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सच : कितना कड़वा?

बचपन की वो बात याद आती है जब हम स्कूल जाते थे तब अध्यापक हमे सच का महत्त्व समझाते थे। लेकिन अब सच के मायने बदल गए हैं। 

बचपन की वो बात याद आती है जब हम स्कूल जाते थे तब अध्यापक हमे सच का महत्त्व समझाते थे। लेकिन अब सच के मायने बदल गए हैं। 

सच एक ऐसा शब्द है जो कहने में तो अच्छा लगता है पर क्या सुनने में उतना अच्छा लगता है? ईश्वर ने ये दुनिया बनाई जिसमें पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जीव-जंतु सभी की रचना की और फिर एक खूबसूरत रचना की वो था – इंसान। उसकी रचना करते वक़्त ईश्वर ने सोचा था कि मेरे द्वारा बनाई सभी रचना की देखभाल करेगा इंसान लेकिन क्या सही मायने में इंसान ने उसकी कदर की। शायद नहीं। इंसान तो अपनी सहूलियत को देखते हुए प्रकृति से खिलवाड़ करता गया।  इतने में ही नहीं रुका, इंसान ने तो ऐसा एक दूसरे के साथ भी  भावनात्मक रूप से ही चोट पहुंचाकर शुरू कर दिया। जहां स्वयं का फायदा नजर आया वहीं मुड़ता गया। झूठ का सहारा लेता गया ताकि अपने को बचाता रहे लेकिन उसे यह भी याद रखना रखना चाहिए कि सौ झूठ मिलकर भी एक सच का सामना नहीं कर सकते। सच अपना रास्ता निकाल कर दुनिया के सामने आ ही जाता है।

ना जाने क्यों इंसान इतना स्वार्थी बनता जा रहा है कि किसी दूसरे के दुख-तकलीफ उसकी नजरों में बेबुनियाद या बेमानी से लगते हैं। ईश्वर ने हमारे अंदर सोचने-समझने की इतनी शक्ति प्रदान की है कि हम एक दूसरे के मन के भाव आसानी से पढ़ सकते है परन्तु फिर भी हम स्वंयकेंद्रित हो गए है। यदि किसी के बारे में उसको कोई सच बोलना हो तो हम जज बनकर उसको अपना फैसला सुना देते हैं और वहीं सच अपने बारे में किसी दूसरे के मुंह से सुनना पड़े तो हम एक अच्छे वकील की तरह पैरवी करने लगते हैं। सच बोलना, आज के समय में साहस का काम है। ऐसे बहुत कम लोग रह गए है जो सच से प्यार करते हो। सच सुनकर उसका सामना कर सके।

बचपन की वो बात याद आती है जब हम स्कूल जाते थे तब अध्यापक हमे सच का महत्त्व समझाते थे। कहानियों को सच मानते थे। कोई गलती करते थे तो मां बोलती थी सच-सच बोलना अगर झूठ बोला तो तेरी नाक लंबी हो जाएगी और हम इस डर से मां को सब सच बता देते थे।

जैसे-जैसे समय बीतता गए हम बड़े होते गए। सच के मायने बदल गए। जाना जिंदगी के इस सफर को लोग कैसे तय कर रहे है। सच्चाई आज खुद अपने लिए इंसाफ मांगती हुई नजर आती है। इंसान यह भूल गया है कि सत्य अपने आप में एक अखंड सत्य है। कोई भी त्रुटि तर्क-वितर्क करने से सत्य नहीं बन सकती और ना ही कोई सत्य त्रुटि। कहते है ना इंसान मज़ाक-मज़ाक में सच बोल जाता है।बात सिर्फ इतनी सी है कि सच के लिए सिर्फ दो लोगो की आवश्यकता होती है: एक बोलने के लिए और दूसरा सुनने के लिए। यदि हम सच बोलते हैं तो हमें कुछ याद रखने की जरूरत नहीं होती इसलिए अपने दिल की सुनिए उसे सच पता होता है।

मूल चित्र : Shahzin Shazid via Unsplash

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