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मैं उसके इस निर्णय को सुनकर हैरान भी थी और खुश भी…!

जब उन्हें मेरे किये की कोई वैल्यू ही नहीं है, कितना भी कर लूं, अपने भाई  के बराबर की स्थिति मेरी नहीं हो सकती, तो मैं भी उनकी क्यों परवाह करूं?

जब उन्हें मेरे किये की कोई वैल्यू ही नहीं है, कितना भी कर लूं, अपने भाई  के बराबर की स्थिति मेरी नहीं हो सकती, तो मैं भी उनकी क्यों परवाह करूं?

जब मेरे बेटे विकास का तबादला चेन्नई हुआ तो यह सोच कर मन बहुत रोमांचित हुआ कि अस्थमा की मरीज होने के कारण मुझे गुड़गांव की कड़ाके की सर्दी से निजात मिल जाएगी। लेकिन जिस अपार्टमेंट में हमने फ़्लैट लिया था, उसमें ही नहीं पूरे शहर में अधिकांश तमिल भाषी लोगों के होने से ऐसा लगा कि हम भारत में नहीं किसी दूसरे देश में पहुँच गए हैं, जहां सब कुछ अंजाना था।

अंजाना शहर, अंजाने लोग, अंजाना वातावरण और सबसे अधिक अनजानी भाषा। इन सबसे उम्र के इस पड़ाव में आकर सामंजस्य बैठाना मेरे लिए अत्यधिक कठिन प्रतीत हो रहा था। भारत में बहुत सारी भाषाएँ ऐसी हैं, जो बिना सीखे ही बहुत कुछ समझ में आ जाती हैं, लेकिन इस भाषा का तो एक शब्द भी समझ में नहीं आता था, जिसके कारण सबसे अधिक कठिनाई ‘काम वाली बाई’ से वार्तालाप करने में आ रही थी।

वहां के निवासियों ने बताया कि वहां हिंदी भाषी कामवाली की कल्पना करना सपने के सच होने जैसा था, इसलिए सारा रोमांच काफूर हो चुका था। बेटा-बहू तो सुबह से शाम अपने ऑफिस में व्यस्त रहते। मैं अपने पति के साथ, दिल्ली की अपनी पुरानी कामवाली को याद करके मन बहलाती रहती कि उसको हिंदी में एक बार काम समझा देने के बाद कभी दोहराना नहीं पड़ता था। कितना आराम था उससे। लेकिन इस तमिलभाषी ‘काम वाली’ के बारे में सोचते ही मन परेशान हो जाता। इसको इशारे से काम समझाते-समझाते थक जाती थी, कहती कुछ थी और वह करती कुछ थी।

एक दिन सुबह छः बजे डोर-बेल की आवाज़ से आँख खुली तो मैं उनींदी आँखों से, “सुबह-सुबह इस अनजाने शहर में कौन आ गया?” बड़बड़ाती हुई, दरवाज़ा खोलने लपकी। दरवाज़ा खोला तो देखा, एक अनजानी, सांवली सी, दुबली पतली, कोई उन्नीस-बीस वर्ष की लड़की खड़ी थी।

मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा तो उसने अंग्रेज़ी मिश्रित हिंदी में बोलना शुरू किया, “सिक्योरिटी ने भेजा है, यू नीड मेड?” मैंने विस्मित दृष्टि से उसको ऊपर से नीचे ऐसे देखा, जैसे वह किसी दूसरे ग्रह से आई हो, मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह शक्ल- सूरत से और साफ़-सुथरे पहनावे से मेड जैसी लग ही नहीं रही थी।

मैंने सोते से जागते हुए, अस्फुट शब्दों में जवाब दिया, “आं.. हाँ, चाहिए, चाहिए, अंदर आ जाओ।” अंदर आकर मैंने उसे बैठने के लिए कहा तो वह ज़मीन पर बैठ गयी।

मैंने सोफे पर बैठते हुए उससे पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“लालमणी”, उसने तुरंत जवाब दिया।

“तुम और कहाँ काम करती हो?”

