। दोनो थके कदमों से वापस जा रहे थे और हाथ में वो चेक शायद माँ की ओर से जन्मदिन का रिटर्न गिफ्ट था।

मूल चित्र : Shylendrahoode from Getty Images Signature via Canva Pro 

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