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एक महिला पत्रकार का सामना होता है इन चुनौतियों से…

एक महिला पत्रकार होने के नाते मैं बदलाव से इनकार नहीं कर सकती, लेकिन अनुभव से इतना जरूर कहूंगी कि मीडिया में आज भी पुरुषवादी सोच हावी है।

एक महिला पत्रकार होने के नाते मैं बदलाव से इनकार नहीं कर सकती, लेकिन अनुभव से इतना जरूर कहूंगी कि मीडिया में आज भी पुरुषवादी सोच हावी है।

पत्रकारिता करना अपने आप मे चुनौतीपूर्ण कार्य है और खासकर जब हम महिला पत्रकार की बात करते है तो यह चुनौती और भी बढ़ जाती है। आज समय काफी बदल गया है, पहले की तुलना में आज महिलाओं के लिए कई अवसर हैं, लेकिन आज भी हम महिलाओं को अपना वजूद बनाने के लिए या यूं कहें कि अपनी पहचान बनाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है। मैं बदलाव से इनकार नहीं कर सकती हूं, लेकिन अपने अनुभव से इतना जरूर कहूंगी कि मीडिया में आज भी पुरुषवादी सोच हावी है।

मेरा पत्रकार बनने का सफर

मैं बिहार से ताल्लुक रखती हूं, मैं यही पली बढ़ी और यहीं मैंने अपनी पूरी पढ़ाई की। मेरा रुझान शुरू से ही पत्रकारिता में रहा है। मैं जब भी टी.वी स्क्रीन पर महिला पत्रकार को बेबाकी से अपनी बात रखते हुए देखती थी, तो मेरे मन मे यही ख्याल आता था कि एक दिन मैं भी अपनी बात इसी बेबाकी से दुनिया के सामने रखूंगी। और इसके साथ मेरा जनून पत्रकारिता के तरफ बढ़ने लगा। एक दिन वह समय भी आ गया जब मैं एक पत्रकार बन गई।

क्या महिला पत्रकारों की सच्चाई कुछ और है?

पत्रकार बनने के बाद मेरा सफर शुरू हुआ दिल्ली स्थित एक नेशनल न्यूज चैनल में बतौर असिस्टेंट रिपोर्टर से। फिर मैंने धीरे-धीरे पत्रकारिता और न्यूज चैनल को समझना शुरू किया। बहुत जल्द ही मुझे इस बात का एहसास हो गया कि बाहर से चकाचौंध दिखने वाली इस न्यूज चैनल में काम करने वाली महिला पत्रकारों की सच्चाई कुछ और ही है।

परिवार वालों के साथ संघर्ष

मेरे लिए पत्रकारिता का चयन आसान नहीं रहा। मेरी पहली लड़ाई परिवार के अंदर से ही शुरू हो गई थी। परिवार वालों की इच्छा थी कि मैं एक सफल इंजीनियर, डॉक्टर और प्रोफेसर बनूं, लेकिन पत्रकार नहीं क्योंकि शायद उन्हें इसकी सच्चाई पहले से पता थी। काफी कोशिशों के बाद या यूं कहें कि मेरे प्यार के आगे सभी झुके और मुझे पत्रकारिता के लिए परमिशन दे दी।

खुद को ‘एक्सपोजर’ दो

एक बार की बात है, संपादक ने मुझे अपने केबिन में बुलाकर पूछा कि ‘सब कुछ कैसा चल रहा है? खुद को एक्सपोजर दो, ऑफ़िस के लोगों से बात किया करो। तुम काफी शांत रहती हो, केवल अपने काम से काम रखती हो, ऐसा नहीं होता है। सबसे मिलो, बात करो, इससे आगे की जानकारी बढ़ेगी। आगे के लिए स्टोरी मिलेगा।’

मुझे उनका यह सब कहना काफी अच्छा लग रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था कि इस बड़े शहर में मुझे कोई गार्जियन मिल गया हो, लेकिन उनके अगले शब्दों ने मेरे इस भ्रम को चकनाचूर कर दिया। उनके अगले शब्द थे कि ‘कल से तुम नाईट शिफ्ट ज्वाइन कर लो। आगे बढ़ने और कुछ पाने के लिए बहुत कुछ गवाना भी पड़ता है।’

