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आज फिर तन्हा पाती हूँ ख़ुद को, इस भीड़ में! और इसी तन्हाई में, मुझे फिर ये ख़्याल आता है कि एक रोज़, तुम को एक पाती लिखूँ! और लिख दूँ, उसमें अपने सारे जज़्बात!
सुनो! अक्सर, मुझे ये ख़्याल आता है। कि एक रोज़ तुम्हें, एक पाती लिखूँ। और लिखूँ, उसमें अपने सारे जज़्बात। वो सारे हालात, जो थे तुम्हारे जाने के बाद। वो दर्द, वो तन्हाई, वो अधूरापन, वो सिसकियाँ लेती शामें, वो मुझसे दूर जाते हुए, तुम्हें देखना। ख़ुद को उस रोज़, वहीं छोड़ आई थी मैं। उसी चौराहे पर, जहाँ से चल दिए थे, हम दो अलग-अलग रास्तों पर, हमेशा के लिए। नए हमसफ़र के साथ, नई मंज़िल की ओर, पर ये रास्ता, ये सफ़र, पूरा हो तो कैसे? क्योंकि रूह तो, अब भी मेरी वहीं खड़ी है। उसी चौराहे पर। सोचा था! इस हमसफ़र में, तुम्हें पा लूँगी। पर! मैं ये भूल गई थी, कि तुम जैसा तो, कोई हो ही नहीं सकता। क्योंकि, तुम मेरे दिल से नहीं, मेरी रूह से होके गुज़रे थे।
और रूह जिस्म नहीं जानती, उसे तो, सिर्फ़ रूह की ही तलाश होती है। और मेरे इस हमसफ़र के पास तो, रूह ही नहीं। इसलिए… सुनो! आज न जाने, क्यों बरसों बाद? यादों के झरोखों से, तुम फिर झांकते हो! और याद दिलाते हो मुझे, मेरे मुकम्मल इश्क़ की, अधूरी दास्ताँ। मुझे उन गलियों, उन चौराहों पे, फिर से ले जा। आज फिर दर्द उठता है, सीने में। आज फिर तन्हा पाती हूँ ख़ुद को, इस भीड़ में। और इसी तन्हाई में, मुझे फिर ये ख़्याल आता है। कि एक रोज़, तुम को एक पाती लिखूँ। और लिख दूँ, उसमें अपने सारे जज़्बात।
सुनो! आज बरसों बाद, इस रूह पे, फिर किसी ने दस्तक दी है। बरसों बाद! मेरी रूह ने, रूह को महसूस किया है। ये रूह, तुम जैसी तो नहीं, पर तुमसे अलग भी नहीं है। पर डरती हूँ, अब खुल के इज़हार से। ये सोच कर के कहीं! फिर मेरे मुकम्मल इश्क़ की दास्ताँ, अधूरी न रह जाए। फिर मैं तन्हा ना हो जाऊँ, इस भीड़ में। क्योंकि अब जुदाई सहना, मेरे बस में नहीं। अब के टूटी तो, जुड़ न पाऊँगी फिर कभी। इसलिए… अक्सर! मेरे दिल में, ये ख़्याल आता है। कि एक रोज़ तुम्हें, एक पाती लिखूँ।
मूल चित्र:Canva
Dr.Manishaa Yadava is an Author/poet/storyteller and writer/Reiki Master/Dowser/angels card reader/Motivational speaker/Meditater/Art of living volunteer and Member of Indian Literature society. She has done Phd in economics. read more...
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