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इस रक्तबीज का संहार दुर्गा के हाथों ही होगा…

ये सिस्टम, ये नेता, इसी समाज़ की देन है, ये नहीं बदलने वाले। बेटी को दुर्गा हमें बनाना होगा। रक्तबीज का संहार दुर्गा के हाथों ही होगा।

ये सिस्टम, ये नेता, इसी समाज़ की देन है, ये नहीं बदलने वाले। बेटी को दुर्गा हमें बनाना होगा। रक्तबीज का संहार दुर्गा के हाथों ही होगा।

सोशल मीडिया पर कुछ लोगों को पढ़ा मैंने, हाथरस गैंगरेप की पीड़िता के लिए कौन आवाज़ उठा रहा है कौन नहीं, इस बात पर मुद्दे बनाये जा रहे हैं। लेकिन मैं कहती हूं क्या होगा इनके बोलने से?

ये बोलेंगें तो क्या रेप होना बंद हो जाएगा?

निर्भया गुनहगारों को फांसी हुई तो क्या रेप होना रुक गया? या प्रियंका रेड्डी के गुनहगारों को पुलिसकर्मियों ने सीधे गोली मार दी, तो क्या सबक मिल गया?

लिख कर देती हूं कुछ नहीं बदलेगा। एक मरेगा दूसरा हैवान तैयार हो जाएगा। रक्तबीज की तरह हैं ऐसे मानसिक विकृति के लोग। ख़त्म नहीं होंगे। बल्कि एक के बाद एक जन्म लेंगे।

किस सरकार को दोष दें? कौन है यहाँ दूध का धुला? निर्भया के समय आपने और सरकार ने क्या किया या जो इस पीड़िता के लिए करेंगे? सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं!

दोषी ढूंढने निकलो तो सब से पहले अपने समाज़ पर नज़र डाल लो। ये सब सिर्फ सरकार की नहीं, हमारे समाज़ की देन है। हम बड़ी आसानी से ऐसे कुकर्म, ऐसी हैवानियत के लिए सिर्फ सरकार नेताओं के मत्थे मढ़ कर ख़ुश हो लेते हैं। ३-४ पोस्ट कर देंगे। सोशल मीडिया पर चर्चा कर लेंगे, लेकिन इस के जड़ को नष्ट करने के लिए कुछ नहीं करेंगे।

हमारे समाज़ में शुरू से लड़कियों को दबा कर रखा गया और लड़कों को सिर आंखों पर। जिनकी बेटियां हुईं, तो पुत्र प्राप्ति के लिए बेटे की दूसरी शादी करा दी जाती है। डर है वंश ख़त्म हो जाएंगा। लड़कियां वंश आगे नहीं बढ़ातीं। लेकिन वंश उन्हीं की कोख़ में पलता है। कितनी हास्यस्पद है ये सोच? यह किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था हैं?

लड़कियों को बचपन से सहमना सिखाया जाता है। दूसरे घर जाना है, घर की मान मर्यादा तुम्हारी हाथ में है, बिटिया सबकी सुनना, पति परमेश्वर हैं, सास ससुर की हर आज्ञा का पालन करना तुम्हारा धर्म है? कम और धीमी आवाज़ में बात करनी है, ठहाके मार कर नही मुंह दबा कर हंसना है…पति नहीं है, तो तुम्हें रंग बिरंगे कपड़ों से दूर रहना है, सजने संवरने का हक़ नहीं है क्योंकि इससे पराये पुरूष के नज़रों में आ जाओगी…

इस तरह के कितने नियम पुरूष के लिए निर्धारित किये गए है? मुझे नहीं पता। अगर आप लोगों को पता है तो प्लीज़ मुझें जरूर बताएं।

बेटा गाली दे तो मर्द है, किसी को मार कर आये तो शेर है, लड़की को छेड़े तो…उमर ही ऐसी है, इस उम्र में ऐसा होता है…बेटा तो कुछ भी कर…तू तो वंश है तुम्हारे लिए कोई नियम नहीं है…एक तो तेरी बहकने की उम्र है, दूसरा तू तो मर्द है…

एक लड़की आवाज़ उठाती है, तो समाज़ लग जाता है उसके चरित्र की बखिया उधेड़ने में। चरित्रहीन है, लड़को को उंगलियों पर नचाती हैं, सब कुछ कर चुकी है, अब चली है सती सावित्री बनने। ये टैग हैं बोल्ड लड़कियों के लिए।

क्या नहीं लगता ऐसी सामाजिक व्यवस्थाओं में बदलाव लाया जाए? बेटियों को वही हक़ मिले जो बेटों को दिया जाता है?

बेटों को कहा जाय, “संस्कार ही तुम्हारी मर्दानगी हैं!”

“लड़कियों को इज़्ज़त देने वाला मेरा शेर पुत्तर!”

“उम्र कितनी भी हो बेटा, बहकने और गुनाह करने पर तुम्हें सज़ा दिलाने के लिए हम स्वयं आगे आएंगे!”

सोच बदलने से ही बदलाव आएगा और सोच को बदलना ही पड़ेगा। पितृसत्तात्मक प्रथा का अंत करना ही होगा। सर्वसामान्य प्रथा का प्रचलन हो। सब वर्ग सामान हो। बेटा बेटी में फ़र्क़ करना बंद करना होगा। तभी कुछ संभव है।

ये सिस्टम, ये सरकार, ये नेता, इसी समाज़ की देन है, ये नहीं बदलने वाले। बदलाव का बिगुल हमें बजाना है। बेटी को दुर्गा हमें बनाना होगा। रक्तबीज का संहार दुर्गा के हाथों ही होगा।

नहीं तो तैयार रखों ख़ुद को। रक्तबीज के दूसरे तीसरे रूप के लिए और एक और बेटी की बलि के लिए।

मूल चित्र : mds0 from Getty Images via CanvaPro

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