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‘रसोड़े में कौन था?’ रसोड़े में महिलाएं थीं, हैं और तब तक रहेंगी जब तक…

रसोड़े में पुरुष कभी-कभी ही विचरण करता है लेकिन हाय-तौबा अधिक मचाता है, "आज खाना कितना टेस्टी बना है। तुम इतना अच्छा खाना क्यों नहीं बनातीं?"

रसोड़े में पुरुष कभी-कभी ही विचरण करता है लेकिन हाय-तौबा अधिक मचाता है, “आज खाना कितना टेस्टी बना है। तुम इतना अच्छा खाना क्यों नहीं बनातीं?”

कुछ दिनों में सोशल मीडिया पर किसी सीरियल का एक डायलांग काट कर रैप के तर्ज पर पेश किया गया। वह तेजी से वायरल भी हुआ और लोगों ने उसे पसंद भी बहुत किया।

रसोड़े में कौन था? क्या यह इतना अनज़ाना सा सवाल है?

रसोड़े में कौन था? क्या यह इतना अनज़ाना सा सवाल है? आज के दिन में किसी को मालूम ही नहीं है कि रसोड़े में कौन होता है? गांव, शहर, देश ही नहीं दुनिया की हर घर के रसोई में महिलाएं ही है जो अपने जीवन का आधा हिस्सा केवल रसोई में ही बीता देती हैं। फिर इस सवाल को पूछने का तुक ही क्या है कि रसोड़े में कौन था?

जब से मानवीय सभ्यता की शुरुआत हुई है तब से यायावरी के दिनों में जब मानव घूम-घूम कर अपने लिए भोजन संग्रह करता था या शिकार पर निर्भर रहा करता था। उसके बाद आग के आविष्कार और पशु पालन सभ्यता में प्रवेश करने के बाद घर का हिस्सा महिलाओं के जिम्मे आ गया और पुरुषों ने बाहर के जिम्मे की जिम्मेदारी संभाल ली। तब से लेकर मौजूदा आधुनिक समाज में केवल महिलाएं ही तो हैं जो रसोड़े में अपने जीवन का आधा समय बिता देती हैं।

दैनिक जीवन में महिला का सबसे अधिक श्रम रसोई में खर्च होता है

रोज-रोज रसोई में उनका जीवन दीए के तेल के तरह घटता रहता है। कह सकते हैं श्रम के विभाजन के बाद दैनिक जीवन में महिला का सबसे अधिक श्रम रसोई में खर्च होता है, इसलिए महिला दिवस के आते-आते सोशल मीडिया पर यह टैग किया जाने लगता है कि जिस दिन आधी आबादी अपने श्रम का हिसाब मांगेगी पूरी मानवता कंगाल हो जाएगी।

आज के आधुनिक समाज में वह आत्मनिर्भर होकर भी घर के इस रसोई से मुक्त नहीं हो सकी है। चाहे एक आम गृहणी हो या फिर कामकाजी महिला, रसोई में जाए बिना उनका दिन ही पूरा नहीं होता है। सभ्यता के विकास, विज्ञान और प्रौधोगिकी के विकास के बाद भी रसोई जो आज मार्डन किचन में तब्दील हो चुकी है। परंतु, रसोई में पुरुष अपनी इच्छा से कभी-कभी ही विचरण करता है और हाय तौबा अधिक मचाता है, “देखो आज खाना कितना टेस्टी बना है। तुम इतना अच्छा खाना क्यों नहीं बनातीं?”

