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जिस देश के घर महिला चलाती हैं, उसी देश को ज़्यादातर इन्हीं घरों के पुरुष चलाते हैं और गौर से देखें तो देश के हालात इस तथ्य की गवाही देते हैं!
राजनीति और महिलाओं का मेल हमारे समाज को रास नहीं आता। तभी तो देश के लगभग 50 प्रतिशत आबादी (महिलाओं) का प्रतिनिधित्व करने के लिए देश के सर्वोत्तम संसद में केवल 78 सांसद है। संविधान ने तो महिलाओं को पुरुषों के सामान दर्जा दे दिया, सामान अधिकार भी दे दिए परन्तु यह समाज उन सभी अधिकारों और सामान दर्जे को पचाने में अक्षम रह गया।
भारत के संविधान के अनुसार 25 वर्ष से अधिक उम्र का कोई भी व्यक्ति, चाहे वो किसी भी जाति, धर्म, लिंग और क्षेत्र का हो, वह देश का राष्ट्रपति बन सकता है। फिर भी आज़ादी के सात दशकों के बाद भी देश में केवल एक महिला राष्ट्रपति और एक ही महिल प्रधानमंत्री चुनी गयी हैं। राज्य सांसदों में हाल इससे भी ख़राब है क्योंकि पूरे देश के सभी विधान सभाओं में कुल मिलाकर केवल 9 प्रतिशत महिला सांसद हैं।
1992 में संविधान में लाये गए 73वें और 74वें संशोधन से पंचायत और नगर निगम की स्थापना हुई जिसमें पहले बार महिलाओं को नेतृत्व देने का प्रयास किया गया। इन संशोधनों के अनुसार सभी पंचायत और नगर निगम में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। इसे महिला सशक्तिकरण की एक पहल भी माना गया था। परन्तु कुछ ही वर्षों के बाद इस नियम की पोल पट्टी खुल गयी और यह पता चला कि अधिकार महिला नेताओं को सिर्फ आरक्षण के कारण सीटों पर बैठाया जाता है और उनके सारे निर्णय अभी भी उनके परिवार के पुरुषों द्वारा लिए जाते हैं। अनेक राजनीति विशेषज्ञों ने इन महिलाओं को ‘प्रॉक्सी वीमेन’ कहा है।
देश में महिलाओं द्वारा नेतृत्व के गिने चुने उदाहरण हैं और संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के बाद भी महिलाऐं राजनीति से गायब हैं। इसका पप्रमुख कारण है सामाजिक असहजता। राजनीति का अर्थ है सत्ता और शक्ति और यह तो सदियों से ही तथाकथित पुरुषों का क्षेत्र है। महिलाओं को हमेशा ही सत्ता और शक्ति से दूर नियंत्रित और अशक्त रखा गया है ताकि पुरुष उनपर अपना वर्चस्व स्थापित कर सके।
पुरुष महिला को हमेशा से ही अपने से कमतर और सामाजिक सीढ़ी में अपने से नीचे समझता है। वह समझता है कि महिलाओं पर मेरा शासन है और उनका काम है मेरे द्वारा शासित रहना। अगर ऐसा कहा जाये कि यह पुरुषवादी समाज पुरुषों को महिलाओं के ऊपर राज करने का जन्मसिद्ध अधिकार देता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ऐसे में हमेशा से ही महिला को अबला, बेचारी और को उसका सहारा और बलयुक्त माना गया है।
लैंगिक आधार पर सामाजिक ज़िम्मेदारियों का बंटवारा होने से महिलाओं के हिस्से में आया घर और चूल्हा-चौका जो सत्ता से कोसों दूर हैं और पुरुषों को मिली राजनीति और नेतृत्व जो सत्ता और शक्ति से परिपूर्ण है। यह बंटवारा आज या कल नहीं हुआ है अपितु सदियों से चला आ रहा है।
हमारे समाज में यह बंटवारा इतना पुराना है कि हमें यह लगने लगता है कि यह प्राकृतिक है और इसे प्रकृति ने बनाया है। प्रकृति ने स्वभाव से महिलाओं को शांत, कोमल और भावनाओं से ओतप्रोत बनाया है और पुरुषों को भाव रहित, समझदार और तर्कसंगत बनाया है। मगर यह सरासर असत्य है। यह सारा बंटवारा प्राकृतिक नहीं मानवकृत है। यह जान बूझकर महिलाओं को शोषित करने के लिए बनाया गया है और बहुत ही चतुराई के साथ इसपर प्राकृतिक होने का ठप्पा लगा दिया गया है।
इस बंटवारे के कारण पुरुषों और महिलाओं के सामाजिक दायित्व निर्धारित किये गए हैं। महिलाओं को हमेशा से ही सत्ता से दूर रखा गया है। अनेकों वर्ष अधीनता में बिताने के बाद और अनगिनत आन्दोलनों के बाद महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा मिला है। परन्तु अभी भी संघर्ष बाकी है।
ऊपरी तौर पर भले ही महिलाओं को राजनीतिक अधिकार मिल गए परन्तु उन अधिकारों की पूर्ति अभी भी बाकी है। इस समाज को महिलाओं को नेताओं के रूप में स्वीकार करना अभी भी नहीं आया है। महिलाऐं चुनाव तो लड़ती है परन्तु उनके जीतना का अवसर पुरुषों से कई गुना काम होता है। इसका प्रमुख कारण है महिलाओं को कमतर मानना।
आज भी हमारा समाज महिलाओं को राजनीति के लिए अक्षम मानता है और किसी महिला से हुकुम या आर्डर लेने में खुद को तौहीन समझता है। इन सब कारणों के चलते महिलाओं के राजनीतिक अधिकार सिर्फ कागज़ी हो जाते हैं और महिलाओं की राजनीति से दूरी बनी रहती है। यह पूरी प्रक्रिया आवर्तनशील होती है।
पहले महिलाओं को सिर्फ उनके लिंग के आधार पर उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता जिससे राजनीति एक पुरुषप्रधान क्षेत्र बन जाता है। और पुरुषों की बहुलता और महिलाओं की कमी का बहाना बनाकर यह कहा जाता है कि पॉलिटिक्स महिलाओं के बस की बात नहीं।
अतः किसी भी प्रकार का संशोधन, अधिनियम या एक्ट महिलाओं के लिए नेतृत्व के दरवाज़े नहीं खोल सकता। महिलाओं को राजनीति में बराबरी का हिस्सेदार बनाने के लिए सामाजिक सोच में बदलाव लाने की ज़रुरत है। महिलाओं और राजनीति के बीच की असहजता को दूर करने की ज़रुरत है। महिलाओं को प्रतिनिधित्व का मौका देने के लिए सत्ता और शक्ति को लेंगिकता से हटकर समझने की ज़रुरत है।
नेतृत्व और तर्कसंगति कोई भी पुरुष जन्म से लेकर नहीं आता। यह गुण किसी भी व्यक्ति में अपने स्वभाव के कारण होते हैं, लिंग के कारण नहीं। राजनीति में महिलाओं को मुख्य धरा में शामिल करने के लिए राजनीती और लिंग को अलग करने होगा तब ही सही मायनों में समानता स्थापित हो सकती है।
मूल चित्र : Getty Images Signature via CanvaPro
Political Science Research Scholar. Doesn't believe in binaries and essentialism. read more...
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