कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
किसी भी समुदाय में महिलाओं को इंसान नहीं, बल्कि सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन समझा जाता है जो उनके समुदाय को आगे बढ़ाने का काम करती हैं।
हाल ही में चर्चाओं में घिरे एक विज्ञापन पर लोगों की अलग अलग तरह की प्रतिक्रियाएँ देखने को मिल रही हैं। कहीं पर इसे धार्मिक सद्भाव के लिए सराहा जा रहा है और कहीं पर इसको लव जिहाद के लिए नाकारा भी जा रहा है। धार्मिक दृष्टिकोण के अलावा इस विज्ञापन से जुड़े विवाद से एक और बात सामने आयी है और वो है समुदाय में महिला का स्थान। सभी समुदायों में महिलाओं को इंसान के रूप में नहीं देखा जाता। उन्हें सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन समझा जाता है जो उनके समुदाय को आगे बढ़ाने का काम करती हैं।
भारत में अनेकों धर्म और जाति के लोग रहते हैं और इन सभी समुदायों में अलग अलग तौर,तरीके, रीति, रिवाज़ और कायदे होते हैं। पर इन सभी समुदायों में एक सामाजिक समानता है – एण्डोगामी अथवा सगोत्र विवाह। भारत में हमेशा से ही अपनी ही जनजाति जैसे अपने ही धर्म में विवाह करना, अपनी ही जाति में विवाह करना प्रचलित है।
हमारे समाज में हमेशा से ही अंतर जातीय विवाह को गलत माना जाता है। इसका प्रमुख कारण यह बताया जाता है कि एक समुदाय के तौर,तरीके, रीति, रिवाज़ और कायदे दूसरी जाति से भिन्न होते हैं और इसके कारण सामंजस्य बैठाने में दिक्कत आ सकती है। अतः बेहतर यह ही है कि सभी जातियाँ आपस में ही विवाह करें। ऊपरी तौर से देखने पर यह लग सकता है कि यह सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलने के लिए किया जा रहा है। परन्तु सच इससे विपरीत है।
भारत में स्वजातीय विवाह का लक्ष्य समाज व्यवस्था से अधिक महिलाओं पर नियंत्रण करने का है। सभी समुदायों में महिलाओं को बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता। एक महिला का परम कर्तव्य सिर्फ और सिर्फ प्रजनन। महिलाओं के अलावा प्रजनन की क्षमता और किसी में नहीं है इसलिए किसी भी समुदाय को आगे बढ़ने में महिलाओं की महती आवश्यकता है। पूरे समुदाय का भविष्य महिलाओं के प्रजनन पर टिका है। इसलिए अंतर जातीय विवाह करके अपनी जाति की बच्चा जनने की मशीन को दूसरी जाति का भविष्य बनाने से रोकने के लिए अंतरजातीय विवाह पर रोक लगायी जाती है।
इस नज़रिये से देखा जाए तो महिला अपने आप में सोचने, समझने और अपने फैसले लेने वाली इंसान नहीं सिर्फ एक वस्तु है जिस पर समुदाय का हक़ है। महिलाओं की आवश्यकता सिर्फ उनके प्रजनन के कारण है और किसी कारण से नहीं। और सभी समुदायों में ऐसा ही माना जाता है। कोई भले ही किसी भी धर्म या जाति का हो, महिलाओं के प्रति उसकी मान्यता में कोई खास फर्क नहीं होता है। महिला सभी समुदायों के एक संपत्ति है जिस पर उन्हें नियंत्रण रखना है और जिस पर उन्हें अपना वर्चस्व स्थापित करके रखना है।
इसी कारण से महिलाओं के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाता है जैसा किसी अन्य वस्तु के साथ किया जाता है। किसी वस्तु का मूल्य सिर्फ उसके काम के लिए है, उसका अपने आप में कोई मूल्य और कोई महत्व नहीं होता। उसी तरह प्रजनन के अलावा महिला का समुदाय में न कोई मूल्य है और न ही कोई महत्व। किसी अन्य वास्तु की तरह वह निर्जीव है जिसे पुरुष अपनी आवश्यकतानुसर इस्तेमाल कर सकता है, उसके कोई अधिकार नहीं हैं और न ही वह अपने लिए कोई फैसले करने के काबिल है।
यह ही सोच लेकर हमारा समाज बरसों से महिलाओं को वस्तु मानकर उन पर शासन कर रहा है, उन्हें अपने हिसाब से मोड़तोड क़र उनका इस्तेमाल कर रहा है। इस विज्ञापन से भड़के विवाद में भी यह ही सामने आया है कि कोई भी समुदाय हो, वह महिला अपनी इज़्ज़त का गहना पहनकर उसका शोषण करता है और उसके अधिकारों का हनन करता है।
सबसे महत्वपूर्ण, वह महिलाओं को फैसले लेने का हक़ भी नहीं देता। यह समाज महिलाओं के लिए क्या सर्वश्रेष्ठ है इसे स्थापित करके उनपर राज करता है और उन्हें दबाकर रखता है। उन्ही सर्वश्रेष्ठ मार्गों में से एक मार्ग है स्वजातीय विवाह। विज्ञापन में दिखायी गयी हिन्दू बहु ऐसे ही समाज के द्वारा चयनित ‘सर्वश्रेष्ठ’ मार्ग को छोड़कर अपना मार्ग बना रही है तो यह समाज के गले कैसे उतर सकता है? आखिर महिलाओं का अपने फैसले स्वयं लेना समाज को कैसे भायेगा? इन मुद्दों में औरत तो क्या किसी भी इंसान की ख़ुशी की कोई कीमत नहीं है।
मूल चित्र : JulianneBirch from Getty Images Signature via Canva Pro
Political Science Research Scholar. Doesn't believe in binaries and essentialism. read more...
Please enter your email address