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और अब मैं अपनी छवि को अपना हिस्सा बना रही थी…

मैंने और पति ने अनगिनत मंदिरों में हाथ जोड़े, मगर भगवान ने मुझे संतान सुख से वंचित ही रखा। अब तो रिश्तेदारों ने भी टोकना कम कर दिया था।

मैंने और पति ने अनगिनत मंदिरों में हाथ जोड़े, मगर भगवान ने मुझे संतान सुख से वंचित ही रखा। अब तो रिश्तेदारों ने भी टोकना कम कर दिया था।

35 पार हो चुकी थी मैं, अभी परसों ही कॉलेज के पुराने दोस्तों ने मेरा ऑनलाइन बर्थडे मनाया था। नया ट्रेंड चल निकला है ना, ऑनलाइन मीटिंग्स, ऑनलाइन स्टडी, ऑनलाइन बिजनेस और न जाने क्या-क्या। 5 साल की शादी में मैंने और पति ने अनगिनत मंदिरों में हाथ जोड़े मगर भगवान ने मुझे संतान सुख से वंचित ही रखा। अब तो रिश्तेदारों और दोस्तों ने भी टोकना कम कर दिया था।

मेरी 10 बजे ऑफिस के लिए निकलने से पहले बालकनी में पांच-दस मिनट खड़े रहना आदत थी। उसी समय स्कूल जाने वाले कुछ बच्चों की टोलियां निकलती थी वहां से। कुछ चेहरे तो अब पहचानती भी थी मैं, हंसते खिलखिलाते 8 से 10 की उम्र के बच्चे थे सारे।

उस दिन भी सभी बच्चे वैसे ही जा रहे थे बस उनमें से एक बच्ची थी गौरी सी मैं रोज देखती थी उसको भी, साफ रंग सधे हुए कदम नीची नजर और एक ऊंची सी चोटी, प्यारी थी वह सबसे अलग, वह भी हंसा करती थी रोज। मां बताती है मैं भी बचपन में ऐसी ही दिखा करती थी। मुझे अब ध्यान आया पिछले तीन-चार दिनों से नहीं आ रही थी वह इन बच्चों के साथ। आज देखा तो ध्यान गया और हां आज कुछ लंगड़ा कर चल रही थी वह दर्द उसके चेहरे को सफेद कर चुका था।

आज उसकी चोटी भी बेढब थी।  वह सारे पास के ही एक मोहल्ले के बच्चे थे। हमारी कॉलोनी में बस तीन चार ही बंगले थे उनमें से किनारे वाला मेरा था। छत से भी कई बार देखा था उन बच्चों को मोहल्ले में खेलते हुए स्कूल यूनिफार्म से पहचानती थी मैं।

अचानक उसका संतुलन बिगड़ा और वह गिर गई एक दर्द भरी चीज ने मेरा ध्यान भंग किया। तीन चार लड़के तो आगे निकल चुके थे। उसके साथ उसकी दो सहेलियां भी थी शायद, ना जाने क्यों मुझसे रहा नहीं गया। मैंने गोरखा को आवाज लगाई और जाकर बच्ची को संभालने को कहकर मैं भी नीचे भागी।

“ओफ्फ! ऑफिस का टाइम भी हो रहा है”, पति और मैं एक ही ऑफिस में हैं। पति को जाने के लिए कह कर मैंने बच्ची को जाकर देखा। गोरखा उसको उठाकर गेट की बेंच पर बिठा चुका था। मैंने पानी मंगवाया और उसका हाल पूछा। उसकी उम्र 9 साल थी छवि नाम था उसका। साथ में जो लड़कियां थी उनमें एक उसकी पड़ोसी थी और एक उसकी सौतेली छोटी बहन थी जो सात-आठ  साल की थी।

“क्या हुआ है तुम्हें बेटा?” वह कुछ न बोली मगर उसकी वह बहन बोली, “तीन दिन पहले माँ ने छवि को बहुत मारा है आंटी, लकड़ी से मारा था।”

“मगर क्यों?”

“छवि ने मेरा नया फ्रॉक पहन लिया था जो मेरी नानी लाई थी इसलिए। उसके पास नए कपड़े नहीं है। ना बाबा लाते ही नहीं, सब चीजें मेरे लिए ही आती है। आज ही यह थोड़ा चल पा रही थी इसीलिए स्कूल आ गई।”

मैंने उस मासूम की तरफ देखा जिसने बेंच को कसकर हथेलियों से जकड़ रखा था शायद दर्द की वजह से।

थोड़ा आराम करवाने के बाद मैंने ही बच्चियों को स्कूल छोड़ दिया और ऑफिस निकल गई मगर उसका मासूम चेहरा मेरी आंखों में ही रह गया था।

अब रोज सुबह मैं वक्त से पहले बालकनी में आ जाती और छवि का इंतजार करती। वह भी अब जल्दी आती और हम दोनों खूब बातें करते फिर मैं ही उन्हें स्कूल छोड़ती ऐसा करते करते 2 महीने बीत गए।

छवि से मुझे अब कुछ लगाव सा हो गया था। मेरी ममता का सूखा हुआ घड़ा अब भरने जो लगा था।

एक दिन हिम्मत करके मैंने पति से बात की। उनको पिछले 3 महीनों का सारा वृत्तांत सुनाया जो कि महसूस तो वह भी कर ही रहे थे “क्या हम छवि को गोद ले ले? ले सकते हैं क्या?”

पति कुछ नहीं बोले सो गए मुझे लगा शायद मैंने जल्दबाजी कर दी है।

सुबह उठी तो पति पहले से ही तैयार थे। मुझे उठाया, बोले, “जल्दी तैयार हो जाओ वकील से मिलने जाना है।” मैं चौक गई, क्या इन्हें मेरी बात इतनी बुरी लगी? ‘हे भगवान! तलाक?’

“नहीं नहीं यह मैं क्या सोच रही हूं?” मैं बोली, “सुनो मैंने तो ऐसे ही…”

“अरे अब तुम तैयार होती हो कि नहीं”, पति ने मेरी बात बीच में ही काट कर कहा, “वकील से मिलकर पूछना है ना कि बच्चा गोद लेने की क्या प्रक्रिया है? छवि को गोद नहीं लेना है?” वह बोले।

ओह्ह! मैने सांसे संभाली…आखिर अब मिल ही जाएगी मुझे ‘मेरी छवि’।

मूल चित्र : FatCamera from Getty Images Signature via Canva Pro

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