मैं नाईट शिफ्ट ज्वाइन नहीं करूंगी

मैं उनकी बात को सुनकर स्तब्ध रह गई। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, करूँ तो करूँ क्या? बोलूँ तो बोलूँ क्या? फिर मैंने साहस जुटा कर मना कर दिया। बोला, “सर मैं नाईट शिफ्ट ज्वाइन नहीं करूंगी और ना ही मैं कोई समझौता करूंगी। चाहे कुछ बड़ा करूँ या ना करूँ, चाहे नौकरी रहे या ना रहे।”

फिर मुझे जाने के लिए बोला गया। कल मैं जब आफिस गई तो सब चीज बदला बदला सा लग रहा था। मानो मैं किसी दूसरे के ऑफिस में आ गई हूं। खैर मैं उसी विषम परिस्थिति में काम करने लगी लेकिन कुछ ही दिन के बाद मुझे नौकरी छोड़नी पड़ी।

और अपने राज्य में मेरे दिन

अब दिल्ली में मेरा दम मानो घुटने लगा था लगा। सोचा चलती हूँ अपने राज्य यानि बिहार। हो सकता है मेरी सभी परेशानी वहां खत्म हो जाए। ये सब सोचकर कुछ सालों के बाद मैं बिहार आ गई और एक प्रतिष्ठित रिजीनल चैनल को ज्वाइन किया।

महिला पत्रकारों के लिए कुछ अलग बीट थी

शुरू में सब काफी अच्छा लग रहा था। कुछ महीने बाद मुझे बीट के बारे में पूछा गया तो मैंने पॉलिटिकल बीट की मांग की। लेकिन मुझे आर्ट एंड कल्चर, वुमन राइट दिया गया। फिर कुछ दिनों के बाद 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले मुझे पॉलिटिकल बीट मिल गया। फिर शुरू हुआ मेरा एक नया संघर्ष।

राजनीतिक पार्टी का दौरा और महिला पत्रकार

आप चाहे कितना भी सीनियर पत्रकार क्यों ना हो अगर आप महिला है तो हर राजनीतिक पार्टी और नेता आपको दौरे में जाने में परहेज करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि महिला पत्रकार के होने से पूरे ट्रिप का मजा किरकिरा हो जाएगा। पूरी ट्रिप में उन्हें और उनके लोगों को अनुशासित रहना पड़ेगा। ऐसे में मुझे कई बार, कई बड़ी-बड़ी न्यूज से हाथ धोना पड़ा था।
उदाहरण के तौर पर क़रीब तीन साल पहले न्यू ईयर कवरेज के लिए मुझे राजगीर भेजा गया था और वहाँ भीड़ में मैं ग्रोपिंग की शिकार हुई थी।

एक और वाक़या याद है जब लोकसभा 2019 चुनाव के दौरान झारखंड के कुछ इलाक़ों में जब स्टोरीज़ के लिए गयी थी तब होटल में बुकिंग नहीं होने की वजह से गाड़ी में ही सोना पड़ा था।

महिला पत्रकार, फील्ड जॉब और साधारण सुविधाएं

अक्सर सबसे बड़ी दिक्कत आती है टॉयलेट को लेकर, क्योंकि लंबा ट्रैवेल करना हम फ़ील्ड रिपोर्टर्स के जीवन का हिस्सा रहा है। लेकिन इसकी दिक्कत तब होती है जब फ़्यूलपंप का वाशरूम गंदा मिलता है या फिर दूर दूर तक ऐसी सुविधा मिलती नहीं है।

महिला पत्रकार के असहज क्षण

मुझे कई बार आसपास के लोगों की मानसिकता के ख़िलाफ़ भी लड़ना पड़ा है। कई बार कई ऐसे सवाल पूछे जाते हैं जिनसे बहुत ही असहज महसूस होता है, जैसे जब किसी ने पूछा कि ‘आप महिला हैं, फ़लाँ नेता का इंटरव्यू करना आसान होगा आपके लिए।’ ये सब सुनने के बाद बहुत दुःख होता है।

खैर छोड़िए मेरी इन बातों को। जीवन है तो संघर्ष होगा ही। लेकिन हमें ना ही रुकना है और ना ही झुकना है, बस आगे बढ़ना है और आगे ही बढ़ना है। मैं भी इसी को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ रही हूँ, इस विश्वास के साथ की कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जिसका समाधान ना हो।

आज यह देखकर काफी खुशी होती है कि इन संघर्षों के वावजूद, आज कई महिला पत्रकार हैं जो अपने काम का लोहा मनवा रही हैं।

मूल चित्र : thinkkreations from Getty Images Signature via Canva Pro

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