कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
थोड़ी सी पैरों की खराबी के लिए अपनी बेटी के भविष्य को दांव पर नहीं लगने देंगें। मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा तू एक बार फिर से जांच पड़ताल कर...
थोड़ी सी पैरों की खराबी के लिए अपनी बेटी के भविष्य को दांव पर नहीं लगने देंगें। मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा तू एक बार फिर से जांच पड़ताल कर…
आज मातृसदन की शोभा देखते बन रही थी। एक एक कोना चमकाया जा रहा था। अवसर था मोहन शर्मा जी की बड़ी बेटी मुग्धा के रिश्ते के लिये लड़के वाले जो आ रहे थे। मुग्धा की दादी जिसे सब प्यार से बड़ी अम्मा कहते थे वो सब कुछ अपनी निगरानी में करवा रहीं थीं।
“अरे! ओ बंसी बड़ा कामचोर हो गया है रे तू…”
“क्या हुआ? बड़ी अम्मा।”
“देख तो ज़रा वो गमले कैसे लगाये हैं तूने? दस बार कहों तो तू एक बार सुनता है।”
“अभी करता हूँ बड़ी अम्मा और बंसी भाग के गमले ठीक करने लगा।”
सब को आवाज़े लगाती नौकरो को डांटती बड़ी अम्मा को एक पल का चैन ना था आज उनको, अवसर ही ऐसा था; उनकी प्यारी मुग्धा को देखने और रिश्ता पक्का करने लड़के वाले जो आ रहे थे।
मोहन जी की दो बेटियां और एक बेटा था। अपना सफल पुस्तैनी व्यवसाय था। बड़ा सा बंगला मातृसदन उनके पिताजी का बनवाया हुआ था। मोहन जी की पत्नी असमय चल बसी थी तब बच्चे भी बहुत छोटे थे। बड़ी अम्मा ने उनकी माँ बन उन्हें पाला पोसा था। पत्नी की मृत्यु के बाद मोहन नी ने खुद को काम में डूबा दिया। दादी के आँचल की छांव में बच्चे बड़े होने लगे। आज उनकी बड़ी बेटी मुग्धा को देखने लड़के वाले आ रहे थे।
“आइये आइये! धन्य भाग हमारे जो आप पधारे हमारे घर”, मोहन जी ने अपने होने वाले समधी नीरज गर्ग जी, उनकी पत्नी शोभा और उनके बेटी और दामाद (शीतल और सोहम) और होने वाले दामाद विपुल का दिल खोल के स्वागत किया।
मोहन जी के घर की शोभा देख गर्ग परिवार दंग था। नीरज जी भी अच्छे खानदानी लोग थे लेकिन मोहन जी के सामने कहीं नहीं थे। उनका बेटा विपुल इंजीनियर था। बड़ी अम्मा ने भी अपने होने वाले समधियों को स्वागत किया चाय नाश्ते का दौर चला। सामने टेबल पे तरह तरह के नमकीन, मिठाइयाँ, मेवे सजे थे। शोभा जी और शीतल की ऑंखें चुंधिया सी गई थी मातृसदन का वैभव देख।
चाय के बाद मुग्धा को बुलाया गया, अपनी बहन के साथ मुग्धा कमरे में आई।
“ये क्या माँ ये तो लंगड़ी है?” शीतल ने अपनी माँ को कोहनी मार के बोला। शीला जी के भी मुँह की मिठाई गले में अटक गई।
“ये तो बताया ही नहीं था इन लोगों ने कि लड़की लंगड़ी है?” ऑंखें दिखाते हुई अपने पति को इशारा किया तो नीरज जी ने आंखों आंखों में चुप रहने का इशारा किया। लेकिन बड़ी अम्मा की अनुभवी नजरों से यह सब छिपा ना रहा।
शीतल ने अपना दिमाग लगाया और धीरे से अपनी मां को कहा, “मां सिर्फ मुग्धा के पैर देख रही हो थोड़ा इनका घर भी तो देखो। हर कोने से रईसी टपक रही है। इतना दहेज़ लेकर आएगी मुग्धा इतना लेकर आएगी कि तुम्हारा घर भर जायेगा।”
बेटी की बात सुन शीला जी के दिमाग ने काम करना शुरू कर दिया। मुग्धा के गले के डायमंड हार को देख शीतल का ईमान पहले ही डोल चुका था। नकली हंसी हंसते हुए शीला जी ने कहा, “हमें तो मुग्धा बहुत पसंद आई एक बार मुग्धा और विपुल भी आपस में बात कर लेते तो अच्छा रहता।”
“हां, हां, बिल्कुल बिल्कुल”, मोहन जी ने कहा।
बेमन से विपुल ने अपनी मां को देखा उसकी आंखें साफ कह रही थी कि उसे यह रिश्ता पसंद नहीं था। विपुल ने कोई तमाशा करना उचित ना समझ मुग्धा के साथ कमरे से बाहर निकल गया। थोड़ी देर बातचीत के बाद शीला जी ने मुग्धा को शगुन के कंगन पहना दिये।
मोहन जी के घर से निकलते विपुल उखड़ गया, “ये रिश्ता मुझे बिल्कुल पसंद नहीं पापा। अमेरिका में रहना है मुझे वहाँ क्या मैं इसे लेकर जाऊंगा?”