उसने प्रत्युत्तर में कहा, “अभी कहीं नहीं करती, सिक्योरिटी से काम के लिए पूछने पर उसने मुझे आपके पास भेज दिया।”

मैंने उसे क्या-क्या काम करना है, समझा कर, अगले दिन सुबह आठ बजे आने को कहा और इस अप्रत्याशित उपलब्धि से उपजी अपनी खुशी को बताने के लिए अपने सो रहे पति के उठने की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगी।

अगले दिन ठीक आठ बजे वह आ गयी। चेहरे पर मुस्कराहट लिए हुए, उसने मेरे घर में प्रवेश किया।  वह यंत्रचालित सी बारी-बारी से सभी काम निपटाने लगी। बीच-बीच में यदि कुछ पूछना होता था तो वह अंग्रेज़ी मिश्रित हिंदी में पूछती रहती, वह अंग्रेज़ी शब्दों के ज्ञान और उच्चारण से पढ़ी-लिखी भी लग रही थी, जिससे मैं बहुत प्रभावित हुई।

मैं उससे पूछने से अपने को नहीं रोक पाई, “चेन्नई में रह कर तुम्हें इतनी अच्छी हिंदी कैसे आती है? तुम पढ़ाई भी कर रही हो क्या? तुम्हारी अंग्रेज़ी भी बहुत अच्छी है।”

उसने प्रत्युत्तर में कहा, “मेरे पापा चेन्नई के हैं, लेकिन मेरी मम्मी नॉर्थ की हैं, इसलिए मुझे हिंदी आती है, मैं बी. ए. फर्स्ट ईयर में हूँ।”

“लेकिन तुम घरों में काम करने की जगह किसी दूसरी जगह भी तो काम कर सकती थी?”

“हाँ लेकिन इस काम को करते हुए मैं माँ के काम में भी हाथ बंटा सकती हूँ। दूसरा अन्य जगह पर मुझे पूरा दिन काम करना पड़ता, जिससे मैं पढ़ाई के लिए समय नहीं निकाल पाती। मेरी माँ की अकेले की कमाई से सारे खर्चे पूरे नहीं हो सकते, इसलिए मैं काम करने के साथ प्राइवेट परीक्षा दे रही हूँ। मेरे  पापा ऑटो चलाते हैं लेकिन सारे दिन में जितना कमाते हैं, उसका शराब पीकर रात को घर में आकर हंगामा करते हैं।

मेरी माँ पढ़ी-लिखी नहीं है इसलिए वे घरों में खाना बनाकर हम तीनों भाई-बहन को पाल रही हैं। मेरी माँ का सोचना है कि यदि वे पढ़ी-लिखी होतीं तो किसी ऑफिस में काम करके और अच्छा कमा सकती थीं। हमारे साथ ऐसी स्थिति ना आये, इसलिए वे हमें पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती हैं। मेरी छोटी बहन रेगुलर स्कूल में पढ़ाई कर रही है।”

मेरा एक छोटा भाई भी है, लेकिन मैट्रिक पास करने के बाद, न तो आगे पढ़ना चाहता है और न ही  कुछ काम करता है, सारा दिन दोस्तों के साथ बाइक पर घूमता रहता है। मम्मी-पापा उसे कुछ नहीं कहते, बेटा है ना..” उसने ऐसे होंठ बिचकाते हुए, विद्रूप सी हंसी हँसते हुए कहा, जैसे उसे अपने भाई के भाग्य से ईर्ष्या हो रही हो। उसने एक ही सांस में अपने व्यक्तिगत जीवन की झलक मेरे सामने प्रस्तुत करने में ज़रा भी संकोच नहीं किया, जैसे वह मेरे पूछने का इंतज़ार ही कर रही थी।

