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अनुसूयाबेन साराभाई श्रम के क्षेत्र में महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली प्रमुख महिलाओं में से हैं। वे केवल एक श्रमिक नेता न थीं।
70 के दशक में ‘टूवर्ड इक्वीलिटी’ या ‘समानता की ओर’ के आने के बाद पूरे देश में महिलाओं के श्रम के साथ-साथ महिलाओं के वह काम जिनको श्रम में गिना ही नहीं जाता है, वह बहस का मुद्दा बना। परंतु, इसके लिए संघर्ष आजादी के पहले से ही किया जा रहा था।
अनुसूयाबेन साराभाई श्रम के क्षेत्र में महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली प्रमुख महिलाओं में से हैं। वे केवल एक श्रमिक नेता न थीं। वे एक समाज-सुधारक, नारी मुक्ति की हिमायती, बुद्धिजीवी, राष्ट्रवादी और इन सबसे अधिक श्रामिकों तथा निर्धनों के लिए मातृतुल्य भी थीं। उनका बहुमुखी व्यक्तित्त्व और भारतीय समाज को उनकी बहुविध देन के आधार पर भारतीय पुनर्जागरण में उनको एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया है।
अनुसूयाबेन साराभाई का जन्म अहमदाबाद के समृद्ध उधोगपति परिवार में 10 नवबंर 1885 को हुआ। उनकी मां गोदाबरीया धार्मिक महिला थी और पिता साराभाई अपने दौर के प्रसिद्ध कपड़ा व्यवसायी। अनुसूया का लालन-पालन ग्याहर वर्ष के उम्र में माता-पिता के देहांत के बाद भाई अंबालाल बहन कांता और चाचा चिमनलाल के संरक्षण में हुआ।
प्रारंभिक पढ़ाई घर में और उसके बाद महालक्ष्मी प्रशिक्षण महाविधालय में हुआ। अनुसूयाबेन आगे पढ़ाई नहीं कर सकी क्योंकि उनके भावी पति परीक्षाओं मेंअनुतीर्ण होते जा रहे थे। यह अधिक जरूरी समझा गया कि अनुसूया सामाजिक चलन के हिसाब से अपने पति से कम शिक्षित हो।
अपने दामात्य जीवन के लिए अनुसूया ने पढ़ाई-लिखाई त्याग दिया पर वह अधिक दिन तक नहीं चला। ससुराल में हमेशा कहल होता, पति ने उनको अपने तरह से जीवन जीने की स्वतंत्रता दे दी। यही उनका वैवाहिक जीवन समाप्त हो गया। अनुसूया के भाई-बहन ने उनका साथ दिया और उन्होंने नया जीवन शुरू किया।
अनुसूया ने स्वयं को धार्मिक पुस्तकों के तरफ मोड़ा, विवेकानंद का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव था। उन्होंने विकेकानंद के कई साहित्य का अनुवाद गुजराती भाषा में किया। इसी दौरान उनकी भेंट डाक्टर एरुलकर से हो गई। जिन्होंने अनुसूया को दूसरों की सेवा के लिए चिकित्साशास्त्र पढ़ने की सलाह दी।
अनुसूया डाक्टरी के पढ़ाई के लिए इंग्लैड रवाना हो गईं। उस वक्त वह मात्र 26 साल की थीं। इंग्लैड निवास के दौरान वह कई भारतीयों के संपर्क में आईं, जो आगे चलकर देश के प्रमुख नेता बने। यहीं एक और बदलाव हुआ, अनुसूया ने महसूस किया वह चिकित्साशास्त्र नहीं पढ़ सकेगीं।
उन्होंने सामाजिक कार्य का अध्ययन करना शुरु कर दिया। सामाजिक कार्य के अध्ययन के दौरान वह पहले महिला मत्ताधिकार के लिए संघर्ष करने वाली नारीवादी महिलाओं और बाद में फेबियन समाजवादी विचारधारा के लोगों के संपर्क में यहीं आई। यही उन्होंने भारत में श्रमसंघ आंदोलन की शुरूआत करने के बारे में सोचना शुरू कर दिया।
