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और एक दिन मैंने अपनी ये खामोशी तोड़ दी…

सब उससे हमदर्दी रखते, अफ़सोस भी करते कि हाय बेचारी बहुत सीधी है, हाय बेचारी जबसे आई है कभी ऊंची आवाज में बोली नहीं, हाय बेचारी!

सब उससे हमदर्दी रखते, अफ़सोस भी करते कि हाय बेचारी बहुत सीधी है, हाय बेचारी जबसे आई है कभी ऊंची आवाज में बोली नहीं, हाय बेचारी!

“भाभी क्या हुआ? भाई ने कुछ कहा या फिर आप रात भर सोईं नहीं?” कविता की ननद पंखुड़ी ने कविता का उदास चेहरा देख कर कहा।

“कुछ नहीं बस ऐसे ही, थोड़ा थकान है। लाइट नहीं थी ना इसलिए ठीक से नींद नहीं आई और कोई बात नहीं है। वो मुस्कुरा कर बोली थी, मगर अपने आंखों में आने वाले आंसू को छुपाने के लिए सर झुका लिया।

पंखुड़ी समझ गई, मगर वो कुछ कर भी तो नहीं सकती थी। उसे भाभी पर गुस्सा भी आता। इतना खामोश होकर बिना किसी को बताए वो कैसे सब सह सकती हैं?

“क्या हुआ?” तभी वहाँ मम्मी आ गईं। उन्होंने उदास सी कविता को देखकर पूछा।

“होना क्या है आपके लाडले सपूत की कारस्तानी होगी। मैंने आपको कितना मना किया था, भाई की शादी वहीं कराइये जहाँ वो करना चाहते हैं मगर आप नहीं मानीं।  किसी गरीब की बेटी की जिंदगी बर्बाद कर दी।”

“अरे ऐसे कैसे कर देती उस कलमुँही के साथ अपने इतने होनहार और प्यारे बेटे की शादी? कोई एक भी खूबी होती तो मैं मान जाती। शक्ल-सूरत छोड़ो, कैसे चिल्ला-चिल्लाकर मोहल्ले वालों से लड़ती है। पागल है तुम्हारा भाई जो उसकी जाल मे फंस गया था। उसको तो कोई फर्क नहीं पड़ा आराम से दूसरे लड़के को फंसाने में कामयाब हो गई। देखो ना कैसे उसके साथ हमारे घर के सामने से जाती है।”

“ओ हो मम्मी आप भी ना। जानती हूँ मैं उसको बल्कि सारा मोहल्ला जानता है। मगर आपका बेटा तो जानते बूझते उसे भुला नहीं पा रहा है। और मेरी इतनी मासूम सी भाभी को…”, वो एक ठंडी सी सांस भर कर बोली।

सब जानते थे कविता बहुत मासूम थी। सब कुछ अंदर ही अंदर सह रही थी मगर कभी शिकायत नहीं करती थी। और करके मिलता भी क्या? सब बस अफसोस करते। मायका भी तो ऐसा नहीं था कि उसका साथ दे पाता। ससुराल तो ससुराल ही होता है।

सब उससे हमदर्दी रखते। अफ़सोस भी करते मगर क्या फायदा? एक ‘बेचारी’ का टैग भी दे दिया गया – ‘हाय संयम ऐसा ना किया करो।’  ‘हाय बेचारी बहुत सीधी है।’ ‘हाय बेचारी जबसे आई है कभी ऊंची आवाज में बोली नहीं।’ ‘हाय बेचारी।’ ‘ये बेचारी वो बस बेचारी।’ सब ने उसे बेचारी मानकर बेचारी का टैग तो लटका दिया मगर संयम को मर्यादा में रहना नहीं सिखाया। क्यों वो उसकी बेज्जती करता रहता था? क्यों उसे नीचा दिखाने की कोशिश करता रहता था? सिर्फ इसलिए कि वो उसकी पसंद की लड़की नहीं थी?

