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मैं जानना चाहती हूं कि हमारे समाज में जहां माता रानी का स्वागत धूम-धाम से होता है, वहां बेटियों का आना मातम क्यों बन जाता है?
नवरात्रों की तैयारी शुरू थी, पूरा घर तैयारियों में व्यस्त था और दादी; दादी अपनी कुर्सी पर बैठी सबको दिशानिर्देश दे रहीं थीं।“देखो फूल तो कल सुबह ही आने चाहिए। ताज़े फूल की माला ही चढ़ेगी माता पर और हाँ मिट्टी नदी किनारे से ही आनी चाहिए।”“जी मां!”यह मेरे पापा थे जो दादी की हर छोटी-बड़ी बात में अपनी सहमति जताते और वह जो रसोई में खड़ी व्रत के सामान को जगह पर रख रही हैं ना वह मेरी मां हैं। बुआ, बड़ी मां, चाची सब भाग-भाग कर काम में लगे थे। बड़े पापा और चाचा बाज़ार गए थे सामान कि लिस्ट लेकर। हर बार की तरह, इस बार भी लास्ट मिनट शॉपिंग रह गई थी और ऐसे में रसोई में खड़ी मां अचानक चीखी।
“क्या हुआ?” सब एकसाथ ही पहुंचे थे। मां का वॉटर बैग फट गया था और माता रानी के साथ मेरा भी आगमन हुआ था अगले दिन। लेकिन मेरा कोई स्वागत नहीं हुआ था जैसे नए शिशु का होता है और मां पर तो बौछार हुई थी तानों की।
क्यों? क्योंकि मैं बेटी थी और मेरे समय से पहले जन्म की वजह से मां दादी को उनका वंश आगे बढ़ाने वाला पोता नहीं दे सकती थी। उस पर मां को हर पल यह अहसास कराया जाता था कि पापा की दूसरी शादी नहीं करा कर मां पर उन्होंने बहुत बड़ा अहसान किया है वरना उनके बेटे के लिए तो लाइन लगी थी लड़कियों की।
जैसे-जैसे बड़ी होती गई वैसे-वैसे समझ आने लगा था कि मेरा लड़की होना ही मेरे और मेरी मां दोनों के दुख का कारण था। जहां बड़े पापा के बेटे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने जाते वहां मुझे गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल से काम चलाना पड़ा। अपने दोनो भाइयों से अच्छे नंबर लाने के बावजूद मुझे छोटे से शहर के कॉलेज से ही पढ़ाई करनी पड़ी।
कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि क्या इन सब में मेरा दोष इतना ही था कि मैं लड़की थी या मेरा कोई दोष ही नहीं था। दोष इस समाज का था जिसने हर पल मां को यह अहसास कराया कि वह एक औरत है और अगर उसने बेटा नहीं बेटी को जन्म दिया है तो उसे ताने सुनने पड़ेंगे। उसे अपने ही परिवार वालों के द्वारा गैसलाइटिंग का शिकार होना होगा। उसे कोई अधिकार नहीं होगा कि वह अपनी इकलौती संतान, जो कि एक बेटी है की शिक्षा के लिए कोई भी कदम उठाए। उसे कोई अधिकार नहीं होगा कि वह अपनी बेटी के खुद के लिए फैसलों में उसका साथ दे सके क्योंकि उसकी संतान एक बेटी है।
मैं जानना चाहती हूं क्यों? क्यों आज भी हमारे समाज की कई औरतों को यह तक समझ नहीं आता कि सिर्फ शारीरिक हिंसा ही घरेलू हिंसा नहीं है। मानसिक रूप से किसी को हर पल परेशान करना भी घरेलू हिंसा ही है।
मैं जानना चाहती हूं कि हमारे समाज में जहां माता रानी का स्वागत धूम-धाम से होता है, बेटियों का आना मातम क्यों बन जाता है? क्यों जो समाज बेटों के लिए सारे मार्ग खोल देता है, वही समाज बेटियों के हर मार्ग में एक के बाद एक बाधा क्यों उत्पन्न करता है?
मूल चित्र : Swaniket Chaudhary via Unsplash
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