भारत लौट कर अनुसूया ने पहले स्त्री शिक्षा के लिए काम करना शुरू किया। एक दिन उन्होंने एक महिला को देखा जो काफी थकी हुई थी। अनुसूया ने उनसे बात की और पूछा क्या दिक्कत है? क्यों बेदम लग रही हो? उस महिला ने बताया कि हम 36 घंटे काम करके लौट रहे हैं। हमने बगैर ब्रेक के दो रात और एक दिन काम किया है। अनुसूया ने महिला मजदूरों की स्थिति बदलने का निश्चय किया।
यह भारत में औधोगिकी करण के शुरूआती दिन थे और श्रमिकों के हालात बहुत ही खराब थे। धीरे-धीरे उनके मुद्दों में सहकारी श्रृण समिति, चिकित्सा, प्रौढ़ शिक्षा के लिए रात्रीशाला, शराबबंदी और श्रमिकों के कई कल्याण जुड़ते चले गए। उन्होंने भारत में पहली बार श्रमिकों के हितों के लिए एक संगठित प्रयास किया। धीरे-धीरे वह सबों की ‘मोटाबेन’ हो गई।
उन्होंने श्रमिकों के हितों में पहला संघर्ष अपने भाई अंबालाल के कारखाने से ही शुरू किया। महात्मा गांधी ने अंबालाल को पत्र लिखा कि स्थानीय श्रमिकों को बढ़ाई गई दरों पर मजदूरी चुकाई जाए। आश्चर्य इस बात का भी है कि भाई और बहन एक-दूसरे के विचारों का आदर करते हुए शांतिपूर्वक एक ही परिवार के भीतर रहते थे। आगे चलकर उन्होंने मजदूर महाजन संघ का गठन किया जो भारत के सबसे पहले मजदूर संघ के रूप में पहचाना जाता है।
अनुसूयाबेन ने बापू की प्रेरणा से महिला कामगारों के अधिकारों की लड़ाई लड़ना शुरू किया। 1954 में टी.एल.ए नाम से विमेन्स विंफ़ की स्थापना भी की। विमेन्स विंग के प्रयासों से दिसबर 1971 में सेवा(सेल्फ इम्पलांइड विमेन्स एसोसिएशन) के रूप के काम करना शुरू किया। जो ट्रेड यूनियन के रूप में भी पंजीकृत भी है। यह संस्था महिला श्रमिकों के जीवन स्तर में उत्थान के लिए अनेक कल्याणकारी भूमिकाओं में काम करता है।
अनुसूयाबेन उन महिलाओं में से रही जिन्होंने श्रमिकों के हितों के संरक्षण के लिए आदर्शों से कभी समझौता नहीं किया। गांधीजी के संपर्क में आते ही उन्होंने अपना जीवन सादगीपूर्ण तरीके से जीने का निश्चय कर लिया। उन दिनों जब महिलाओं में सर ढक कर रहना एक आम बात थी उन्होंने खुले सिर के साथ अपना सामाजिक जीवन जीना शुरू किया। यह उनके आत्मविश्वास और उनके व्यवहार में साहसिकता को दिखाती है। 1972 में उनका निधन महिला श्रमिकों के हितों के दिशा में बहुत बड़ा आघात था।
उनके मूलगामी योगदान पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। क्या उस दौर में यह आसान रहा होगा एक महिला के लिए उन्होंने अपना ससुराल त्याग दिया और उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने जीवन का फैसला स्वयं करती चली गई और जीवन का एक मात्र उद्देश्य श्रमिकों के जीवन में बेहतरी रहा है। आज महिला श्रमिकों को जो भी अधिकार मिल रहे है उसकी नींव अनूसूया के संघर्षों के कारण है। समय के साथ उसमें और भी सुविधाएं और अधिकार भी जुड़ते चले गए।
(अनूसूया साराभाई के बारे में जानकारी, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में उनके ऊपर लगाई गई चित्र प्रदर्शनी से जुटाई गई है।)
चित्र साभार : TimesNext
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