उसका उत्तर सुन कर मैं सोच में पड़ गयी कि परिस्थितियों ने उसे उम्र से पहले ही कितना परिपक्व बना दिया है।

काम करते-करते लालमणी को लगभग चार – पांच महीने हो गए थे। एक दिन बहुत देर से काम करने आई और आते ही बोली, “सॉरी आंटी, (साऊथ में अम्मा कहने के रिवाज़ के विपरीत वह मुझे आंटी कहकर सम्बोधित करती थी) मेरे भाई की बाइक एक बच्चे से टकरा गयी और उस बच्चे को बहुत चोटें आई हैं, भाई को पुलिस पकड़ कर ले गयी है, इसलिए मुझे आने में देर हो गयी”, उसने यह बात, इतनी तटस्थता से कही, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

” लेकिन, ऐसा कैसे हुआ, बच्चे की अब कैसी हालत है?” मैंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा।

“जब तेज़ बाइक चलाएगा, तो यह तो होना ही है न। अभी उसके पास लाइसेंस भी नहीं है। बच्चा तो ठीक है, लेकिन बाइक पूरी तरह डैमेज हो गयी है। अभी तो उसका लोन भी नहीं चुकाया गया है। मैंने कितना मना किया था मम्मी-पापा को कि उसको बाइक मत दिलाओ, लेकिन कोई मेरी सुने तब न, अब भुगतें।” उसने बड़ी लापरवाही से उत्तर दिया। उसे बच्चे से अधिक बाइक के डैमेज होने की चिंता हो रही थी।

काम समाप्त हो चुका था और जब वह चली गयी तो मैं सोचने पर मज़बूर हो गयी कि लोगों की लड़के और लड़की में भेद-भाव की मानसिकता कब समाप्त होगी। पहले तो अमीर लोग ही अपने बेटों की  बेलगाम जायज़ और नाज़ायज़ मांगों की पूर्ति करते थे, लेकिन अब गरीब लोगों ने भी नई टेक्नौलौज़ी की सुविधाओं के लिए लालायित अपने बेटों को लाड़-प्यार में बिगाड़ कर, उनको ज़िम्मेदारी का एहसास कराने के स्थान पर उनकी अनुचित मांगे लोन लेकर भी पूरी करके अपने आपको अमीरों से बराबरी के एहसास से गौरवान्वित महसूस करते हैं।

उनके पास खाने के लिए पैसे हों न हों, हाथ में महंगे मोबाइल और मोटरसाइकिल होना अमीर लोगों  से बराबरी का सिम्बल बन गया है, इसीलिये तो अनियंत्रित वातावरण में पलने के कारण, ऐसे लड़के बड़े होकर अपराधिक प्रवृत्ति के बन कर, असामाजिक कार्य-कलापों में लिप्त हो जाते हैं।

धीरे- धीरे लालमणी हमें घर के सदस्य की तरह लगने लगी थी, इसका सबसे बड़ा कारण शायद यह था कि वह काम के साथ पढ़ाई भी कर रही थी, दूसरा वह कोई भी काम सधे हुए हाथों से तथा बड़े मनोयोग से करती थी और किसी काम के लिए मना नहीं करती थी।

एक दिन उसने बड़े संकोच से कहा, “आंटी, आप मुझे पांच हज़ार दे सकती हैं? अपने पापा का स्टोन का ऑपरेशन करवाना है, सैलेरी में से हर महीने काट लेना।” मैंने उससे कह रखा था कि “जब भी उसे पैसे की ज़रुरत हो, मुझसे बताए” मैंने उसे ना- नुकर किये बिना ही तुरंत दे दिए।

