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मंदिर की लक्ष्मी और एक जीती-जागती घर की लक्ष्मी…

हम अपने घर की लक्ष्मी को सम्मान देकर ही अपने मंदिर की लक्ष्मी को रूठने से रोक सकेंगे। सोच क्या रहे हैं आप, हर रोज़ 'लक्ष्मी पूजन' मनाएं!

हम अपनी घर की लक्ष्मी को सम्मान देकर ही अपने मंदिर की लक्ष्मी को रूठने से रोक सकेंगे। सोच क्या रहे हैं आप, हर रोज़ ‘लक्ष्मी पूजन’ मनाएं!

परिवारिक सरंचना में हर घर की अन्नपूर्णा, सौभाग्यदात्री, जीवनदात्री, सहचरणी, गृहलक्ष्मी या घर की लक्ष्मी और कई रूपों में हमारे सामाजिक जीवन को आलोकित करती रही है। जहां एक तरफ, घर की आय में से बचत करके धन-संचय कर चुनौतिपूर्ण परिस्थितियों में परिवार की कई मनोकामना को पूरा करती है। तो दूसरी तरफ, तिल-तिल अन्न का उचित तरीके से सदुउपयोग करके अन्नपूर्णा की भूमिका भी निभाती है।

दीपक का प्रकाश जैसे अंधेरे को मिटाकर प्रकाश फैलाता है, वैसे ही स्त्री अपने अनुशासन से परिवार के घर-आंगन में सुख-समृद्धि का संवहन करती है। परिवार में मां, बहन, पत्नी और बेटी के रूप में स्त्री इन भूमिका को अपने हर रूप एक जीवन दीप के तरह प्रकाशवान रहती हैं। आज ज़रूरत है कि दिवाली के पावन पर्व पर हम घर-आंगन के सभी गृहलक्ष्मियों को भी गरिमापूर्ण सम्मान दें।

आइए, समझते हैं कि परिवार में मौजूद घर की लक्ष्मी का हर रूप हमारे जीवन को कैसे रोशन करती है…

माँ

मां के हाथों से प्रकाशित हुआ दिवाली का दिया अंधकार रूपी दुनिया में अनुशासन के साथ सचेत होकर सामाजिक जीवन में सजग होने का प्रतीक है। मां अपने जीवन अनुभव की उजास से हमारे जीवन को हमेशा प्रकाशमय करती है। वह हमारी पहली गुरू के रूप में सदैव हमारे जीवन के तमाम अंधेरे को दूर करने की कोशिश करती है।

हमारे जीवन में ज्ञान की पहली ज्योति जलाने का काम अगर कोई करती है तो वह मां ही है। हमारे जीवन में मानवीय-सामाजिक संवेदनाओं के जो भी भाव पोषित हुए हैं, वह मां से ही सबसे पहले हुए हैं। उनको छोटे-छोटे दीपकों की तरह हमारे जीवन में समेटने का काम साथ में  हमारी परंपराओं को हममें सहेजने और हमारे अंदर विस्तार देने का काम मां से ही सपन्न हुआ है।

मां हमारे जीवन में ज्ञान रूपी प्रकाश के तरह है जो पूरे मनोयोग से हमारे जीवन को अनुशासित करती रही है, जो पूरे समाज को तब तक ज्योतिमय उजास देता है, जब तक हम इस मोह जगत में होते हैं। मां ही वह जीवनदात्री है, जो अपने तप-बल से हमारे अंदर आत्मविश्चास का संचार करती है जो जीवन के तमाम अंधकार को प्रकाशमय बनाने के लिए संघर्ष करने को प्रेरित करती है।

बहन

बहन के हाथों में जगमगता हुआ दिवाली का दिया कभी भूलने-बिसरने नहीं देता है स्नेह और संबल की मजबूत डोर को, जिसमें संचित होती रहती है सामाजिक जिम्मेदारी की भावना और उसको वहन करने की शुभ मंगलकामनाएं। सामाजिक जीवन में बहन का रिश्ता बालपन से ही साझी समझ-संस्कृत्ति के साथ बनता सवरता, निखरता और जीवन भर आलोकित होता है।

यह जीवन में न केवल सद्भावना का पाठ पढ़ाता है बल्कि जीवन में सत्य को सम्मान देने की सीख भी देता है। बड़े होने पर भाई-बहन का रिश्ता न केवल जुड़ा रहता है साथ ही साथ एक दूजे के आंगन को खुशनुमा महौल बना रहे, इसकी शुभकामाएं भी देता है। बहन के हाथों में जगमगाता दीपक दीप पर्व  दिवाली में यही सामाजिकता का पाठ देता है कि इस रिश्ते से हमारे सामाजिक सरोकार भी आलोकित होता रहे। किसी भी  भाई-बहन के आगंन में अधियारा न रहे।

