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भाषा तो अपने विचारो को प्रकट करने का एक माध्यम है और सभी भाषाएं सीखनी भी चाहिए पर अपनी मातृभाषा का तिरस्कार करके बिल्कुल नहीं।
तुझे क्या याद करूं! जन्म होने के उपरांत मां से बोलना सीखने पर मुख से पहला अक्षर निकला ‘मां’ और जो जन्म से ही सहेली हो। उसकी यादें तो सदा दिल में समाई रहती हैं। उसे भला कैसे भुलाया जा सकता है?
पिताजी राज्य सरकार के कार्यालय भोपाल में कार्यरत होने के कारण सभी मिलने-जुलने वाले एवं पड़ोसी अधिकतर हिंदी भाषा में ही बातचीत करते। तो मानो हिंदी जैसे मेरी बचपन से ही सहेली रही है और मेरे हर सुख-दुख की साथी भी मेरी कलम के साथ यही रही। क्योंकि प्रारंभिक शिक्षा का आरंभ हिंदी-माध्यम से ही हुआ। वैसे एक विषय अंग्रेजी भी था लेकिन अन्य विषयों को पढ़ने का माध्यम हिंदी ही होने के कारण इसे सीखने का लगाव निरंतर बरकरार रहा।
जब में तीसरी कक्षा में पढ़ती थी तब स्कूल में शिक्षिकाएं प्रतिदिन आधी छुट्टी में खाने के पूर्व संस्कृत के श्लोक सभी विद्यार्थियों से एक साथ बुलवाती और फिर हम लोग खाना शुरू करते। पर मुझे उन श्लोकों का हिंदी में अर्थ समझने के लिए उनका अनुवाद जानने की उत्सुकता रहती और मैं अपनी दिलचस्पी के अनुसार शिक्षिका से अनुवाद जानकर ही रहती। इसीलिये वे श्लोक आज भी मुझे याद हैं।
यहीं से कारवां शुरू हुआ मेरा हिंदी भाषा को विस्तार से सीखने का और इसी क्रम में शिक्षिका द्वारा दिये मार्गदर्शन पर प्रतिदिन समय निकालकर एक पृष्ठ हिंदी में शुद्ध लेखन शुरू किया जिसका सफल परिणाम भी विद्यालय में आयोजित सुलेख प्रतियोगिता में प्रथम स्थान के रूप में शीघ्र ही प्राप्त भी हुआ। बस हिंदी के साथ मेरा याराना यूं ही गहरा होता गया।
वैसे सभी पहचानवाले और रिश्तेदार पापा को हमेशा कहते रहते, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलवाई होती बेटी को। लेकिन पापा ने किसी के बोलने की तरफ ध्यान नहीं देते हुए सदैव मेरा हौसला बढ़ाया और माता-पिता को पूरा यकीन था कि हिंदी भाषा के माध्यम से अध्ययन करने पर भी सफलता अवश्य ही मिलेगी।
पांचवी तक प्राइवेट स्कूल, फिर सरकारी स्कूल की दहलीज पार करना कोई आसान काम नहीं था पर बढ़ते विषयों को पढ़ने की तमन्ना को विस्तृत दिशा में हिंदी के माध्यम से ही आगे बढ़ी और फिर एक बार आठवीं कक्षा में चारों अनुभागों में प्रथम आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह परिणाम स्कूल की प्राचार्या ने विदाई समारोह में एकाएकी आश्चर्यजनक रूप से बताया। इस प्यारे पल के एहसास और प्राचार्या महोदया द्वारा कहे शब्द की बेटी जो ये हिंदी भाषा की सौगाद ईश्वर की तरफ से तुम्हें मिली है न। इसे भूलना नहीं कभी, इसी भाषा में हमारी उन्नति निश्चित है। इस तरह से मेरे आत्मविश्वास में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई।
