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सरला देवी चौधरानी ने ना सिर्फ 'वंदे मातरम' के शेष संगीत को तैयार किया, बल्कि उसे गाकर विदेशी शासकों के पांव तले गहरी नींद में सोये राष्ट्र को जगा दिया था।
सरला देवी चौधरानी ने ना सिर्फ ‘वंदे मातरम’ के शेष संगीत को तैयार किया, बल्कि उसे गाकर विदेशी शासकों के पांव तले गहरी नींद में सोये राष्ट्र को जगा दिया था।
बहुत कम लोगों को पता है कि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखे गीत ‘वंदे मातरम’ की पहली दो पंक्तियों की धुन रविन्द्रनाथ ठाकुर ने बनाई थी और शेष संगीत उनकी भतीजी सरला देवी चौधरानी ने ना सिर्फ तैयार किया था, बल्कि उसे गाकर विदेशी शासकों के पांव तले गहरी नींद में सोये राष्ट्र को जगा दिया था।
“वंदे मातरम” गीत गाकर सरला देवी चौधरानी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया था। यही नहीं, उन्होंने 24 अक्टूबर 1901 को कलकत्ता में काँग्रेस की राष्ट्रीय प्रदर्शनी में विभिन्न प्रांतों से आई लड़कियों के साथ “उठो ओ भारती लक्ष्मी” समूह गान का नेतृत्व भी किया था।
19वीं सदी के बंगाल में समाज-सुधार से जुड़े उस टैगोर परिवार में 9 सितंबर 1872 को सरला देवी चौधरानी का जन्म हुआ, जो बंगाल का निर्विवाद सबसे अधिक गरिमाशाली परिवार था। सरला देवी की माँ स्वर्ण कुमारी स्वयं एक प्रतिष्ठित लेखिका थीं, जो महर्षि देवेंन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) की बेटी तथा रविन्द्रनाथ ठाकुर की बड़ी बहन थीं।
सरला के पिता जानकीनाथ घोषाल भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के प्रारंभिक काल के समर्थक एक स्थानीय ज़मींदार के पुत्र थे। विपुल और समृद्ध परिवार में पली-बढ़ी सरला देवी में बचपन से ही बंगाली होने की गज़ब स्वाभीमानी चेतना थी, जो बाद में राष्ट्र चेतना में तब्दील हुई जब उन्होंने स्वयं को स्वदेशी आंदोलन से जोड़ा।
उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘भारती’ में प्रकाशित उनके लेखों से उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जा सकता है, जो उनके जीवन में भी अभिव्यक्त होती है। जब वह अपने ही घर के पिछवाड़े में स्थित अखाड़े में लड़कों को युद्ध कला का प्रशिक्षण दिलवाती हैं, तब गोपनीय क्रांतिकारी संगठनों के सदस्य समय-समय पर कार्यक्रमों में भाग लेने आया करते थे।
उन्होंने ‘प्रतापादित्य उत्सव’ और ‘उदयादित्य उत्सव’ का संचालन करवाया, जिसमें बंगाली युवा अपने युद्ध कला का प्रदर्शन करते और सम्मानित होते थे।
बाद में इन उत्सवों ने ही राष्ट्रीय खेल दिवस की नींव रखी। इन उत्सवों के बारे में उस दौर के अखबारों में टिप्पणियां प्रकाशित होती थीं, जिसने सरला देवी को काफी लोकप्रियता दिलाई। सरला देवी के इन प्रयासों ने बंगाल में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी का रास्ता बनाने का काम किया। स्वदेशी आंदोलन के दौरान बंगाल की महिलाएं पुरुषों की तरह ही सक्रिय थीं।
परंपरागत मूल्यों को चुनौती देने वाली सरला देवी ने अपने माता-पिता की इच्छा को मानते हुए 33 वर्ष की आयु में पंजाब के सुप्रसिद्ध राष्ट्र भक्त, रामभज दत्त चौधरी के साथ विवाह किया, जो वकील एवं पत्रकार थे।
पंजाब आकर भी उन्होंने राजनीतिक क्रियाकलाप को विराम नहीं दिया और प्रभावशाली राष्ट्रीय उर्दू साप्ताहिक ‘हिंदुस्तान’ के संपादन में अपने पति की सहायता करती रहीं। जब अंग्रेज़ों ने साप्ताहिक का लाइसेंस रद्द करना चाहा, तब सरला देवी ने तुरंत साप्ताहिक का पंजीयन अपने नाम से करवा लिया और अंग्रेज़ी में भी पत्र निकालने लगीं।