महिला, चाय और रसोई का रिश्ता देखें तो…

आज के दैनिक जरूरतों में सिर्फ चाय मात्र का ही उदाहरण ले लिया जाए। तब भी रसोई में महिलाओं के श्रम का हिसाब का अंदाजा लगाया जा सकता है। देश की शायद ही कोई रसोई होगी जहां चाय नहीं बनती होगी। कह सकते हैं मानवीय जीवन का वह पेय जो रंगों में घुलती है और इंसान को तरोताजा कर देती है। उस चाय के साथ भारतीय महिलाओं का संबंध ताजगी का भी है और घुटन का भी। महिला चाय पीना पसंद करती हो या न हो उसे चाय बनाना आना ही चाहिए, इससे वह मुक्त हुए बिना रह नहीं सकती है।

चाय के साथ महिलाओं के इस संबंध को सबसे पहले चाय उपादकों ने ही समझा, इसलिए चाय का कोई भी विज्ञापन हो वह महिलाओं के बिना पूरा ही नहीं हो सकता है। ‘सिर्फ शेर दिल जवानों के लिए कड़क चाय’ का विज्ञापन छोड़कर, क्योंकि वह ‘शेर दिल जवानों’ के लिए था, इसलिए उसका मर्दाना होना जरूरी था। उसके बाद चाहे तरोराजा होना हो या पति-पत्नी संबंध में मधुरता लानी हो या स्लीम होने के लिए ग्रीन टी पीना हो, इन सब विज्ञापनों ने महिलाओं को ही प्रमुखता से चुना गया।

यहां चाय बनाना और पिलाना भी एक काम ही है

सिर्फ एक परिवार में चाय पीने के तैयारी से लेकर बनाने और पीने-पिलाने के समय का ही जोड़-घटाव कर लिया जाए। तो चाय के कप तैयार करना, दूध खौलाना उसकी तिमारदारी भी करना कि वह फट न जाए, फिर चाय की पत्तियों को उबालना। उसमें सही मात्रा में चीनी डालना। चीनी कम-अधिक के उलहाने भी सुनना। चाय को छानने के साथ उसके साथ कुरकुरे बिस्किट के प्लेट सजाना या नमकीन गर्म-गर्म पकौड़े बनाना। इन सबके बाद चाय के बर्तन को खरोच-खरोच कर साफ करने तक में महिलाओं का श्रम को जोड़ भर लिया जाए। तब यही आसानी से समझ में आ जाता है कि सिर्फ चाय मात्र बनाने में आधी आबादी ने जीवन का कितना बड़ा हिस्सा चाय दान किया है।

आज भी रसोड़े में महिला ही है

इन सब के बाद फिर से वही सवाल ‘रसौड़े में कौन था?’ हल्के सुरीले तो नहीं बेढंगे तरीके से पूछा गया यह सवाल असल में आज फिर महिलाओं को उसकी जगह बताने की पितृसत्तात्मक कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है। यह वह तरन्नुम तो कतई नहीं है जो थोड़े देर के लिए रसोई में खटती हुई महिलाओं को सकून दे सके। मजेदार बात यह है कि यह सवाल आज उस समय पैदा हुआ है जब कोरोना काल में हर महिलाओं का काम घर में नहीं रसोई में भी थोड़ा बढ़ गया है। आधुनिक रसोई के तमाम उपकरण आज रसोई में मौजूद हैं पर उनका काम के घंटे रसोई में कम नहीं हुई है।

आज जरूरत इस बात कि है कि महिलाएं भी एक वीडिओ ट्रैक बनाकर उस समाज को बता दें। रसोड़े में महिलाएं ही थीं, कल भी, आज भी हैं और तब तक रहेगी जब तक तुम इंसान होकर इंसान के तरह व्यवहार करना सीख नहीं जाओ?

तमाम सभ्यताओं को सहेज कर संभालकर और सभ्यता कहलाने लायक हमें महिलाओं ने ही बनाया है और बनाती रहेंगी। यह जवाब सवाल पूछने वाले समाज के उन रहनुमाओं को तो जरूर सुनाना चाहिए जो रसोई में महिलाओं के सरे श्रम को समाज या देश के विकास का आधार नहीं मानते हैं। अगर महिलाओं ने इसका जवाब नहीं दिया तो सभ्यता के अंत तक उनसे यही सवाल होता रहेगा, ‘रसौड़े में कौन था?’

मूल चित्र : YouTube/VikramRaghuvanshi from Getty Images via CanvaPro

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