फिर घर में भी पापा को हमेशा हिंदी में पत्र लिखते हुए देखती थी बचपन से ही और निहारती रहती थी पर कुछ समझ में नहीं आता था। पर जब धीरे-धीरे हिंदी भाषा में अच्छी पकड़ होने लगी तो पापा के लिखे पत्र और बुआजी, चाचाजी के आने वाले पत्रों को पढ़ती। जिससे पढ़ाई के अलावा भी भावनात्मक रूप से हिंदी को नज़दीक से जानने का मौका मिला और जब वे बुआजी को गंगु दीदी लिखते थे तो पढ़ने में बहुत खूबसूरत लगता। जिसने मेरे मन पर हिंदी भाषा के क्षेत्र में एक अलग ही छाप छोड़ी।
उन दिनों ही गणेशजी और दुर्गा देवीजी की मूर्ति स्थापना सामूहिक रूप से करने की प्रथा प्रारंभ हुई, तब हिंदी चलचित्र भी दिखाए जाते और सामूहिक हिंदी आरती बोलने के साथ ही साथ छोटे बच्चों के हिंदी में ही कार्यक्रम भी कराए जाते, जिसमें प्रतिभागी होकर मन में हिंदी के प्रति जिज्ञासा और अधिक घर करती गई। मम्मीजी के सिखाए रास्तों पर भी अमल किया कि पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों में प्रतिभागी होना भी आवश्यक है क्योंकि भविष्य संवारने में उनका भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है।
मुझे नौवी कक्षा में उच्च स्तरीय अध्ययन हेतु वाणिज्य विषय चुनना पड़ा। उसमें भी मैं खुश थी कि लेखा और गणित से संबंधित विषय छोड़कर बाकी विषय हिंदी भाषा के माध्यम से अच्छे से समझ सकती हूं और ऐसे ही हायर सेकेंड्री से लेकर एम.कॉम तक के अध्ययन पूर्ण होने तक हिंदी भाषा ने साथ निभाया। ऐसा नहीं कि अंग्रेजी भाषा पढ़ी नहीं। वह तो हर पायदान पर एक भाषा के रूप में और वाणिज्य के प्रेक्टिकल्स वाले विषय अंग्रेजी भाषा में ही पूर्ण किये परंतु हिंदी भाषा के प्रति लगाव लगातार बना रहा।
इन सबके अलावा निभाया साथ हमेशा मेरे मनपसंद पुराने हिंदी गानों ने। मस्त रेडियो पर गाने सुनती थी और कठिन से कठिन लेखा के प्रश्न हल भी करती। पता ही नहीं चलता था कि कहां प्रश्न हल हो जाते थे। रोज सुबह-सुबह पापा रेडियों पर मधुर भजन और पुराने हिंदी गाने लगाते थे, उनको सुनते हुए ही दिन की शुरूआत होती। जो आज भी मन को बहुत भाते हैं और मेरा आज भी हिंदी गाने सुनना जारी है। साथ ही गाने की कोशिश भी।
साथ ही साथ 1982 में जब नौवें एशियाई खेल आयोजित हुए। उस समय जब टेलिविजन हिंदी समाचार देखने का एक माध्यम बन गया और चित्रहार में मनपसंद गानों को देखने की उत्सुकता भी काफी बढ़ गई। भले ही अपने घर टेलिविजन हो या न हो पर इसी बहाने दोस्तों के घर जाने का अवसर तो जरूर मिल गया। और दोस्तों संग देखने का आनंद ही कुछ और है। जिसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी भाषा में आपसी संवाद बढ़ा और हिंदी के प्रति रूझान बढ़ता गया।
इन्हीं सबके साथ पापाजी के मार्गदर्शन पर हिंदी टंकण का अभ्यास करते हुए परीक्षा भी उत्तीर्ण की ताकि राज्य-सरकार के किसी कार्यालय में शीघ्र ही नौकरी हासिल हो सके।
परिस्थितिनुसार नौकरी हासिल करने के लिए प्रयासों की श्रेणी प्रारंभ हो गई। जिसके लिए लगातार खोज करते हुए योग्यतानुसार प्रतियोगी परीक्षाऍं देने लगी। इसी बीच ब्रुकबॉंड कंपनी में मुझे पहले लिखित परीक्षा हेतु बुलाया गया और लिखित परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत साक्षात्कार के लिए आमंत्रण भी आया। फिर साक्षात्कार भी सफल रहा और पूरी उम्मीद भी थी मुझे कि यहॉं मेरा चयन हो जाएगा।
