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आज ही के दिन जन्मी थीं बूढ़ी गांधी उर्फ मातंगिनी हाजरा जिन्होंने दोनों हाथों में गोलियां लगने के बाद भी तिरंगे को गिरने नहीं दिया।
1857 की क्रांति को कई इतिहासकारों ने देश के स्वाधीनता संग्राम का पहला आंदोलन भी कहा है। उसमें बिहार का नेतृत्व 80 वर्षीय वीर कुंवर सिंह कर रहे थे जो अपने साहस और देश के प्रति समर्पण के लिए इतिहास में अमर हैं। ये पूरे बिहार में वीर कुंवर सिंह शहीद नायक के रूप में जाने जाते हैं।
वहीं दूसरी ओर 73 वर्षीय महिला मातंगिनी हाजरा हैं जो देश के आजादी के लिए जुलूस का नेतृत्व करते हुए शहीद हुईं। वे दोनों हाथों में गोलिया लगने के बाद भी तिरंगा को गिरने नहीं देती हैं और तब चिढ़कर गोली उनके सिर पर मार दी जाती है। और वे अन्य कई क्रांतिकारीयों के साथ, जो भी इस जुलूस का नेतृत्व कर रहे थें, शहीद हो जाते हैं।
मातंगिनी हाजरा के शहादत और जीवन संघर्ष के बारे में अधिक लोग नहीं जानते हैं। मातंगिनी हाजरा के बारे में मौजूदा समय में मजेदार बात यह है कि वो भारत में महिला संघर्षों के किताबों में वृद्ध महिला क्रांतिकारी के रूप में दर्ज हैं।
बांग्लादेश के इतिहास में वे कई महिलाओं के लिए आदर्श के रूप में स्थापित हैं क्योंकि उनका जन्म आज के बांग्लादेश में हुआ था और वही उनकी कर्मभूमि भी थी। आजादी मिलने के बाद पहले वह पाकिस्तान का हिस्सा बना और फिर स्वतंत्र बांग्लादेश बना।
मातंगिनी हाजरा, जिनको लोग स्मृति में लोग “गांधी बुढ़ी” के नाम से भी जानते हैं। उनका जन्म 19 अक्टूबर 1870 को वर्तमान बांग्लादेश के मिदनापुर जिले के होगला गांव में एक निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था। पारिवार की आर्थिक स्थिति सही नहीं होने के कारण वह बाल विवाह के साथ-साथ बेमेल विवाह (उम्र से अधिक बड़े व्यक्ति) की भी शिकार हुई।
मात्र 12 वर्ष में ही उनका विवाह 62 वर्षीय त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया। छह वर्ष बाद 18 साल के उम्र में ही उनके पति की मृत्यु हो गई। पहली पत्नी के पुत्र उन्हें नापसंद करते थे तो मातंगिनी हाजरा एक अलग झोपड़ी में रहकर मजदूरी से अपना जीवन यापन करने लगी। गांव के लोगों ने भी हमदर्दी से उनको अपना लिया।
1932 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब देश भर में स्वाधीनता आंदोलन चलाया गया तब कई जगहों पर वंदे मातरम के जयघोष के साथ हर रोज़ प्रभात फेरी निकाली जाती थी। इस तरह का जूलूस जब मातंगनी के घर के पास से गुजरता तो वह शंख बजाकर उसका स्वागत करती और उस जुलूस के साथ हो जाती। धीरे-धीरे हाजरा ने स्वाधीनता संग्राम में अपना सब कुछ अर्पित करने का प्रण ले लिया।
कम उम्र में पति की मृत्यु और स्वयं से अपने जीवन की जिम्मेदारी उठाती हुई मातंगिनी हाजरा को अफीम लेने की आदत थी। अफीम के नशे में उन्होंने देश की स्वाधीनता का नशा मिला दिया। पहली बार “करबंदी आंदोलन” का नेतृत्व के दौरान गिरफ्तारी हुईं और सश्रम कारावास देकर मुर्शिदाबाद जेल भेज दिया गया। जेल से बाहर निकलने के बाद देश में चेचक और हैजा बीमारी से राहत देने के लिए राहत कार्य में सक्रिय रहीं।
1942 में जब भारत छोड़ों आंदोलन जोर पकड़ा तब मातंगनी उसमें सक्रिय हो गईं। पहले विरोध आंदोलन के प्रदर्शन में तीन स्वाधीनता सेनानी शहीद हुए जिसके कारण आंदोलन की रफ्तार कम हो गई। लेकिन मातंगिनी हाजरा ने गांव-शहर में घूम-घूम कर 5000 लोगों का समूह तैयार किया। 29 सितंबर को बड़ी रैली करने का निश्चय किया गया और सभी तय सीमा में सरकारी डांक बगले पर पहुंचे। मातंगिनी एक चबूतरे पर खड़े होकर नारा लगा रही थी तभी एक गोली उनके बाय हाथ में लगी, लेकिन तिरंगा न गिरे इसीलिए उन्होंने दूसरे हाथ में उसे थाम लिया। तभी दूसरी गोली दूसरे हाथ में लगी और थोड़ी देर में तीसरी गोली मातंगिनी के सर पर लगी और वे शहीद हो गईं।
मातंगिनी के शहादत का असर था कि पूरा क्षेत्र आंदोलन में कूद गया। लोगों ने अंग्रेजों को वहां से खदेड़ दिया। और स्वाधीन सरकार स्थापित कर दिया जिसने कुल जमा तीन हफ्ते काम किया।
इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश प्रवास के दौरान तामलुल में मांतगिनी हाजरा की मूति का अनावरण कर उन्हें मौजूदा बंग्लादेश के अग्रणी क्रांतिकारी महिलाओं के श्रेणी में ला खड़ा कर दिया जो औपनिवेशिक संघर्ष में संघर्षरत थी।
मूल चित्र : Wikipedia, YouTube
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