‘जालियांवाला बाग नरसंहार’ के दौरान साप्ताहिक ने ब्रिटिश विरोधी नीति अपनाई तो दोनों संस्करण बंद करने का आदेश जारी कर प्रेस ज़ब्त कर लिया गया। जब रामभज चौधरी गिरफ्तार कर लिए गए, तब सरला देवी को भी गिरफ्तार करने की योजना थी मगर एक महिला की गिरफ्तारी राजनीतिक जटिलताओं के कारण नहीं हो सकी।
जालियांवाला बाग नरसंहार के दौरान जब गाँधी लाहौर आए, तब सरला देवी के अतिथि बने। यहीं पर वह गाँधी के निकट आईं और उनकी अनुयाई बन गईं। गाँधी, सरला देवी को अपनी आध्यत्मिक पत्नी कहा करते थे। बाद के दिनों में गाँधी ने यह भी माना कि इस रिश्ते की वजह से उनकी शादी टूटते-टूटते बची।
इस पर पति रामभज चौधरी से उनके मतभेद भी हुए, क्योंकि रामभज चौधरी अहिंसा के सिद्धांत से सहमत नहीं थे। इसके बाद भी सरला देवी खादी आंदोलन के प्रचार में लग गईं और अपने इकलौटे बेटे का विवाह उन्होंने गाँधी की पोती राधा के साथ किया।
पंजाब में रहकर सरला देवी ने महिलाओं की शिक्षा के प्रसार के लिए कई छोटे-छोटे केंद्र खोले। इन्हीं केंद्रों को चलाते हुए उनके मन में महिला संगठन की कल्पना उभरी। ‘वीमेंस इंडिया एसोसिएशन’, ‘ऑल इंडिया वीमेंस कॉन्फ्रेंस’ की स्थापना से पहले उन्होंने 1910 में एक अखिल भारतीय संगठन के रूप में ‘भारतीय स्त्री महामंडल’ की स्थापना की।
पहले आयोजन में मुस्मिल महिला जंज़ीरा राज्य की बेगम साहिबा और भारत की एकमात्र शासन रूढ़ महारानी नवाब बेगम की उपस्थिति में सरला देवी ने कहा, “भारत स्त्री महामंडल का लक्ष्य एक ऐसे संगठन का निमार्ण करना है, जिसके माध्यम से भारत में सभी नस्लों, धर्मों और दलों की महिलाओं को भारतीय महिलाओं की नैतिक तथा भौतिक प्रगति में उनके समान हित के आधार पर इकठ्ठा किया जा सके एवं जिस संगठन और जिसके माध्यम से वह साथ मिलकर तथा पारस्परिक सहायता की भावना से महिलाओं की प्रगति द्वारा समुची मानव जाति की प्रगति के लिए कार्य कर सकें।”
भारतीय स्त्री महामंडल अपनी कार्य-योजनाओं के आधार पर महिलाओं की समस्याओं को पहचानने और समाधान करने के प्रयास में संघर्षरत रही। इसमें महिलाओं की शिक्षा पर सबसे अधिक ज़ोर दिया गया।
महिलाओं द्वारा तैयार की गई हस्तशिल्प की वस्तुओं की बिक्री के लिए एक भंडार शुरू किया गया। उर्दू, हिंदी और पंजाबी भाषाओं में सरल अनुवाद का काम भी शुरू किया गया, जिससे महिलाओं को आर्थिक मदद मिल सके। बाद में इसकी शाखा कलकत्ता और उत्तर प्रदेश में भी स्थापित की गई।
1923 में पति के देहांत के बाद सरला देवी कलकत्ता लौट आईं और यहीं से अपना काम संभाला। महामंडल का गठन कर सरला देवी ने महिलाओं को संगठनात्मक शक्ति का एहसास पहली बार कराया।
इन कार्यों के अतिरिक्त सरला देवी का बंगाल साहित्य के विकास में बहुमूल्य योगदान देखने को मिलता है। ‘भारती’ पत्रिका का संपादन उन्होंने कई वर्षों तक किया। उन्होंने इस पत्रिका को टैगौर परिवार के लेखकों तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि अन्य लेखकों की रचनाएं भी प्रकाशित की।
शरतचंद्र के उपन्यास भी ‘भारती’ में देखने को मिलते हैं। विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता, न्यायामूर्ति गोविंद रानाडे और महात्मा गाँधी के लेख भी ‘भारती’ में छपते थे।
इतनी विरल प्रतिभा, लेखिका, योग्य संपादक, गायिका और सक्रिय राजनीतिज्ञ होने के बाद उन्होंने अपने जीवन का अंतिम समय हिमालय के आस-पास धर्म की साधना में लगाया, जहां उनकी मौत हो गई। धर्म के प्रति उनका अचानक लगाव, उनके व्यक्तित्व के एक दिलचस्प विरोधाभास को उजागर करता है।
नोट:- इस लेख को लिखने के लिए ‘The Scattered Leaves of My Life: An Indian Nationalist Remembers’ से मदद ली गई है, जिसकी लेखिका सरला देवी स्वयं हैं।
मूल चित्र : Wikipedia
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