पर वहॉं यह कहा गया कि मैने प्रेक्टिकल प्रश्नों के अलावा अन्य प्रश्नों के उत्तर हिंदी भाषा में दिये। जबकि मैने उसमे लिख दिया था कि मेरा माध्यम हिंदी है। अत: प्रश्नों के उत्तर हिंदी भाषा में दिए जा रहें हैं और फिर साक्षात्कार के लिए भी तो बुलावा आया न? खैर कंपनी के नियमों के अनुरूप ही चयन करना होता है परंतु इसके पश्चात मैं सोचने को मजबूर हो गई थी कि क्या मेरी सखी हिंदी मेरा साथ जिंदगी के मध्य सफर में ही छोड़ देगी? मैं वैसे तो अंग्रेजी भाषा में कार्य करती पर मेरी सहेली को छोड़ना गंवारा नहीं था।
मेरे मन मे चल रही हलचल के बीच मुझे फिर ईश्वर ने अवसर प्रदान किया। ज्ञान के मंदिर नवोदय विद्यालय समिति, क्षेत्रीय कार्यालय, भोपाल में सेवा करने का। जब प्रथम दिन ही अधिकारी ने कहा कि आपको जिस भाषा में कार्य करना आसान लगता हो उसमें बेझिझक करें। भाषा तो एक माध्यम है बेटी और उस पर हिंदी भाषा तो दिलों को जोड़ने का कार्य करती है। मेरे तो वारे न्यारे हो गए और खुशी का ठिकाना न रहा। मारे खुशी के मन डोलने लगा और कहने लगा, हे मातृभाषा हिंदी! मेरी जननी मॉं की तरह ही तू भी सदा मेरे मन में वास करेगी।
इस तरह से जिंदगी की नवीन शुरूआत हुई और मैं धीरे-धीरे कार्यालय के माहोल में ढ़लकर हिंदी भाषा में पत्राचार के साथ ही साथ अंग्रेजी में भी सीखती गई क्योंकि भाषा तो अपने विचारो को प्रकट करने का एक माध्यम है और भाषाएं सभी सीखना भी चाहिए पर अपनी मातृभाषा का तिरस्कार करके बिल्कुल नहीं।
फिर मुख्यालय के निर्देशानुसार कार्यालय में भी प्रतिवर्ष हिंदी दिवस 14 सितंबर से 28 सिंतबर तक एक उत्सव के रूप में मनाए जाने की प्रथा आरंभ हुई और हिंदी भाषा का स्थान मेरे लिए अधिक परम-पूज्य हो गया। दिन पर दिन कार्यालय में कार्यों की अधिकता तो बढ़ती ही जा रही थी पर सभी अधिकारियों द्वारा मुझे सदैव प्रोत्साहन के साथ हिंदी के क्षेत्र में आगे ही बढ़ाया गया। विद्यालय-प्रशासन, आर.टी.आई.एक्ट 2005, हिंदी-राजभाषा से संबंधित कार्यों के साथ अन्य कार्य भी हिंदी भाषा में ही पूर्ण करने का अवसर प्रदान किया गया। जिससे मैं नोटिंग-ड्राफ्टिंग कार्य में माहिर होती गई।
सुशिक्षित कार्यालय में समस्त अधिकारी मेरे गुरूजन थे जिन्होंने मेरे जीवन में मेरी प्रतिभा पहचानकर मुझे समय-समय पर ऐसा मार्गदर्शन दिया, जो हमेशा ही पथप्रदर्शक बना।
एक दिन कार्यालय में अचानक ही अधिकारी द्वारा मुझे बुलाकर कहा आप तो हिंदी भाषा में कविता कर सकती हैं। मैं असमंजस की स्थिति में थ।! इतने में भरी सभा में हिंदी दिवस के आयोजन के अवसर पर मेरा नाम पुकारा गया और मुझे धन्यवाद प्रस्ताव बोलना था। जो पहली बार झिझकते हुए बोला। उस दिन से काव्य-पाठ, वाद-विवाद, भाषण एवं निबंध प्रतियोगिताओं में प्रतिभागी होने का अवसर प्राप्त होने लगा। अधिकारी द्वारा कविता की रचना करने हेतु कहे गए शब्द मन में ऐसे घर कर गए कि प्रति वर्ष मुझे प्रतिभागी होने की उत्सुकता बनी रहती।
इसी दरम्यान विवाह-बंधन में बंधने के कारण घर और कार्यालय के कार्यों के बीच क्रियान्वयन के समायोजन में मैं फिर व्यस्त हो गई थी पर प्रतियोगिताओं में प्रतिभागी बनना तो जारी रखा और यूं ही मेरी सहेली के साथ सफर भी बरकरार रहा।