एक दिन सब बैठे कैरम खेल रहे थे। वो भी अपना काम खत्म करके वहीं सबके साथ बैठ गई। छोटे देवर ने जबरजस्ती उसे भी गेम में शामिल कर लिया। संयम ने घूरा जरूर था मगर कुछ बोला नहीं।  पंखुड़ी ने शायद कुछ कहा था सब हंसने लगे। कविता भी पहली बार खिलखिला कर हंस पड़ी।  बस इतना भी वो बरदाश्त नहीं कर पाया।

“दांत क्यों निकाल रही हो? शरम वरम है कि नहीं तुम्हारे अंदर? ये नहीं कि अंदर रहो। बाहर आकर बैठ गईं महारानी जी। तमीज़ तो छूकर भी नहीं गुजरी। कैसे बहुंए रहतीं हैं, इतना भी नहीं पता। मोहल्ले वाले भी क्या सोचेंगे कि कैसी गंवार लड़की को बहू बना लिया इन लोगों ने?” वो एकदम आपे से बाहर हो गया।

बात तो कुछ थी ही नहीं ना डाटने का सवाल था ना कुछ कहने का। बात तो कुछ और थी गुस्सा किसी और का था। अभी थोड़ी देर पहले ही तो बन संवर कर अपने पति के बाइक पर बैठकर निकली थी वो। इसी मोहल्ले की थी बल्कि दो घर छोड़ कर रहती थी। शायद उसने सबको बैठा हुआ देख लिया था। बस फिर क्या तैयार हो कर निकल गई उसके सामने से। और इत्तेफाक से संयम की नज़र भी पड़ गई। बस फिर क्या?

“मेरे अंदर तो बहुत शरम है मगर आपके अंदर तो बिल्कुल भी नहीं है। कभी तो देख लिया करो सब बैठे हैं। अंदर कमरे में आप मेरे साथ कैसे पेश आते हैं, मैंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा मगर आपको भी तो देखना चाहिए। माना कि आपकी पसंद की नहीं हूँ। माना कि गरीब घर की हूँ मगर मेरे अंदर भी दिल है, उसे भी सम्मान चाहिए। मान चाहिए। पहली बार पता नहीं कैसे वो बोल गई।  कब से सह भी तो रही थी।

संयम ने कुछ बोलने के लिए मुंह खोला मगर फिर खामोश होकर अंदर चला गया। कविता थोड़ी डर गई मगर उसे जाता देखकर उठ खड़ी हुई।

“क्या बहू? कोई अपने पति से ऐसे बात करता है? वो भी उसके परिवार के सामने? तुमने तो मेरे बेटे की बेज्जती कर दी। माना कि वो गलत कर जाता है मगर इसका ये मतलब तो नहीं कि तुम भी बराबरी करो।”

“हां भाभी! कुछ भी बोलना हुआ करे अपने कमरे में बोला करिए। सबके सामने तो सही नहीं है ना।  आखिर पति हैं वो आपके।”  ये वही पंखुड़ी थी जो हर वक़्त उसके लिए बोलती थी। हमेशा बेचारी भाभी, बेचारी भाभी करती रहती थी। वो भी भाभी का बोलना बरदाश्त नहीं कर पाई।

“मैंने तो तुम्हें बहुत सीधा समझा था। मगर तुममे और उसमें कुछ खास फर्क नहीं लग रहा है”, माँ ने कहा था।

सब बोल रहे थे। वो अब खामोशी से उनको देख रही थी। जब तक वो खामोश थी सब सही था। उसने जरा सा अपने लिए स्टैंड क्या ले लिया वो तुरंत ही गलत हो गई? मतलब चुप रहो तो दुनिया वाले ‘बेचारी’ का, ‘सीधी’ का,  ‘मासूम’ का टैग दे देंगे। थोड़ा उकसाएंगे भी कि वो कुछ बोले। मगर जैसे ही वो अपने लिए बोलना चाहे फौरन वही लोग दबाने लगेंगे। ‘बदतमीजी’ का खिताब दे दिया जाएगा। अभी तो उसने कुछ बोला भी नहीं और…

कैसे होते हैं लोग इतने दोगले? वो खामोशी से चुपचाप अंदर चली गई। लेकिन अब मैं कुछ भी खामोशी से सहुँगी नहीं, अपनी खामोशी को तोड़ना पड़ेगा। अपनी जगह खुद बनानी पड़ेगी। हार नहीं मानूंगी। उसने खुद से वादा किया था।

मूल चित्र : EXTREME-PHOTOGRAPHER from Getty Images Signature via CanvaPro 

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