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अगर यहाँ पर भी वह अपने चरम सुख की प्राप्ति की बात करे, तो पति जो कि उसे अच्छी तरह जानता है, वो भी उस पल में आशंकित सा हो जाता है।
आज की औरतें तथाकथित विकसित समाज में विकास का पूरा आनंद ले रही हैं, हैं ना? खाने-पहनने, शादी-नौकरी सब फैसले अपनी मर्जी से। अकेली रह सकती हैं। नौकरी, बिज़नेस, फ़िल्मी या कॉरपोरेट वर्ल्ड में अपने बल बूते पर पितृसत्ता को ललकारती आगे ही आगे बढ़ रही हैं।
और जब ललकारती हैं ना तो सबको बुरी लगने लगती हैं! हम में से ही टी. वी. के आगे बैठे दर्शक झट से कह देते हैं, “देखा और दे लो आजादी, इन औरतों को?”
ये वक्तव्य केवल घर के मर्दों का ही नहीं, हमारे घर की बुजुर्ग औरतों का भी होता है। तभी धीरे से कुछ और भी सुनाई देता है, “ये प्रसिद्धि इनको कहाँ से मिली? जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं।” वगैरह-वगैरह। अर्थात उस औरत की अपनी योग्यता, थी ही नहीं, ये तो सब समाज के ठेकेदारों की कृपा है। जिन्होंने अपने घर में बैठे-बैठे ही थाल में सजा कर, उनके हिस्से की प्रसिद्धि, उनको यूँ भेंट कर दी!
प्रश्न करने वाली औरतें, आँख दिखाने वाली औरतें, सबको चुभती हैं, तब से जब वे बच्ची थीं। इसलिए वे नियंत्रण में रहें, तो उनके स्वर को परिसीमित करने का माहौल पैदा किया जाता है। जब बड़ी होती हैं, तो इस रूप के, दिन में चाहे दर्शन हों या ना हों, पर रात में, बंद कमरे में, उस लड़की को अपनी माँ के दब्बू स्वभाव की याद दिलाती हैं।
अगर यहाँ पर भी वह अपनी इच्छा की बात करें तो पति जो कि उसे अच्छी तरह जानता है वो भी उस पल में आशंकित-सा हो जाता है।
माँ भी यही तर्क देती है कि बेटी! सदियों से यह परंपरा (दब्बू) चली आ रही है! पर कौन सी परंपरा? ये परंपरा तो कुछ पीढ़ियों पहले की है। जब पर्दा प्रथा का आरंभ हुआ। उससे पहले एक वस्त्र में रहने वाली औरतों का इतिहास मिलता है। घर में रहते हुए, महलों में भी। पर आँखें घूरती नहीं थीं, झुकी रहती थीं।
ईसा से 500 वर्ष पूर्व यहां तक कि 200 वर्ष पूर्व, पुरातन समाज में, जब लड़कियाँ या बहुएँ भी रानी, मल्लिका बन राज़्य की बागडोर संभालती थीं। आम औरतें न्यायालय में बिना पर्दे के जाती थीं। रामायण, महाभारत समय में, सांची, अजंता की कलाकृतियों में, भी पर्दे की कोई परंपरा नहीं थी। उस समय राजकुमारियों के स्वयंवर करवाए जाते थे, वह भी राजकुमारियों द्वारा निर्धारित शर्तों पर। पढ़ाई, सैन्य शिक्षा, घुड़सवारी अन्य शिक्षा-दीक्षा का कार्य लड़कों के बराबर किया जाता था।
इस पर भी आप सशंकित हैं। तो ‘अर्धांगनी’ शब्द का क्या अर्थ निकालेंगे, आप? ये विकसित समाज की नहीं पुरातन समाज की धारणा है! जिसमें प्रकृति को पुरुष के समकक्ष माना जाता था, न कोई कम, न अधिक!
