कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

और अब बस! अब मैं नहीं कोई और डरेगा…

और फिर एक स्त्री के सिसकने की आवाज़ आई। ऐसी आवाज़ जो कभी बहुत पहले दर्द होने पर चीखी होगी लेकिन अब शायद उसे शारीरिक दर्द की आदत पड़ गई हो...

और फिर एक स्त्री के सिसकने की आवाज़ आई। ऐसी आवाज़ जो कभी बहुत पहले दर्द होने पर चीखी होगी लेकिन अब शायद उसे शारीरिक दर्द की आदत पड़ गई हो…

नोट : विमेंस वेब की घरेलु हिंसा के खिलाफ #अबबस मुहिम के चलते हमने आपसे अप्रकाशित कहानियां मांगी थीं, उसी श्रृंखला की चुनिंदा कहानियों में से ये कहानी है आँचल आशीष की!

अभी कुछ ही दिन हुए थे मुझे इस बिल्डिंग में शिफ्ट हुए। नया घर, नया माहौल, सब कुछ नया-नया सा बहुत अच्छा लग रहा था। शाम को जब अपनी छोटी सी बालकनी में बैठ कर चाय की चुस्कियां भरते हुए नीचे पार्क में खेलते हुए बच्चों को देखती तो एक सुकून का अहसास होता।

मैंने पहली बार उसे वहीं देखा था, अपनी कार से अपने तीन साल के बच्चे को हाथ पकड़ कर निकलते हुए। एक स्त्री होते हुए भी मैं उसे देख प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाई।

‘निश्चित ही किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में जॉब करती होगी’, मैंने मन में सोचा।

अभी कुछ ही वक्त गुजरा था कि कहीं से काफी तेज आवाजें आनी शुरू हो गई। आवाजें इतनी साफ सुनाई दे रही थीं कि एक-एक शब्द मैं सुन सकती थी।

“किससे पूछ कर तुमने ये सब खरीदा? किसके साथ गईं थी तुम? कहीं वह तुम्हारा बॉस तो नहीं था तुम्हारे साथ?” किसी पुरुष के जोर-जोर से चीखने कि आवाज़ आई।

दूसरी तरफ से कोई आवाज़ नहीं आई। वह फिर चीखा, “लगता है तू ऐसे नहीं बोलेगी, मुझे ही कुछ करना होगा।”

और फिर एक स्त्री के सिसकने की आवाज़ आई। ऐसी आवाज़ जो कभी बहुत पहले दर्द होने पर चीखी होगी लेकिन अब शायद उसे शारीरिक दर्द की आदत पड़ गई हो और अब जो सिसकियां हैं वह शरीर के दर्द से ज्यादा मन का दर्द बयां कर रही थी।

मैं हैरान थी, हैरान इसलिए क्योंकि जो औरत घरेलू हिंसा का शिकार हो रही थी वह एक कामकाजी महिला थी और जाहिर है कि वह आर्थिक रूप से भी सबल भी होगी, फिर भी वह घरेलू हिंसा का शिकार हो रही थी। मैंने दरवाज़ा खोला और अपने कॉरिडोर में आ गई और वहां अपने ही घर के सामने वाले घर के बंद दरवाज़े के बाहर उसे फिर से देखा, वह सीढ़ी की रेलिंग पकड़े सिसक रही थी।

शायद मैंने जो आवाजें सुनी, वह इसी घर से आ रहीं थी। मैं और हैरान हो गई। प्रथम दृष्टया जो स्त्री आत्मविश्वास से भरी अपना एक-एक कदम आगे बढ़ा रही थी, क्या यह वही स्त्री है जो अपने ही घर में, अपने ही जीवनसाथी द्वारा अपमानित हो रही है और मेरे ख्याल से यह पहली बार नहीं था। ना जाने कितनी ही बार यह स्त्री घरेलू हिंसा का शिकार हो चुकी थी और फिर भी चुप थी।

मैंने बिना कुछ कहे उसका हाथ थामा और उसे अपने घर ले आई, सोफे पर बिठाया और उसे पानी का गिलास थमाया। पानी का एक घूंट भर जैसे वह थोड़ी तटस्थ हुई और मेरी तरफ मुस्कुरा कर ऐसे देखा जैसे कुछ हुआ ही ना हो। मैंने देखा उसकी आंखों में कुछ बूंदें अब तक तैर रही थीं।

बड़ी देर तक मैं यह सोचती रही कि इससे कुछ कहूं या नहीं, फिर मैंने उसका हाथ थाम कर बोला,
“किससे क्या छुपा रही हो और क्यों?” उसने मेरी तरफ प्रश्नवाचक नज़रों से देखा।

मैं भी बड़ी मुंहफट हूँ, (मेरे घरवाले मुझसे इसी बात से नाराज़ रहते हैं) मैंने फिर बोला, “कम से कम अपने आप से तो कुछ मत छुपाओ। आजकल तो गृहणियां भी चुप नहीं बैठती, तुम तो फिर भी आर्थिक रूप से संबल हो। क्यों सह रही हो यह सब?”

“आप नहीं जानती, मेरे माता-पिता की बड़ी इज्जत है। अगर मैं सब कुछ छोड़ कर चली जाऊं तो क्या इज्जत रह जाएगी उनकी? और मेरे बच्चे का क्या होगा? लोग सौ सवाल पूछेंगे, मैं किस-किस को जवाब दूंगी?”

मैं फिर हैरान थी। मुझे लगा था, समाज बदल रहा है, लेकिन शायद समाज औरतों के लिए आगे नहीं बढ़ा है अब भी वहीं का वहीं है।

वह फिर बोली “मैं बस अपने बच्चे के बड़े होने का इंतजार कर रही हूँ, एक बार वह बड़ा हो जाए फिर कोई कदम उठाऊंगी।”

“अभी तो तुम्हारे बच्चे के बड़े होने में बहुत वक्त है, कब तक यह सब सहती रहोगी? अब बस करो सहना और कम से कम आवाज़ तो उठाओ। इस माहौल में कैसी परवरिश दे पाओगी तुम अपने बच्चे को। तुम्हे क्या लगता है जब तुम खुद अपनी इज्जत नहीं कर पा रही हो तो तुम्हारा बच्चा क्या तुम्हारी इज्जत कर पाएगा?” मैं कहते-कहते उसे देख रही थी और मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरी बातों का कुछ तो असर हो रहा था उस पर।

कुछ दिनों बाद उस घर से आवाजें आनी बंद हो गई थीं और फिर काफी दिनों बाद मैंने उसे फिर से अपना सामान गाड़ी से बाहर निकालते हुए देखा। हमारी नज़रें मिलीं और वह मानो आंखों ही आंखो में मुझे धन्यवाद दे रही थी।

हम स्त्रियां जितना समाज से डरती हैं ना उतना ही ये पुरुष भी समाज से डरते हैं, बस हम स्त्रियां यही बात भूल जाती हैं।

मूल चित्र : Screenshot of Boolywood Film Thappad

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

Anchal Aashish

A mother, reader and just started as a blogger read more...

36 Posts | 103,303 Views
All Categories