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एक नई दुल्हन की ख़ुशी से बढ़कर और क्या हो सकता है…

तब भी जितने मुंह उतनी बातें होती थीं। बिलकुल आज के सोशल मिडिया की तरह लाग लपेट कर बढ़ा-चढ़ा कर कहना। ये तब भी वैसा ही था।

तब भी जितने मुंह उतनी बातें होती थीं। बिलकुल आज के सोशल मिडिया की तरह लाग लपेट कर बढ़ा-चढ़ा कर कहना। ये तब भी वैसा ही था।

इंसानी दिमाग में कितने छोटे-छोटे खाने हैं और इनमें न जाने कितनी यादों की पोटलियां कौन जाने कब कहाँ खुल जाये। लेकिन कुछ ऐसी यादें होती हैं जो सिर्फ अपनी नहीं होती बल्कि उस समय, परिवेश और माहौल की होती हैं।

ये बात कुछ 30 साल पहले की है शायद सन 1989-90 की है। मेरे पिता चूँकि वायुसेना में थे, अलग-अलग जगहों पर रहना हमारे जीवन का हिस्सा था और उस समय हम नागपुर वायुसेना नगर में रहते थे।

कैम्प्स का माहौल कैसा होता है इसे बयान नहीं कर सकते, बस यूँ समझिये कि बड़े से दालान में ढेरों परिवार कुछ एक दूसरे के सगे संबंधी जैसे। हर कोई एक दूसरे को जानता भले नहीं था, पहचानता ज़रूर था और मदद मांगने में कभी हिचक नहीं होती थी। अगल बगल के पड़ोसी के घर अगर खाने की खुशबु आये तो समझ लेते थे कि एक कटोरी ज़रूर आएगी। आज भी क्या कैम्पस होते हैं वैसे या इसका अंदाज़ा नहीं।

उस समय आसपास के तमाम बड़े ‘भैया-दीदी’ के बीच हम छोटे थे और किसी को कॉलेज जाते देखते तो किसी को बड़ी क्लास में और नौकरी वाले को देख कर तो आश्चर्य होता!
ज़िन्दगी में कितने आगे हैं ये इंडिपेंडेंट !

फिर अचानक एक दिन घर की बाहर आंटियों के जमघट में गरमा गर्म खबर, “अरे,’सायरा और मिश्रा जी के लड़के’ ने शादी कर ली।”

सायरा दीदी बगल के ब्लॉक में रहती थी और मिश्रा आंटी चार ब्लॉक छोड़ कर।

“हाँ ये तो होना ही था! हमें तो पिछली होली में ही शक हो गया था।”

“अच्छा, उफ़ फिर मिश्राइन तो बड़ी दुखी होंगी!”

“अरे दु:खी? गश खा गिर गयी। मिश्रा जी ने तो बाहर कर दिया।”

“क्या करेंगे, कमाऊ लड़का-लड़की। आजकल के बच्चे!”

जितने मुंह उतनी बातें। बिलकुल आज के सोशल मिडिया की तरह लाग लपेट कर बढ़ा -चढ़ा कर कहना। ये तब भी वैसा ही था।

ये बहुत सी बातें हमारे कानों में पड़ीं और हम उत्साहित, क्योंकि उस उम्र में झंडे के तीनो रंगों के बारे में विस्तार से समझा दिया गया था। वो बात अलग है कि हमारी आँखें तीनों रंग एक साथ देखती और बड़ों की आँखों में वो अलग-अलग दिखते।

बहरहाल ये बातें पूरे कैम्पस में यहाँ वहाँ करीब हफ्ते भर चली और फिर अचानक खबर आयी, “मिश्रा आंटी के घर माता की चौकी है। सपरिवार बुलाया है!”

लोगों में उत्सुकता वाली मुस्कराहट थी, “देखें क्या होता है?”

यूँ इन पूजा पाठी कार्यक्रमों में कुछ खास दिलचस्पी नहीं थी लेकिन हमें ‘दीदी और भइया’ को देखना था।

माता की चौकी शुरू हो चुकी थी। सबसे आगे वाली आंटी ढोलक मंजीरा लिया भजन में डूबी थी और छत के दूसरी तरफ कुर्सियों पर मिश्रा अंकल और बाकि सब अंकल बैठे थे पास ही भैया थे। बिलकुल नॉर्मल!

