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देखो अब ज्यादा बहाने न बनाओ, जरा बाहर तो देखो, ऐसी सुबह तो आज पहली बार दिल्ली जैसे बड़े शहर में देखने को मिली है।
“आज की सुबह कुछ अलग है, कितनी सुहानी, कितनी रंगीन”, घर की बालकनी से सूरज की लालिमा को देखते हुए प्रिया ने कहा।
“ये क्या मन मे अकेले ही बड़बड़ा रही हो”, राकेश ने पीछे से कमर को जकड़ते हुए कहा।
“अरे तुम आज इतनी जल्दी उठ गए, अभी तो 6 ही बजे है।”
“आंख खुली तो देखा तुम बिस्तर पर नहीं थीं। तुम्हें देखते-देखते यहाँ पहुँचा तो देखा, मैडम अकेले ही बड़बड़ा रही हैं। भूल गई क्या आजकल ऑफिस बंद है?”
“खिड़की पर चिड़ियों की चहचहाट से मेरी आँख खुल गई जैसे कह रही हो, उठो प्रिया और देखो आज की सुबह कितनी सुहानी है। इस मौके को बिस्तर पर पड़े पड़े व्यर्थ न जाने दो”, प्रिया ने मुस्कुराते हुए कहा।
राकेश ने बादलो की और देखा जो बहुत ही साफ दिखाई दे रहे थे। पंछी भी अपना घोंसला छोड़ मंजिल की और झुंड बना कर उड़े जा रहे थे।
“सही कह रही हो प्रिया जिंदगी की भागदौड़ और सुख सुविधाएं जुटाने में हम दोनों इतने व्यस्त हो गए थे कि प्रकृति के सौंदर्य को कभी देख ही न पाए। आज लॉक डाउन के कारण गाड़ियों के थमने और प्रदूषण के रुकने से प्रकृति कितनी खुश है। जैसे गा गा कह रही हो लॉक डाउन कभी खुले न… लॉक डाउन कभी खुले न… चलो इसी खुशी में आज की चाय मेरी तरफ से। तुम यही बैठ कर सुहानी सुबह का आनंद लो।”
राकेश चाय बनाने चला गया और प्रिया वही रखी कुर्सी पर बैठ गई और जाने कब आंख लग गई।
चारो तरफ कच्चे खपेलु के बड़े बड़े घर है। एक सकरी सी कच्ची सड़क एक घर की और जाती है। सड़क के आखिरी में एक बड़ा सा नीम का पेड़ और उसके बगल में एक घर का बड़ा सा लकड़ी का दरवाजा। अंदर घर के बीच मे एक बड़ा सा आंगन है जहाँ बच्चे खूब उछल कूद करके खेल रहे है। और वो औरत कौन है। अरे ये तो दादी है… दादी को देखते ही दौड़ कर उनके गले लग गई।
शाम को दादी सब बच्चों को घर के पीछे के खेत में ले गई। वहां अमरूद और आम के बड़े बड़े पेड़ है जब तक जी भर के अमरूद न खा ले तब तक बच्चे जाने का नाम न लेते। दादी डांट डपट कर सबको घर ले कर आती। घर मे पंखे कूलर नही है। सभी बड़े, बूढ़े और बच्चे घर की छत पर सोते है। दादी तो भोर होने के पहले ही उठ कर काम मे लग जाती लेकिन सुबह पीछे वाले खेत से कोयल की आवाज़ और चिड़ियों का शोर भी हमे उठाने में नाकाम रहता। जब तक सूरज की किरणें हमें उठने को मजबूर न कर दे हम बच्चे सोते रहने को अपना अधिकार समझते।
“प्रिया, प्रिया… उठो मैडम। तुम तो यहाँ बैठे बैठे ही सो गई। तुम्हे प्रकृति का आनंद लेने को बोला था और तुम तो यहां कुम्भकर्ण की नींद लेने लगी।”
“प्रकृति का ही तो आनंद ले रही थी मगर तुमने लेने ही नही दिया”, प्रिया ने हँसते हुए कहा।
“अब ज्यादा बहाने न बनाओ जरा बाहर तो देखो ऐसी सुबह तो बस मेरे गांव में ही हुआ करती थी मगर आज पहली बार वही सुहानी सुबह दिल्ली जैसे बड़े शहर में देखने को मिली है।” दोनो हँसते हुए सुहानी सुबह का चाय की चुस्कियों के साथ आंनद लेने लगे।
सभी का कोई न कोई गांव जरूर होता है जहाँ हम गर्मियों की छुट्टी में जाते थे। तब प्रकृति हमारे पास ही हुआ करती थी लेकिन तब हमें उसकी कदर न थी। आज जब हम चारो तरफ प्रदूषण ही प्रदूषण देखते हैं तो वही दादी नानी के गांव वाली सुबह को बहुत याद करते है। लेकिन अब न वो दिन आते है और न वो सुबह।
मूल चित्र : Screenshot, Film Panga
Devoted house wife and caring mother... Writing is my hobby. read more...
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