बहन जीवन यात्रा में बालपन से साथ पली-बढ़ी सहचारणी है जो पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों को साथ-साथ सीखती है और उसे दूसरे घर-आंगन में भी प्रकाशमय ज्योंति को प्रज्जवलित करती है। वह सांस्कृतिक मूल्यों की परंपरा को संचरण या संवहन एक परिवार से सीखकर दूसरे परिवार में करती है जहां वह जाती है।

पत्नी

पत्नी के हाथों में प्रज्जवलित दिवाली का दिया अपने स्वयं के उजाले से उजास भरता है परिवार के घर-आंगन में। पत्नी जीवन के हर अच्छे-बुरे हर क्षण में साथ साक्षी बनकर स्वयं जलकर, विश्वास के मजबूत डोर से जीवन मार्ग के हर अंधकारमय पथ को प्रकाशमय बनाये रखती है।

हमारे जीवन में हमारी जीवन संगनी भले ही दूसरे घर-आंगन से आती है, वह नए घर-आंगन में अपना अस्तित्व तलाशती है। वह दिवाली में दिया की बाती के तरह अपना अस्तित्व को तपाकर हमारे अस्तित्व को नव प्रकाश से आलोकित और प्रकाशमय कर देती है।परिवार के सभ्यता-संस्कृति को वह न केवल सहेजती-सजोती है बल्कि उसको नवरूप और नवाचार भी देती है जिसमें जीवन साथी का अस्तित्व और विश्वास प्रतिबिम्बित होता है।

जीवन में हर परिस्थिति में हंसते-मुस्कुराते हुए परिवार के हर सदस्यों में उत्साह का उजास भर देती है। यह वह केवल अपने व्यक्तित्व के सौम्यता से करती है जो उसके संघर्ष और उसकी सशक्त छवि के कारण ही संभव होता है। वास्तव में पत्नी वह सौभाग्यदात्री है जो परिवार के घर-आंगन में परंपरा की संस्कृति को न केवल संहेजती है उसको गतिशील भी बनाती है।

बेटी

बेटी के हाथों में टिमटिमाता हुआ ज्योंति प्रकाश या फुलझड़ी या अनार से निकला ज्योति प्रकाश, जीवन के तमाम दुख-तकलीफ को ज्योंति धारा में बहा देते है। घर-आंगन में फैलने लगता है उसके नादान ज़िद का टिमटिमाता ज्योतिमर्य ज्योति पुंज।

बेटियां सबों की साझी कही जाती है, बेटियों का भाव सामजिक सरोकार की वह परंपरागत सीख है जो हर दामंपत्य को सामाजिक मधुरता और सामाजिक सौहार्द को बनाए रखने की सीख देता है। बेटी ही दीप दान के उस परंपरा से जोड़ती है जिसमें हम केवल अपने ही नहीं दूसरे घरों का अधंकार दूर करना सीखते है।

इस परंपरा का सीधा अर्थ यही है हमें उजियारा बांटना है हर घर के दरवाजे को रोशन करना है जहां मानवीय मूल्यों के दीप बुझ रहे हैं। बेटियां इसी स्नेह के दीप को प्रज्वलित करती है और संबल देती है। बेटी वह सौभाग्ययात्री है जो हमारे जीवन यात्रा की पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों को पिता के घर में सीखती है और पति के घर में उसका संवहन करती है।

दीवाली पर्व के दीये के समान ही हम भी समाज, परिवार और अपने देश के लिए ज्योतिपुंज बने, स्वयं जले प्रकाशमय और चेतन रहें। इसकी सबसे बड़ी सीख हमे हमारे घर-परिवार की महिलाओं के अस्तित्व से ही मिलता है। इसलिए हम अपने घर परिवार की सौभाग्यदात्री और अन्नपूर्णा के अस्तित्व को सम्मान दें क्योंकि वही है दीवाली की रात की रोशनी से तम को हराने वाली, अमावस की रात में अपनी चमक से हमारे घर-आंगन को पूर्णिमा में बदल देने वाली। हम अपने गृहलक्षमीयों को सही सम्मान देकर ही अपने घर-परिवार के लक्ष्मी को रूठने से रोक सकेंगे।

चित्र साभार : Paco Romero from Getty Images Signature via Canva Pro 

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