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दुर्गा देवी का घर क्रांतिकारियों का आश्रय था। वे उनका स्नेहपूर्वक सेवा-सत्कार करतीं, इसलिए सभी क्रांतिकारी उन्हें दुर्गा भाभी कहने लगे थे।
शहीद भगत सिंह पर बनी कमोबेश हर फिल्म, नाटक या डाक्यूमेंट्री इस दृश्य के अभाव में कभी पूरी ही नहीं हो सकती है। जब भगत सिंह एक महिला, बच्चे और नौकर के साथ अंग्रेजों के नाक के नीचे से नीचे से लहौर से कलकत्ता के लिए निकल आते हैं। इसके बाद उस महिला के बारे में न फिल्मों, नाटक या डाक्यूमेंट्री में कोई चर्चा नहीं होती है। दुर्गा भाभी के नाम से इतिहास में चर्चित वह महिला श्रीमति दुर्गा देवी थी जो क्रांतिकारी महिलाओं के कतार में प्रमुखता से याद की जाती है। वह उन खुशनसीब महिलाओं में से है जिनको इतिहास में भरपूर सम्मान मिला और आज भी उनको लोग सम्मान से याद करते है।
पंडित बाके बिहारी भट्ट को इलाहाबाद के कुलीन ब्राह्मण और जिला जज भी थे, उनके घर दुर्गा देवी का जन्म 7 अक्टूबर 1907 को हुआ। देवी दुर्गा के परम भक्त पंडित बाके बिहारी भट्ट ने अपनी बेटी का नाम भी दुर्गा रखा और उनको जय दुर्गा के नाम से पुकारते। जन्म के एक साल बाद ही मां के मौत के कारण दुर्गा का लालन-पालन विमाता और बुअ ने किया। 1918 में 11 वर्ष के अल्पआयु में ही उनका विवाह 15 वर्षीय हाई स्कूल के छात्र भगवती चरण वोहरा से उनका विवाह हुआ और दुर्गा अपने ससुराल लहौर चली आई। यही उन्होंने हाई स्कूल, इंटर की पढ़ाई की और अध्यापिका की नौकरी करने लगी। भगवती चंद्र वोहरा क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त थे जिसका असर दुर्गा देवी पर भी पड़ा। भगवती के सारे मित्र उन्हें दुर्गा भाभी के नाम से पुकारते।
भगत सिंह और उनके साथी को जेल से छुड़ाने के एक घटना में बम परीक्षण के दौरान भगवती चरण के हाथों में ही बम फट गया और उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गए। पति के मौत के बाद भी दुर्गा भाभी ने अपने क्रांतिकारी कामों को विराम नहीं दिया। जिसके कारण पुलिस बराबर उन्हें परेशान करती, घर पर पुलिस के छापे तो हमेशा पड़ते रहते।
भगत सिंह और उनके साथियों के मौत का बदला लेने के लिए उन्होंने बम्बई कमिश्नर की हत्या करने का षड़यंत्र रचा। जिसमें वह सफल नहीं हो सकीं पर दो पुलिस वाले की हत्या हो गई। उसके बाद उनको भूमिगत होना पड़ा जिसके लिए वो राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के यहां रहीं। इसी बीच चंद्रशेखर आजादा की पुलिस मुठभेड़ में शहीद हो गए। इसके बाद दुर्गा भाभी दुखी रहने लगी।
एक दिन वह लाहौर पहुंची और प्री प्रेस आफ इंडिया को अपना वक्तव्य में कहा कि यदि पुलिस मुझे दोषी समझती हो तो बंदी बनाकर मुकदमा चलाये नहीं तो भविष्य में मैं अपने को स्वतंत्र मानूंगी। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और क्रांतिकारी यातनाएं देने के लिए कठोर सजाएं पर उन्हें दुर्गा भाभी से कुछ पता नहीं चला। चार वर्ष की सजा के बाद दुर्गा भाभी रिहा हुई। रिहा होकर उन्होंने 1939 में सुभाष चंद्र बोस का त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में साथ दिया और नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1940 में लखनऊ आकर उन्होंने एक छोटे से स्कूल की शुरुआत की और बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, यह स्कूल आज भी लखनऊ में चलता है । 1998 में दुर्गा भाभी की मृत्यु अपने बेट शचीन्द्र के घर गाजियाबाद में हुई।
दुर्गा भाभी का जीवन बताता है कि महान आदर्श को जीने के लिए महान विचारों का होना जरूरी नहीं है, महान इच्छा शक्ति ही इसके लिए काफी है। एक समान्य सी महिला अपनी मजबूत इच्छा शक्ति के दम पर बहुत कुछ हासिल कर सकती है जो उसे सतोष दे। अपने पति और तमाम क्रांतिकारी साथियों को खोने के बाद भी दुर्गा भाभी अपने कर्तव्य पथ पर चलती रही और करोड़ो महिलाओं के लिए पथ प्रहरी बन गई। वह कभी किसी सामाजिक या सरकारी सम्मान की भी इच्छुक नहीं रही न ही उन्होंने कभी चाहा कि उनका नाम वैसी जगह दर्ज हो जहां से लोग उन्हें जाने। इसके बाद भी आज भी दुर्गा भाभी लोक स्मॄति में मौजूद है।
(नोट : इस लेख को लिखने के लिए एपिक टीवी के डाक्यूमेंट्री क्रांतिकारी महिलाओं का सहारा लिया गया है)
मूल चित्र : YouTube
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