लालमणी के बी. ए. प्रथम वर्ष के इम्तहान शुरू होने वाले थे, इसलिए उसने अपनी जगह पर अपनी माँ को थोड़े दिनों के लिए मेरे पास भेजना शुरू कर दिया। उसका भी काम करने का तरीका अपनी बेटी जैसा ही था। एक दिन वह बोली,” अम्मा, मेरे बेटे की नौकरी एयर-फ़ोर्से में टेक्नीशियन की लग गयी है, उसे ट्रेनिंग के लिए जम्मू जाना पड़ेगा” बोलते हुए उसके आँखों और चेहरे से खुशी छलकी पड़ रही थी, जैसे ऐसे बेटे की माँ बन कर, उसका जीवन ही धन्य हो गया हो।

“बड़ी अच्छी बात है यह तो”, मैंने उसकी खुशी में भागीदार बनते हुए कहा और मिठाई खिला कर बधाई दी।

पंद्रह दिनों बाद लालमणी ने फिर से आना शुरू कर दिया। पहले दिन ही मैंने उससे कहा, “तुम्हारा भाई नौकरी करने लगा है, अब तो तुम्हे किसी से शिकायत नहीं है न?”

“देखते हैं कितने दिन करता है”, उसने व्यंग्यात्मक रूप से उत्तर दिया।

धीरे-धीरे समय अपनी गति से बीतने लगा था, उसके सेकंड ईयर के इम्तहान आरम्भ होने वाले थे तो उसकी माँ फिर से आने लगी। एक दिन मैंने उससे पूछा, “आजकल तुम्हारा बेटा कहाँ हैं?”

जिस समय मैंने पूछा, वह सर झुका कर झाड़ू लगा रही थी, उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, मैंने दुबारा पूछा तो उसने सुबकते हुए कहा, “अम्मा, पता नहीं कहाँ है, न तो फोन ही करता है और न ही फोन करने पर बात करता है।”

” अरे! ऐसा कैसे! यहां पर एक एयरफ़ोर्स के अफसर हैं, उनसे पता करवाते हैं, तुमने अभी तक बताया क्यों नहीं?” मैं इस अप्रत्याशित स्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी।

“मैंने पता करवा लिया है, वह बीच में ही ट्रेनिंग छोड़ कर कहीं चला गया है।”

थोड़ी देर के लिए मैं निःशब्द हतप्रभ सी उसके चेहरे को देखती रही। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोलूं। मुझे उसका खुशी से दमकता हुआ वह चेहरा याद आया, जब उसने अपने बेटे की नौकरी लगने के बारे बताया था।

परीक्षा समाप्त होते ही, लालमणी आई तो हमेशा की तरह उसने अपनी तरफ से कोई बात नहीं की, लेकिन मैं बहुत चिंतातुर थी, मेरे पूछने पर उसने आक्रोश से बताया, “आंटी, जाएगा कहाँ, उसके एक दोस्त ने बताया कि वह एक लड़की से प्रेम के चक्कर में ट्रेनिंग बीच में ही छोड़ कर वापस आ गया है और इसी कालोनी में कहीं उसके साथ रह रहा है। मेरे माँ-बाप ने गहना गिरवी रख कर (साऊथ में गरीब से गरीब के पास भी थोड़ा- बहुत गहना होता ही है) लोन लिया और उसको भेजा, आपसे जो पैसा लिया, उससे पापा का ऑपरेशन न करवाकर वह पैसा भी उसको भेज दिया, बाकी घरों से भी पैसा एडवांस लेकर उसको, ट्रेनिंग के लिए खर्चा दिया।

उसने यह भी नहीं सोचा कि इतना कर्जा हम कैसे चुकाएंगे और उसकी बहनो और माँ-बाप पर क्या बीतेगी। अब मेरे सहने की सीमा समाप्त हो गयी है, इसलिए मैंने तो अपने माँ-बाप से कह दिया कि अगर आपने उसको घर में घुसने दिया तो मैं इस घर से चली जाऊँगी, उनको मेरी बात से समझौता करना पड़ा, क्योंकि मैं अगर उनको पैसे न दूँ तो घर का खर्च ही नहीं चलेगा।”

एक दिन रात को दस बजे अपने घर जाने से पहले, लालमणी मेरे घर आई तो मैंने पूछा कि वह इतनी रात तक कॉलोनी में क्या कर रही है? घर क्यों नहीं गयी?