इसी सफर में ऐसा दौर भी आया जब बच्चों को भी हिंदी भाषा का ज्ञान कराने लगी और उनको भी शुद्ध लेखन प्रतिदिन करवाने लगी। इस सफर में पतिदेव ने भी पूर्ण रूप से उत्साहित किया और कहा, हिंदी का सफर कहीं रूकना नहीं चाहिए। फिर क्या था! बच्चों को अन्य विषय वे पढ़ाते और हिंदी मेरे खाते में आया। एक दिन बेटा आया और कहने लगा, “मम्मी हिंदी टेस्ट की कॉपी में हस्ताक्षर कर दो!” मैने कॉपी देखी तो उसमे बेटे ने गलत लिखने पर भी शिक्षिका ने गलती नहीं बताते हुए पूरे नंबर दे दिए। मैने मन ही मन सोचा इस तरह तो बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है।
अरे भले ही अंग्रेजी माध्यम का स्कूल हो, पर बच्चों को सही हिंदी का तो ज्ञान होने दें। फिर मैने कॉपी में टिप्पणी लिखकर दी और शिक्षिका ने कहा, “आपने सही बताया, हम समय की व्यस्तता के चलते इतने बच्चों की कॉपी ध्यान से नहीं देख पाते पर भविष्य में ध्यान रखेंगे।” इस तरह मेरी सहेली ने फिर मेरा साथ निभाया।
जिंदगी के दौर में चलते-चलते वो कहते हैं न कि एक बार तो असली इम्तिहान की मुश्किल घड़ी का सामना करना पड़ता है और 26 वर्ष की नौकरी का कार्यकाल पूर्ण होने के उपरांत स्वास्थ्य धोखा दे गया और कार्यालय का साथ छूट गया।
मुझे फिर लगा कि मेरी सहेली हिंदी क्या मेरा साथ यूं ही छोड़ देगी? शरीर साथ नहीं दे रहा था पर दिल से एक मीठी सी ध्वनि सुनाई दी। मैं तो हमेशा तेरे साथ हूं रे! फिर क्या था, मैने डायरी उठाई और रोजाना डायरी में पहले अखबार में छपने वाले सुविचार लिखने लगी। मन में ख्याल आया सुविचार तो ठीक है। सुलेख भी ठीक है और तनाव भी दूर हो रहा है धीरे-धीरे लेकिन क्या मेरी हिंदी भाषा से भरे हुए मन के भाव यूं ही डायरी में बंद हो जाएंगे?
वक्त का दौर ऐसा भी होता है साहब! उसके रंग हजार होते हैं पर उसके एक-एक लम्हों में अलग-अलग रंगीनियत होती है!
जी हॉं जरूरत होती है, सिर्फ एक उम्मीद बरकरार रखते हुए बुलंद हौसलों के साथ हुनर को पहचानने की। वक्त के दरम्यान गुम हुई रूचि को फिर से लेखन के रूप में उकेरना शुरू कर दिया! अधिकारी की कही हुई कविता रचने की बात जो याद आ गई। फिर क्या था वर्तमान दौर में सोशल मीडिया के माध्यम से वूमेंस वेब मंच से मिलना हुआ और हिंदी मंच पर मेरी हिंदी लेखनी ने पुन: जन्म लिया और जिसके जरिये नवीन सखियां और अन्य मित्रों से मुलाकात हुई जिन्होंने लेखन की सराहना कर अधिक उत्साहित किया और एक नए सफर की शुरूआत हुई।
इसमें फिर सफल हुई मेरी सहेली हिंदी और अंत में इतना ही कहना चाहूंगी कि इस लेखन के सफर में भी बेहतर प्रयास करना अभी बाकी है मेरे दोस्त। अभी तो इस चलचित्र की यात्रा जारी रहेगी और निरंतर अभ्यास भी जारी रहेगा। जी हां, साथियों ये थीं मेरे जीवन की हिंदी से जुड़ी महत्वपूर्ण सुनहरी यादें! और अंत में यही बताना चाहूंगी कि महान कवि वृंदजी के दोहे पर मैं सदा अमल करती हूँ! आप भी अवश्य किजीएगा क्योंकि जीवन में यही प्रयास सिर्फ उपयोग में आता है ।
“करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान।”
मूल चित्र : BBH Singapore via Unsplash
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