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हाल ही में एक रिर्पोट में आया है कि कोरोना माहमारी के कारण 47 फीसदी कामकाजी महिलाएं काम के प्रेशर के कारण भावनात्मक परेशानी महसूस कर रही हैं।
कोरोना काल में लगे लॉकडाउन ने लोगों को अनेक यादें दी क्योंकि इस समय मिले फुर्सत के पलों को लोगों ने भरपूर जीने का प्रयास किया। इस बीच एक महिला यह सोचते रह गई कि लोगों को फुर्सत के पल कैसे मिल रहे हैं, क्योंकि उसके पास ऑफिस और घर के सारे कामों को करते-करते ही समय बीतते जा रहा है।
असलियत यह है कि महिलाएं घर और ऑफिस के कामों के बीच अपने लिए समय नहीं निकाल पा रही हैं, जिससे उन्हें मानसिक दबाव महसूस हो रहा है। हाल ही में आए लिंक्डइन वर्कफोर्स कॉन्फिडेंस इंडेक्स के दसवें संस्करण के रिर्पोट में यह बात सामने आई है कि कोरोना माहमारी के कारण 47 फीसदी कामकाजी महिलाएं काम के प्रेशर के कारण भावनात्मक परेशानी महसूस कर रही हैं। वहीं पुरुषों के लिए यह आंकड़ा 38 फीसदी रहा।
देशों के आर्थिक विकास का लेखाजोखा रखने वाली वैश्विक संस्था ओईसीडी यानी ऑर्गनाइजेशन ऑफ इकनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट ने वर्ष 2015 में एक सर्वे किया था जिसमें यह सामने आया था कि एक आम भारतीय महिला रोज़ाना लगभग छह घंटे अनपेड वर्क करती है। एक बात यहां गौर करने वाली है कि महिलाएं अगर अपने काम का हिसाब मांगने लगेंगी उस वक्त लोगों की दौलत और मानवता शर्मसार हुए बिना नहीं रहेगी क्योंकि महिलाओं द्वारा किए गए कामों को वरीयता नहीं मिलती है। सोशल जस्टिस की बात करें तो महिलाओं द्वारा किए गए कामों के आगे दुनियाभर के लोगों द्वारा दिए जाने वाले तर्क फेल हो जाएंगे।
प्रोफेशनल साइट लिंक्डइन द्वारा सामने आए सर्वे में शामिल कामकाजी महिलाओं का जो आंकड़ा पेश किया है, उससे यह साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाएं अपने जीवन का आधा हिस्सा घरेलू कामों के साथ-साथ ऑफिस वर्क में गुज़ार देती हैं, मगर उन्हें सुनने के लिए मिलता है कि किया क्या है? महिलाएं केवल यही सिद्ध करने के लिए भी अगर अपने काम का न्याय मांगेगी तब लोगों को अपने सवालों का जवाब मिल जाएगा।
काम के दबाव के कारण महिलाएं मानसिक रुप से भी परेशान हो जाती हैं मगर समाजिक व्यवस्था के कारण बोल नहीं पाती। ऐसे में लोगों को महिलाओं पर तंज कसने का मौका मिल जाता है कि दिनभर करती क्या हैं?
मेरे ही कॉलोनी में एक आंटी रहती हैं, जिन्होंने मुझे बताया था कि लॉक डाउन में उनकी मानसिक के साथ-साथ शारिरीक परेशानियों का अंबार बढ़ गया था।उन्होने बताया था कि घर पर बच्चों, बुजुर्गों और पति के चक्कर काटते-काटते समय बीत जाता था। रात को जब दिनभर की थकान दूर करने के लिए लेटती उस वक्त पति देव को शारीरिक संबंध बनाकर थकान दूर करने का मन करने लगता था। मेरी परेशानियां केवल मुझ कर सिमट गईं थीं क्योंकि सुनने वाला कोई नहीं था। कुछ लोग कहते हैं कि आवाज़ उठाओ। आवाज़ उठाने के लिए भी हिम्मत की ज़रुरत होती है मगर जब मानसिक हालात ही डोल रहे हो तो आवाज़ घुट जाती है।
महिलाओं की परेशानियों के लिए मैंने एक मनोचिकित्सक डॉ. बिंदा सिंह से बातचीत की थी, जिसमें उन्होंने मुझे बताया था कि महिलाएं समाज और परिवार की नज़रों में अच्छी बहू, बेटी आदि की छवि बनाए रखने के लिए काम करती चली जाती हैं और उफ्फ तक नहीं करतीं। इसी वजह से उनके अंदर चिड़चिड़ापन बढ़ने लगता है। ऐसे भी महिलाओं से लोगों को उम्मीदें ज़्यादा होती हैं और इसी उम्मीद तले उनके अरमानों और ख्वाहिशों का पुलिंदा ढह जाता है।
सोशलाइजेशन के होड़ में महिलाओं को सोशल होना चाहिए मगर केवल इतना ही जितना उनके हिस्से के लिए सही हो। अपने लिए अपने हिस्से का कोना हमेशा बचाकर रखना चाहिए ताकि उसमें केवल आपका ही हस्तक्षेप हो क्योंकि खुद को समय देना उतना ही ज़रुरी है, जितना सांस लेना।
मूल चित्र : Screenshot from Bollywood Movie LunchBox
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