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अब बस! उन निशानों से मुक्ति मिल गयी थी…

अब नील के निशान नहीं दिखते थे भाभी के बदन पर,  दिखती थी तो वही सौम्य मुस्कुराहट जो पाँच साल पहले देखी थी मैंने उनके चेहरे पर...

अब नील के निशान नहीं दिखते थे भाभी के बदन पर,  दिखती थी तो वही सौम्य मुस्कुराहट जो पाँच साल पहले देखी थी मैंने उनके चेहरे पर…

नोट : विमेंस वेब की घरेलु हिंसा के खिलाफ #अबबस मुहिम की कहानियों की शृंखला में पसंद की गयी एक और कहानी!

“निशा, जल्दी कर बेटा।”

“क्या हुआ माँ?” ऑंखें मलते हुई मैंने माँ से पूछा।

“क्या माँ! अभी तो सिर्फ छः बजे हैं इतनी सुबह क्यों जगाया मुझे, आपको पता है ना रात को देर से सोई थी।” मैंने इतना कहा ही था की माँ के चेहरे पे नज़र गई। “क्या हुआ माँ, इतनी परेशान क्यों लग रही हो?”

“बेटा रवि नहीं रहा!”

“क्या, कैसे माँ?” और मैं बिना ज़वाब सुने बिना चप्पलों को पहने भागी नीति भाभी के पास। दरवाजे पे लोगों की भीड़ खड़ी थी। तरह तरह की बातें सुनाई दे रही थी। कोई कह रहा था कि ट्रैन से गिर गया रवि तो कोई कहे शायद ज्यादा पी ली थी। उफ़! तेज़ क़दमों से भीड़ चीरती हुई अंदर गई।

डॉली चाची छाती पीट पीट कर रो रही थी और नीति भाभी को कोस रही थी। इन सब के बीच मेरी नज़रे सिर्फ नीति भाभी को ढूंढ रही थी।”

भाभी के कमरे में झांका वहाँ भी नहीं थी। जैसे ही पलटी शीशे में भाभी का अक्स दिखा, एक कोने में सिमटी सी बैठी दिखी, भाग के भाभी के पास जा बैठ गई।

बिलकुल भाव शून्य चेहरा लिये भाभी बैठी थी। जब मैंने हाथ पकड़ हिलाया, कोई ज़वाब नहीं दिया और ना ही नज़रे उठा के देखा मुझे वैसे ही बैठी रही। हाथ खींच अपने गले से लगा लिया मैंने अपनी नीति भाभी को।

जाने कौन सा रिश्ता बन गया था इनके साथ। शायद पिछले जन्म का ही कोई नाता रहा होगा जो बिना नीति भाभी के कुछ कहे उनके दिल की बातें मैं समझ जाती थी।

पांच साल पहले रवि भैया की दुल्हन बना के डॉली चाची लायी थी। अपने नशेड़ी बेटे के लिये। वंश जो चलाना था और रवि भैया के करतूतों की कहानियाँ सुन कर कोई भी बाप अपनी बेटी तो देता नहीं चाहे जहर दे देता बेटी को।

डॉली चाची शुरू से ही तेज़ स्वभाव की थी। चाचा ऊंचे अफसर थे तो इस बात का बहुत दम्भ था उन्हें। पति सीधे थे तो दबा के रखती उन्हें। बहुत मिन्नतों के बाद बेटा हुआ था रवि जो अपने माँ के नक़्शे कदम पे चलते हुए बड़ा हुआ था।

तेज़ स्वभाव के होने के बाद भी पता नहीं क्यूँ डॉली चाची माँ को बहुत इज़्ज़त देती और मुझे प्यार। चाचा के दब्बू होने का ये नतीजा निकाला कि रवि भैया उनके हाथ से निकलने लगे।

पहले गली के लड़को के साथ घूमते फिर बड़े होने पर शहर भर के लड़को के साथ और फिर पीने की लत लगने में भला कितनी देर लगती है। रोज़ पी कर लौटते और चाची से लड़ते। चाचा ने खुद को एक दायरे में सिमित कर लिया, ना कुछ कहते ना सुनते।

एक माँ होने के कारण स्वाभाविक पुत्र मोह में चाची फँसी थी। जब पता लगा बेटा कोठो के चक्कर लगाने लगा है तो डर गई कहीं कोई रोग ना लगा बैठे तो अपने गाँव से एक गरीब घर की लड़की को ले आयी और बेटे संग फेरे डलवा दिये।

