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तुझ पे तो मैं ऐसे हक़ जताती हूँ, पूछे मुझसे मेरा पता तो तुझे घर बताती हूँ। ऐ कलम, ये दोस्ती तुझसे क्या रंग लाई है, तू ही मेरी पूंजी, मेरी ज़िन्दगी की कमाई है।
कुछ ख़ास बनने की चाहत लिए, ज़िन्दगी में इतनी दूर चली आई।
खुदा ने नवाज़ा इस हुनर से, भीड़ में अपनी छोटी सी पहचान बनाई।
बदलते देखा रिश्तों को मौसम सा, ऐसे में तूने मुझसे वफ़ा निभाई।
ज़ब ज़ब मेरे लफ्ज़ हारे, तूने जज़्बातों से कर दी भरपाई।
ज़िन्दगी के इस कोरे कागज़ को, ज़ब ज़ब तुझ से स्पर्श कराया। आँखों से जज़्बात बह उठे, तूने अल्फ़ाज़ों से उसे सजाया।
तनहाई के घेरे में खो चुके थे, तूने कड़ी बन के लोगों से मिलाया। अरमान अधूरे से जो हो चुके थे, तूने चुपके से उन्हें जगाया।
बस यूँ ही तू मेरी हमदर्द बन जा, मैं बन जाऊं तेरी सहेली। तुझे छूते ही जवाब मिल जाते, हल करती मेरी सारी पहेली।
तुझसे मोहब्बत का आलम कैसे समझाऊँ, दिल करता है की स्याही बन जाऊँ। जब भी निकलूं तुझे छू कर, दास्ताँ लिखूं और तुझे ख़ाली कर जाऊँ।
मूल चित्र : Vikas Shankarathota via Unsplash
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