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रिवाज़ों की दीवारों में, जकड़ी हुई वो, दहलीज़ों की बेड़ियों से, निकल ना पाती है। मिटाकर हसरतें कितनी, वो! घर का सम्मान, कहलाती है।
ढूंढती है, अपनापन। कभी मायके, कभी ससुराल में।
वजूद उसका भी है! पर पहचानी, पति के नाम से जाती है।
बड़ी नासमझ होती है, स्त्री! आज भी खुद को समझ न पाती है।
रिवाज़ों की दीवारों में, जकड़ी हुई वो, दहलीज़ों की बेड़ियों से, निकल ना पाती है।
मिटाकर हसरतें कितनी, वो! घर का सम्मान, कहलाती है।
बड़ी नासमझ होती है, स्त्री! आज भी खुद को समझ ना पाती है।
मूल चित्र : Author’s own
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