फिर ये धारणाएं, परम्पराएं क्यों बदलीं, किसने बदलीं? कामसूत्र पर आधारित पुरातन मूर्तियों, शिलालेखों का अध्ययन भी बताता है कि ‘अर्धनारीश्वर’ को महत्व दिया जाता था। जहां पुरुष की इच्छा के समान ही नारी की इच्छा, चरम सुख की प्राप्ति को महत्व दिया जाता था।
पुरुष को अगर काम सुख की इच्छा है तो स्त्री को भी है चरम सुख की प्राप्ति या काम सुख या ऑर्गास्म की इच्छा। पुरुष की इच्छा का सम्मान न हो तो वो बाहर जाने की धमकी देता है पर औरत? बस वो ना नहीं कर सकतीं।
आज तो विकसित समाज की ये विडंबना है कि अगर औरत फिल्म जगत , कॉरपोरेट वर्ल्ड, या आम समाज में पति या किसी भी पुरुष को सुख नहीं देती तो रेप, एसिड अटेक या अन्य तरह की प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है। जिसको ‘मी टू’ जैसी इंटरनेट मुहीम, सिद्ध करती हैं। या एक दो क्रांतिकारी बालाएँ, जो इस तंत्र का खुलेआम विरोध करने की हिम्मत रखती हैं।
यह पढ़े लिखे, सभ्य समाज का हाल है। पर ऐसी खबरें आदिवासी समाज की कभी नहीं आतीं। जानवरों में भी पुरुष वर्ग ही नाच-नाच कर, सुंदर रूप बना, अनोखी कला का प्रदर्शन कर स्वजातीय स्त्री वर्ग को सम्मान से रिझाता है। तो क्या माना जाए कि यह सब सभ्यता, विकास, शिक्षा का यह दुष्प्रभाव है? नहीं ये केवल स्वार्थी, दंभी पितृसत्ता के अंध समर्थकों का कमाल है।
सेक्सोलोजिस्ट की मानें तो काम सुख या चरम सुख की प्राप्ति की जितनी कामना पुरुष को होती है, उतनी ही औरतों को भी होती है। बल्कि कभी-कभी पुरुष से भी अधिक। काम संतुष्टि के केवल मर्द ही अधिकारी नहीं, औरतें भी अधिकारी हैं। बस उसकी बात करने में वे मुखर नहीं हो पाती जिसके कारण पर हम चर्चा हम कर चुके हैं।
कोई कार्य करने से पहले पृष्ठभूमि तो बनानी पड़ती है ये सब एक कोमल, अपनेपन के या ‘मन से मन के स्पर्श’ से संभव है। पर ‘तन से तन का स्पर्श’ इन सबसे अछूता रह जाता है।
हर स्त्री अलग है, उसके तन-मन की विशेषताएँ विभिन्न होती हैं। किसी स्त्री में काम का स्फुरण किस अंग को छूने, से होगा वो हर औरत में विभिन्न है। पुरुष मीडिया जो तथ्य परोसती है या वो जो सुनता है उसे ही अपनी पत्नी या प्रेमिका पर अपनाना शुरू कर देता है। परन्तु जो स्त्री घर में उसकी है, उसको अपनी कोमल उंगलियों के स्पर्श से, कोमल भावों से भर, क्यों नहीं उसे दो मिनट लगा कर समझने का यत्न करता? क्यों नहीं वह उसे आत्मसात करता! अरे! समय ही नहीं है। इसके लिए दो घंटे किताबों या इंटरनेट में खप जाएगा, पर दो मिनट अपनी अर्धांगनी को नहीं देगा।
औरत अगर पुरुष से काम सुख की बात करे या अपने ही पति की तरफ इस इच्छा पूर्ति के लिए कदम बढ़ाए तो चरित्र तक को उधेड़ने की बात उठ जाती है। परन्तु पुरुष पर यही प्रश्नचिह्न क्यों नहीं? वैसे तो मर्द को दर्द नहीं होता! परन्तु अगर औरत ‘ना’ कर दे तो मर्द को दर्द क्यों होता है? वो इसे इज्जत का मुद्दा क्यों बना लेता है? क्यों औरत या पत्नी की सब अच्छाइयाँ, गुण इस एक, ‘ना’ के आगे धूमिल हो जाती हैं? क्या कह दिया, अगर ‘ना’ कह दी?
उसकी शारीरिक, मानसिक स्थिति को बांटने का यत्न करते तो शायद मसला मक्खन की तरह पिघल गया होता! उसकी पसंद-नापसंद की सुनी या समझी होती, तो शायद रातें अकेली न गुजरतीं। समर्पण एक का क्यों?,दोनों का पूरा होना चाहिए।
एक दिमाग की अकड़ सारे मामले को पूरी तरह से स्थिर कर देती है। मन और तन को अलग समझने वाले उसी पुरूषवादी दिमाग को यही छोटी सी बात समझ नहीं आती या वो समझना नहीं चाहता। वही पितृसत्ता का दंभ, और इस दंभ के कारण संबंधित औरत के लिए फिर काम सुख, सुख नहीं अपितु सेक्स टेर्ररिस्म बन जाता है।
खुल के बोलना उसे आता नहीं और बोल भी दे तो क्या? उस पर दिन के उजाले में कटाक्ष किए जाएंगे, मजाक उड़ाया जाएगा। तो वो ‘शयने’षु रंभा’ कैसे बनेगी? रंभा बनने के लिए, अर्धांगनी बनने के लिए, उसे कमरे से बाहर और कमरे में भी आजादी देनी पड़ेगी। यह आजादी देकर तो देखें।
मेरी औरतों से भी गुजारिश है, जब पति सेक्स की बात करें, तो अगर आपका मन माने तो खुल कर सेक्स करें। फेक संतुष्टि न जता कर, अपनी संतुष्टि का भी उतना ही ध्यान रखें जितना कि आप उनकी संतुष्टि का रखती हैं। आनंद दें भी और आनंद उठाएं भी। कोशिश तो करें, उनको और आपको भी आदत पड़ जाएगी।
अंतरंग पलों की सुखद अनुभूति, आदमी की जुबान अवश्य बंद करेगी। और पुरानी बातों से निकलें कि मर्द को खुश करने का राह उसके पेट से जाता है अपितु पेट नहीं, बस कुछ कदम और! उनकी भी मानें, और अपनी भी मनवाएं। सुंदर, सुखद दिन-रात का पर्व मनाएं।
चित्र साभार : bluebeat76 from Getty Images pro, via Canva Pro
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