सायरा दीदी के घर से कोई नहीं था। माता पिता नाराज़ थे। लाज़मी था…

और मिश्रा आंटी तभी ‘दीदी’ को ले कर आयी। रानी कलर की बनारसी पहने सर पर हल्का पल्ला, पैरों में बिछिया, पायल, चूड़ी, कंगन सब दुल्हन का रंग संवार रहे थे। हाँ वो ‘दीदी’ नहीं थी दुल्हन थी। एक दुल्हन जिसने अपना जीवनसाथी खुद चुना था और प्यार का रंग चेहरे का नूर बढ़ा रहा था।

भैया-दीदी को साथ खड़ा कर नज़र उतरी गयी बलाएँ ली गयी दुआयें दी गयी।

बगल की छत पर खाना पीना हुआ हंसी ख़ुशी कार्यक्रम सम्पन्न और लोग अपने अपने घर।
उसके बाद सिर्फ यही खबर यदा कदा आती, “सायरा ने तो घर संभाल लिया। मिश्राइन चिराग ले कर ढूंढती तो भी न मिलती ऐसी दुल्हन।”

कुछ दिन बाद पता चला दिवाली पर सायरा दीदी के माता-पिता मिठाई ले कर बेटी के घर गए कर रिश्तों की नयी पहल हुई।

हम खुश होते की हम बदलते हिंदुस्तान का हिस्सा हैं।

अंकल से उस रात सुना था, “देखिये भाईसाहब ,समय बदल रहा है। नया समय है। नए ज़माने की ये पीढ़ी इन दकियानूसी बातों में नहीं मानती और आगे आने वाला समय, धर्म जाती में नहीं मानेगा। ये मेरा यकीन है।”

बहुत गर्व हुआ था और हमने कोशिश भी की। ये कहने में गुरेज़ नहीं कि हर बार पूरे ज़ोर से इस बात को दिमाग में कूड़े-कर्कट की तरह भरने की कोशिश की जाती कि हम अलग-अलग हैं और हर बार हम इस कचरे की सफाई करते।

एक पूरी पीढ़ी ने कोशिश की या यूँ कहें कि रस्साकशी का खेल होता रहा, लेकिन हम मज़बूत थे और यकीन जानिए न टूटे हैं, न उम्मीद हटी है। नफरत की ईंटो से हिंदुस्तान नहीं बना और जहाँ तनिष्क के नए खूबसूरत से कमर्शियल में लोगों को सिर्फ मज़हब दिखा, मुझे वो तीस साल पहले वाली मिश्राइन और सायरा नज़र आयी।

और अगर बात इस पर है कि यहां दुल्हन हिन्दू थी तो बता दूँ, आज की तारिख में भी कुछ ऐसे जोड़ों को करीब से जानती हूँ जिसे देख मोहब्बत पर यकीन होता है। लड़की हिन्दू, लड़का मुसलमान और जहाँ दिवाली और ईद की ख़ुशी एक तरीके से मनाई जाती है।

तनिष्क का नया कमर्शियल कैसे कब और क्यों नफरत फ़ैलाने के काम आ गया नहीं पता!

किस हिंदुस्तानी को इसमें मोहब्बत न दिख कर सिर्फ धर्म नज़र आया?

किस हिंदुस्तानी को इसमें बेटी की खुशियाँ नहीं, धार्मिक आडंबर नज़र आया?

लानत है ऐसी घटिया सोच पर और ऐसे तर्क पर।

हिंदुस्तान बदल रहा है और रस्साकशी का खेल फिर से शुरू है।

कमर कस लीजिये क्योंकि हार तो हम मानेगे नहीं।

हिंदुस्तानी वो जिसके लिए देश सबसे ऊपर।

उसके ऊपर कुछ नहीं।

मूल चित्र : Getty Images Signature via Canva Pro 

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Sarita Nirjhra

Founder KalaManthan "An Art Platform" An Equalist. Proud woman. Love to dwell upon the layers within one statement. Poetess || Writer || Entrepreneur read more...

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