तो उसने जवाब दिया, “आंटी, मैंने शाम को भी खाना बनाने के लिए दो घर पकड़ लिए हैं, मेरा घर में बिलकुल मन नहीं लगता। काम से थक के घर जाओ तो बजाय मुझे आराम मिलने के माँ का भाई को याद करके बिसुरना शुरू हो जाता है कि बुढ़ापे में तो बेटा ही उनका ध्यान रखेगा, हम दोनों बहनें तो ब्याह के बाद दूसरे घर चली जायेंगी, उनका मानना है कि मेरे कारण ही मेरा भाई उनके  साथ नहीं रह पा रहा है, छोटी बहन फरमाइशें बताने लग जाती है और पापा की भी खिटिर-खिटिर शुरू हो जाती है, ड्रिंक करके आते हैं और चिल्लाते हैं, बड़ी लड़की होने के कारण उनको कुछ कहती हूँ तो माँ मुझे ही डांटती है। कभी- कभी तो लगता है घर से भाग जाऊं। यहां मेरे काम से खुश होकर, सब मुझसे प्यार से बात तो करते हैं। इसलिए देर से घर जाकर सो जाती हूँ और सुबह निकल आती हूँ।”

मैं उसकी बात सुनकर सोच में पड़ गयी कि यह उसके भाग्य की विडंबना ही तो है कि वह ऐसे घर में पैदा हुई है, जहां उसको, इस उम्र में, जिसमें लड़कियां शादी के सपने देखती है, अपने माँ-बाप की गलत सोच के कारण इतना संघर्ष करना पड़ रहा है। उसकी समस्याओं से अवगत होने के बाद मुझे उससे बहुत सहानुभूति होने लगी और मैं उसकी आवश्यकताओं का पहले से अधिक ध्यान रखने लगी, जिससे की उसकी पढ़ाई पूरी हो सके।

समय बीतने के साथ उसने ग्रेजुएशन के साथ बी.एड. भी कर लिया था। धीरे-धीरे वह अपनी सब बातें मुझसे शेयर करने लगी थी। एक दिन अचानक वह सुबह आते ही मुझसे बोली, “आंटी मेरे घर के पास एक लड़का रहता है। मैं उसे बचपन से जानती हूँ। वह ग्रेजुएशन के बाद किसी मौल में सेल्समैन का कार्य कर रहा है। वह कई बार मुझसे विवाह करने की बात कह चुका है। अभी तक तो मैं उसके प्रपोज़ल को टालती रही, यह सोच कर कि मेरे जाने के बाद मेरे परिवार का खर्चा कैसे चलेगा लेकिन अब सोचती हूँ जब उन्हें मेरे किये की कोई वैल्यू ही नहीं है, कितना भी कर लूं, अपने भाई  के बराबर की स्थिति मेरी नहीं हो सकती, तो मैं भी उनकी क्यों परवाह करूं। उनको सबक सिखाना भी ज़रूरी है, इसलिए कल ही मैंने उसके प्रपोज़ल को स्वीकार कर लिया है। बहुत हो गया… मैं अब अपने लिए जीना चाहती हूँ।”

मैं उसके इस अप्रत्याशित आत्म निर्णय को सुनकर थोड़ी देर के लिए अवाक् रह गयी। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि आज के बदले जमाने में हर वर्ग की लड़कियां पढ़-लिख कर, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के कारण अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होकर साहसी, आत्मविश्वासी होने के साथ आत्मनिर्णय लेना सीख गयी हैं।

 मूल चित्र : Sujay Givindraj from Getty Images via Canva Pro

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