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आज एक फैसला ले लिया था नीला जी ने कि अब अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं करेंगी चाहे उन्हें वृद्धाश्रम ही क्यूँ ना जाना पड़े।
भूख से पेट में आतें कुलबुला रही थी। नीला जी की नज़र कभी दरवाज़े को तो कभी घड़ी को ताकती जा रही थी। दोपहर के बारह बजने को थे। बेटे बहु ने सुबह निकलने से पहले कहा था, रूपा (उनकी काम वाली) आएगी तो सारा काम और खाना बना जाएगी पर इस रूपा का अभी तक कुछ अता पता ही नहीं था।
छोटा सा ही परिवार था। नीला जी का एक बेटा था अमित और बहु सोनिया और उनका तीन साल का बेटा रघु।
नीला जी के पति का स्वर्ग वास दो साल पहले हो गया था। एक ही बेटा था तो बहुत मन से सोनिया को बहु बना कर लाये थे, लेकिन पता नहीं क्यूँ सोनिया ने हमेशा एक दूरी बना के रखी नीला जी से। शायद पहले से ही सास को ले कर दिल में ख़टास थी।
“एक बेटी की कमी बहु से दूर करुँगी”, ये सोच रखा था नीला जी ने। लेकिन सोनिया का रुखा व्यवहार देख खुद में सिमट गई। जब तक पति ज़िन्दा थे तो एक साथी साथ था हर सुख दुख में लेकिन उनके जाते ही बहुत अकेले हो गई थी नीला जी।
अमित को तो समय ही नहीं था। सुबह जाता तो रात तक आता था। बस एक रघु उनके पोता ही था जो जी बहलाता था अपनी दादी माँ का लेकिन सोनिया वो भी पसंद नहीं करती। मुँह से तो कुछ कहती तो नहीं लेकिन अपने व्यवहार से जतला देती थी।
इधर कुछ समय से गठिया ने नीला जी को जकड़ लिया था। पहले तो अपना काम आराम से कर लेती थी, थोड़ा घूम फिर भी लेती लेकिन अब सब बंद हो गया था। रात भर दर्द होता रहता। अमित ने कई डॉक्टर को दिखाया दवाई भी दिलाई लेकिन कोई आराम नहीं मिला। दर्द और अकेलेपन से नीला जी विचलित हो जाती। कई बार सोचतीं, ‘इससे अच्छा तो वृद्धाश्रम में रह लेती कम से कम कोई बात करने वाला तो होता”, लेकिन संकोच से कह भी ना पातीं।
सोनिया अपना काम करती और बेटे को ले कमरा बंद कर देती। दो बोल भी अपने पोते और बहु से बतियाने को नीला जी तरस जाती। दिन भर राह ताकतीं अमित का, लेकिन वो भी बस हाल पूछ कमरे में बंद हो जाता, फिर खाना-पीना सब अंदर ही होता।
छुट्टी के दिन उनके दोस्तों के साथ कोई कार्यक्रम बन और पीछे रह जाती अकेली नीला जी।
बहुत याद करती अपने पति को तब बुढ़ापे में अकेलापन काटने दौड़ता।
“जब जा ही रहे थे तो मुझे भी ले जाते क्यूँ छोड़ गए अकेली?” जब तब शिकायत करती पति के तस्वीर से।
आज भी बेटे बहु का पिकनिक का कार्यक्रम था, तो वो जल्दी निकल गए। जाते-जाते बता गए, “रूपा को बोल दिया है, टाइम पे आ कर सारा काम कर जाएगी और खाना भी बना देगी।”
“बहु दो रोटी बना जाती”, जब नीला जी ने कहा तो सोनिया का मुँह चढ़ गया।
“माँ जी बोल तो दिया रूपा बना जाएगी, अभी आ ही रही होंगी”, ये बोल सोनिया निकाल गई।
जब रूपा आती थी तो थोड़ा बैठ बतिया लेती नीला जी से। थोड़ा तेल गरम कर घुटनों पर मालिश कर देती, तो खूब आशीष देती रूपा को लेकिन आज उसका भी कोई अता पता नहीं था। दर्द भी बहुत हो रहा था और खाली पेट दवा भी नहीं ले सकती थी।
“क्या करूँ, क्या नहीं। आज तो लगता है भूखे ही जान निकल जाएगी। है ईश्वर क्यूँ इतना लाचार कर दिया”, सोचती हुई बहुत हिम्मत कर दीवार का सहारा ले धीरे धीरे रसोई तक बढ़ीं। ना जाने कितने दिनों बाद रसोई में गई थी। सब कुछ बदल गया था, बहु ने अपने हिसाब से सब सजाया था।
इस रसोई से जुड़ी कितनी यादें थी। कितना शौक था अमित के पापा को खाने-खिलाने का रात को गरमा-गर्म फूलके बनाती जाती और नन्हा अमित दौड़-दौड़ के अपने पापा को खिलाता जाता। अमित के दोस्तों को बिना खाये कभी जाने नहीं दिया घर से। होली-दिवाली घर पकवानो के खुश्बू से भरा रहता, जो खाता उँगलियाँ चाटता रह जाता।
पति गर्व से कहते, “अन्नपूर्णा पत्नी मिली है मुझे।”
और आज एक रोटी के लिए इस घर की अनपूर्णा तरस रही थी! रसोई में बहुत ढूंढा तो आटे का डब्बा मिला, थोड़ा आटा निकाल प्लेट में पानी ले गुँथा और किसी तरह दो रोटी सेंकी। प्लेट में रोटी और थोड़ी चीनी ले वापस कमरे में आयी। एक टुकड़ा तोड़ मुँह में डाला तो आँखों से आँसू निकल गए। आज ये सुखी रोटी भी कितनी मीठी थी क्योंकि ये नीला जी के स्वाभिमान की रोटी थी।
मूल चित्र : Still from the short film Dadi
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