बिन माँ बाप की लड़की थी नीति भाभी अपने चाचा चाची पे बोझ बनी थी तो चाचा की जेब गर्म कर ले आयी डॉली चाची अपनी बहु बना।

पहली बार जब मैं मिली थी भाभी से उनका मुस्कुराता चेहरा देख अंदाजा हो गया कि अपने पति के करतूतों की ख़बर नहीं इनको। प्यारी सी भाभी सौम्य सी मुस्कान चेहरे पे लिये मिली थी मुझसे और एक बंधन सा बांध लिया था मुझसे।

वो मुस्कान फिर नहीं दिखी इन पांच सालो में मुझे। हमारा छत मिला हुआ था तो अक्सर शाम को मेरे पास आ बैठती। रोज़ कहीं ना कहीं नील के निशान दिखते जिन्हें अपने आँचल से छिपाने का असंभव प्रयास करती रहती। मुझसे बहुत लगाव हो गया था उन्हें, जब भी तड़प उठती तो मेरे पास आ अपना जी हल्का करती।

“भाभी निकल जाओ इस नर्क से, जब मैं कहती तो हंस के कहती,  तू ही बताना निशा कहाँ जाऊ? कम से कम सिर पे छत तो है। जो पहले चाची करती थी अब माँजी करती हैं कोई फ़र्क नहीं पड़ा मेरी जिंदगी में और रवि भैया बोलो भाभी, मेरे पूछने पे चेहरा सफ़ेद सा हो जाता जैसे भीतर तक सिहर उठती हो अपने पति के अत्याचारों का सोच कर भी।

रवि भैया वैसे ही रहे बस कोठों पे जाना बंद कर दिया था इतनी सूंदर पत्नी जो घर पे थी और घर पे शांता बाई की छुट्टी हो गई थी नीति भाभी जो थी। अब बहु के होते कामवाली का क्या काम। यही कहती फिरती डॉली चाची पूरे मोहल्ले में। इस बीच एक बेटा भी हो गया थोड़ी आशा बंधी की वंश बढ़ाने वाली का कुछ तो कद्र डॉली चाची करेंगी।

सुबह से रात तक सिर्फ काम ही काम होता और थोड़ी भी देर हो या गलती हो तो गालियाँ मिलती। मैं दंग रहती ये देख कर कि किस मिट्टी की बनी थी नीति भाभी, होठों को सिले अपना काम करते रहती, “जैसे कोई भावना ही ना हो ना हर्ष, ना विषाद, ना ईर्ष्या, ना द्वेष।

चाचा कभी कभी आशीर्वाद का हाथ सिर पे फेर देते तो खिल उठती भाभी। पिता रूपी ससुर जी का स्नेह पा और फिर मैं तो थी ही उनकी हमजोली उनके दुःख दर्द को बांटने वाली।

तभी कुछ औरते आयी और ले गई भाभी कोई उठा कर और हॉल में बिठा दिया।

लाश के टुकड़े टुकड़े हो गए थे बोरे में भर के पुलिस लायी थी लाश को। नन्हे से पोते को गोदी में लिये चाचा बैठे थे भावहीन चेहरा लिये जिसपर कोई ग़म ना था।  इकलौते बेटे के जाने का भी नहीं। जैसे जानते थे कि ये दिन तो आना ही था।

औरतों ने चूड़िया उतारी और मांग पोछ दिया तभी डॉली चाची चीखती हुई बोली, “अरे अभागन! पति मरा है तेरा एक बून्द आँसू तो गिरा।” मैं भी चौंक गई सच में एक बून्द आंसू नहीं थे भाभी के आँखों में, ना कोई ग़म था दिखा तो एक सुकून एक तसल्ली का भाव कि थोड़े तो दुख कम हुए मेरे, कम से कम रातों को तो नहीं रौंदी जाऊंगी।

इतना तो जानती ही थी मैं अपने नीति भाभी को। नन्हे हर्ष ने आग दिया अपने पिता को। रवि भैया ने तो कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई थी अपने पिता होने की लेकिन उनके नन्हे से बेटे ने अपना पुत्र धर्म निभा दिया था और मुक्ति दी थी अपने पिता को।

चाची ने बिस्तर पकड़ लिया और महीना होते होते वो भी चली गई अपने बेटे के पास, पीछे रह गए  चाचा, नीति भाभी और नन्हा हर्ष।

अब नील के निशान नहीं दिखते थे भाभी के बदन पे,  दिखती थी तो वही सौम्य मुस्कुराहट जो पाँच साल पहले देखी थी मैंने उनके चेहरे पे।

मूल चित्र : Debashish RC Bishwas via Unsplash

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