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नारीवादी तरीके से होनी चाहिए अब धर्म की व्याख्या…

वैसे तो धर्म हमारी सहूलियत, हमारे समाज को एक आदर्श समाज की ओर बढ़ाने में सहायक होना चाहिए, अब उसकी भी नारीवादी व्याख्या होनी चाहिए।

वैसे तो धर्म हमारी सहूलियत, हमारे समाज को एक आदर्श समाज की ओर बढ़ाने में सहायक होना चाहिए, अब उसकी भी नारीवादी व्याख्या होनी चाहिए।

एक लंबी बहस चलती आ रही है धर्म और स्त्री पर। एक मत आस्तिकतावादी है जो बात करता है कि हमारे धर्म में औरत देवी है। इन्हें तो पूजा जाता है। तो धर्म स्त्री विरोधी कैसे?

दूसरा मत नास्तिकता है, जो अपने तर्कों के साथ कहता है कि मौजूदा समय में स्त्रियों की दुर्दशा का कारण उनका समाज में दोयम दर्जा होना धर्मों के कारण है। इनका तर्क रहता है कि वो धर्म जिसे न स्त्री ने बनाया, न स्त्री ने उनके धर्म ग्रंथ लिखे, न गुरू, न पैगंबर, न पोप आदि धर्म पदवी पर स्त्रियां बैठीं, केवल पुरुषों के द्वारा ही यह बना। जिसमें केवल और केवल पितृसत्तात्मक विचार हैं। उस धर्म ने, जिसने औरतों का शोषण किया, उसे त्याग देना चाहिए।

ऐसे मतों के साथ लंबे समय से बहस जारी हैं। मैं भी अपनी बातों को रखते हुए इस बहस में शामिल हो रहा हूं। लेकिन, धर्म को स्वीकार और खारिज़ करने से पहले, हमें एक बार धर्म को समझना पड़ेगा। आखिर धर्म की जरूरत क्यों पड़ी? इसे ढूंढते हैं जरा।

मेरे विचार से हर एक समयकाल में एक परिस्थिति रहती है, उस परिस्थिति में अनेक सवाल होते हैं, जिनका उत्तर देने के लिए धर्म बना। धर्म का एक मतलब देखें तो इसका मतलब होता है, ड्यूटी(काम)। हमारे पूर्वजों ने अपने अनुभव से समाज को कुछ बताने के लिए अपने अनुभवों की समझ को बताने के लिए, गीतों, कविताओं, कहानियों, ग्रंथों, किताबों की रचना की ताकि, लोग उसका दर्शन करके कुछ सीख सकें।

लेकिन, एक समस्या तब पैदा होती है, जब पूर्वजों की बातों को एकमात्र सच मान लिया जाता है, उसे पत्थर पर खींची लकीर मन लिया जाता है, ईश्वर की वाणी, जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती, ऐसा हमने बना दिया है। लेकिन, क्या सचमुच हमारे पूर्वज ऐसा चाहते होंगे कि हम ठहर जाएँ? रुक जाएँ? थम से जाएँ? कुछ सोचे समझे नहीं?

उस समय से लेकर इस समय तक जो प्रगति हमने की है, क्या हम मानवता की ओर बढ़ रहे हैं? क्या इस दौरान में इस समय की जरूरत के हिसाब से धर्म की व्याख्या? हम धर्म के खांचे में नहीं बल्कि, धर्म हमारी सहूलियत, हमारे समाज को एक आदर्श समाज की ओर बढ़ाने में सहायक होना चाहिए। उसकी भी एक नारीवादी व्याख्या हो।

अब नारीवादी दृष्टिकोण ही क्यों? इसका जवाब है कि अब तक जितने भी धर्म हैं। उनकी व्याख्या से वे पितृसत्तात्मक हैं। वह व्यवस्था जिसमें सत्ता का केंद्रीकरण केवल पुरुष के पास है, वह पुरुषसत्ता है। पुरुषों का दृष्टिकोण है उसमें। वहीं नारीवादी दृष्टिकोण में सत्ता का वो केंद्रीकरण नहीं होता। इसमें हम समाज में लोगों की बराबरी की बात करते हैं। जो शोषित वर्ग हैं, जिन्हें हमने कमजोर समझा, नारीवादी सोच में स्त्रियों, एलजीबीटीक्यूआई कम्यूनिटी, दलित समाज, सबको बराबरी से देखा जाता है। नारीवाद में सत्ता का हस्तांतरण, उसके समाज के हर वर्ग के साथ साझेदारी की बात होती है। इसीलिए, उस पुरुष-सत्तात्मक दृष्टिकोण से हटकर हमें नारीवादी दृष्टिकोण की जरूरत है।

कुछ चुनिंदा उदाहरण देकर या देवी बनाकर औरतों को, किन्नर समाज को बड़ा करने के बजाय हमें बराबर समझने की आवश्यकता है। इंसान समझने की आवश्यकता है। अब धर्म को सिरे से सिर्फ खारिज़ किया जाए, यह भी मुझे गलत लगता है। मुझे लगता है कि हम धर्म से बहुत कुछ सीख सकते हैं। कोई भी चीज पूरी की पूरी बुरी हो, ऐसा ज़रूरी नहीं होता। उसमें कुछ अच्छाई भी होती है।

जैसे मिथॉलोजिस्ट या आख्यानशास्त्री देवदत्त पटनायक कहते हैं, महाभारत जैसा ग्रंथ केवल पुरुषों की कहानी नहीं यह महिलाओं की कहानी भी है। तो क्यों न हम महिला दृष्टिकोण से अब इसे देखें और धर्मों की एक नई नारीवादी व्याख्या करें?

मूल चित्र : GCShutter from Getty Images Signature via CanvaPro

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