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स्त्री मन को वश में करने का तरीका न था, न है और न होगा…

क्यों एक हिंदुस्तानी स्त्री को मन मार कर भी अपने पति को परमेश्वर मानना होगा, फिर चाहे वो कैसा भी हो, दुगनी-तिगुनी कितनी भी उम्र हो, नासमझ हो, कुछ भी हो?

क्यों एक हिंदुस्तानी स्त्री को मन मार कर भी अपने पति को परमेश्वर मानना होगा, फिर चाहे वो कैसा भी हो, दुगनी-तिगुनी कितनी भी उम्र हो, नासमझ हो, कुछ भी हो?

हर इंसान इस पृथ्वी पर अपनी एक अलग पहचान और एक स्वतंत्र अस्तित्व लेकर जन्म लेता है। लेकिन दूसरी ओर वही इंसान यह भी चाहता है कि बाकि सभी इंसान उसके वश में, उसके अधीन रहकर उसके दिए आदेशों का पालन करें एवं स्वयं के अस्तित्व को पूरी तरह समाप्त कर उसके हाथों में सौंप दे।

स्वयं के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए वह धन, बल, बुद्धि, छल, प्रपंच, झूठी गढ़ी मान्यताओं एवं भय का सहारा लेकर अपनी सत्ता कायम कर सर्वोच्च पद पर आसीन होता है जहां बाकि सभी को केवल वही अधिकार होते हैं जो वह देता है!

जिस दिन से सृष्टि का निर्माण हुआ उसी दिन से एक स्त्री भी पुरुषवादी सत्ता में रहकर स्वयं के अस्तित्व को सिद्ध करने की यही लड़ाई लड़ रही है जिसमें उसका सामना एक ऐसे समाज से है जिसमें पुरुषों के साथ साथ उसकी अपनी नजदीकी स्त्रियां ही उसके खिलाफ पुरुषों की मदद कर रही हैं। इसे पितृसत्ता भी कहा जाता है।

पिछले दिनों एक फिल्म आई थी बुलबुल। इस फिल्म की नायिका बुलबुल जिसका विवाह बाल्यावस्था में ही अपने से चौगुनी उम्र के पुरुष से हो रहा होता है तब बिछुए के विषय में पूछने पर उसकी मां उसे समझाती है कि एक औरत को शादी के बाद बिछुए इसलिए पहनाए जाते हैं कि उसे वश में रखा जा सके और वो कभी ‘उड़’ न सके।

एक और संदेश भी हमें इसी फिल्म से मिलता है कि हिंदुस्तानी स्त्रियों को हर हाल में अपने पति को परमेश्वर मानना होगा, फिर चाहें वो कैसा भी हो, दुगनी-तिगुनी कितनी भी उम्र हो, नासमझ हो, कुछ भी। पुरुषों की इस सत्ता को कायम रखने में करीबी और सगी स्त्रियां भी उसकी मदद करती हैं।

इस फिल्म का एक और सशक्त संदेश यह भी है कि स्त्री को इस बात की इजाजत नहीं कि वह किसी अन्य पुरुष से दोस्ताना व्यवहार रख सके, सिवाय पति के, अन्यथा उस पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाकर ‘चुड़ैल’ तक घोषित कर दिया जाता है।

स्त्री या पुरुष हर किसी का एक स्वतंत्र अस्तित्व है। एक दूसरे पर स्वयं का अधिकार समझ कर वश में करने के तरीके खोजना सदियों पहले से चलता चला आया है।

व्यक्तिगत तौर पर साज-श्रृंगार करना हर स्त्री-पुरुष का अधिकार है लेकिन हां यदि ये गहने उन बेड़ियों का ही एक कलात्मक संस्करण हैं जिन्हें पुरुष के वश में रखने के लिए स्त्रियों को पहनाए जाते थे तो मुझे ऐतराज़ है!

उम्र के एक पड़ाव पर पहुंच कर मैंने अपने आसपास के रिश्तों, समाज और दुनिया को देख परख कर स्वयं के भीतर उतर कर गहन अध्ययन कर केवल यही निष्कर्ष निकाला है कि एक स्त्री को वश में करने का कोई तरीका न तो कभी था, न है और न ही भविष्य में कभी हो सकता है!

एक स्त्री मन से आपके वश में केवल तभी हो सकती है जब वह स्वयं चाहे। बाकि ऊपरी तौर पर जितना चाहे प्रत्यक्ष, परोक्ष रूप से उसे बंधनों में बाँधने की चेष्टा आप करते रहो!

स्त्रियों को अपने नियंत्रण में रखने और वश में करने के लिए तुम लाख सोने, चाँदी, हीरे, मोतियों की बनाई बेड़ियाँ जिन्हें तुम उसका श्रृंगार कहकर उसे पहनाते हो और उसे ये जताते हो कि इन्हें पहनकर वह खूबसूरत लगेगी, वे केवल तुम्हारी आत्मसंतुष्टि के लिए ही हैं। स्त्री मन वश में करने के लिए नहीं!

और रही बात सुहाग की, तो वो तो जिस दिन जिसे अपने हृदय में स्थान दे देती है, तो यमराज से भी उसके प्राण छुड़ाकर लाने की ताकत रखती है! बाकि गहनों से श्रृंगार करना हम सबका अधिकार है!

बुलबुल – “माँ ये बिछुए क्यों पहनाते हैं?”
माँ – “ताकि औरतों को वश में रख सकें!”
बुलबुल – “माँ ये वश क्या होता है?”

सच में, बुलबुल किसी के वश में नहीं होती! वो आज़ाद है! और जिसे ‘वश’ का मतलब ही न पता हो, उसे वश में रखने की जब कोई सोचेगा तो क्या होगा? यह एक विचारणीय प्रश्न है!

और अंत में, मैं भी यही कहूंगी, “ये ‘वश’ क्या होता है?”

मूल चित्र : CanvaPro 

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