“भैया आपको सिर्फ मुक्ता के पांव दिख रहे हैं गले का हार नहीं दिखा?”
अपनी बहन की बात सुन्दर विपुल भड़क गया, “क्या बात कर रही हो? मेरे पूरे जीवन का सवाल है। हीरो के हार के साथ मुझे जीवन नहीं गुजारना एक लड़की के साथ बिताना है और जब मुझे वो पसंद ही नहीं तो कैसे मेरा सुखी जीवन होगा?”
सब घर आ गए अपने अपने तरीके से सब विपुल को समझाने लगे। नीरज जी तो पहले से ही जानते थे मुग्धा के बारे में। मुग्धा के पैरों में हल्की सी खराबी थी जिसके बारे में मोहन जी ने अपने समधी से कुछ नहीं छिपाया था।
नीरज जी सिर पे लाखों का कर्जा था जिसे चुकाने के लिये उन्होंने अपने बेटे को सीढ़ी बनाया था वो जानते थे एक बार रिश्ता हो जाये तो मोहन जी उन्हें इस कर्जे से उबार लेंगे। इन सब बातों से बेखबर विपुल बिल्कुल उखड़ गया था। वह किसी भी कीमत पर शादी के लिए तैयार नहीं था। वहीं पूरा गर्ग परिवार मिलकर विपुल को समझाने पे लगा था।
“कौन कह रहा है उसे अमेरिका ले जाने को शादी कर के यही छोड़ जाना”, लालच में अंधी अपनी माँ का मुँह विपुल आश्चर्य से देखने लगा।
“एक बेटी की माँ हो आप ऐसा कैसे सोच सकती हो? स्वार्थ में अंधे हो गए है आप सब के सब”, गुस्से से विपुल कांपने लगा। बेटे को हाथ ने निकलता देख शीला जी ने विपुल को अपनी क़सम दे भूख हड़ताल पे बैठ गई। परेशान विपुल ने अपने परिवार के आगे हथियार डाल दिये।
रात को बड़ी अम्मा, अपने बेटे के कमरे में आयी, “देख मोहन बाकी सब तो ठीक है लेकिन बेटा मुझे वो लोग थोड़े लालची लगे।”
“मुझे तो ऐसा नहीं लगा माँ, देखा नहीं होने वाली समधन कितने स्नेह से मिली मुग्धा से।”
मोहन जी बातें सुन बड़ी अम्मा के माथे पे बल पर गया, “मोहन ये मत भूल कि इन बूढ़ी आँखे लोगों को परखना जानती है। थोड़ी सी पैरों की खराबी के लिए अपनी बेटी के भविष्य को दांव पर नहीं लगने देंगें। मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा तू एक बार फिर से जांच पड़ताल कर।”
अपनी माँ की बात सुन मोहन जी ने कहा, “ठीक है माँ, जैसा तुम कहो।” इधर कुछ दिन बीत गया विपुल के परिवार में सब बेचैन हो रहे थे दहेज की तो कोई बात ही नहीं हुई।
“फोन करके बात करने को बुलाऊँ क्या?”
नीरज जी ने अपनी पत्नी शीला से कहा, ” हां बिलकुल जब उधर से कॉल नहीं आ रहा तो आपको तो बात सामने से रखनी पड़ेगी।”
नीरज जी ने मोहन जी को कॉल किया, ” नमस्कार भाई साहब कैसे हैं आप?”
नीरज जी ने कहा, “मैं बिल्कुल ठीक हूं। आप बताइए, आप सब कैसे हो? और हमारे जमाई सा कैसे हैं?”
“सब ठीक है मोहन जी, मैं सोच रहा था शादी से सम्बंधित लेनदेन की कुछ बातें कर लेते तो अच्छा रहता और बाकि कार्यक्रम भी निश्चित कर लेते।”
नीरज जी की बातें सुनकर मोहन जी का दिमाग ठनक गया। मां ने उनसे जो कहा था वहीं उन्हें सच लगता नजर आने लगा फिर भी उन्होंने अपनी संतुष्टि के लिये कहा, “भाई साहब आप खुल के कहें अपनी बात।”
नीरज जी ने कहा, “देखिये भाई साहब लाग-लपेट नहीं करते और सीधी सीधी बात करते हैं। मैंने विपुल की पढ़ाई में बहुत पैसे खर्च किए तो कम से कम 20 लाख कैश, एक गाड़ी और बाकी तो आप देंगे ही अपनी बेटी को।”
“बस इतना ही सौदा लगाया आपने अपने बेटे का नीरज जी?” गुस्से से मोहन जी ने कहा, “मैं तो अपनी बेटी पचास लाख देने की सोच रहा था। आपने तो बहुत कम क़ीमत लगाई अपने बेटे की सिर्फ बीस लाख रुपए।”
मोहन जी की बात सुनकर नीरज जी बिल्कुल चुप हो गए। ऐसे ज़वाब की उम्मीद ही नहीं थी उन्हें।
“सिर्फ एक कमी है मेरी मुग्धा में उसके पैरों की थोड़ी सी खराबी वरना गुणों की खान है मेरी बेटी जिस भी घर जाएगी बहुत भाग्यशाली होगा वो घर लेकिन मुझे बहुत अफसोस है वो घर आपका नहीं होगा।”
“मैं तो खुद से अपनी बेटी को इतना देता कि आप गिनते थक जाते। लेकिन दहेज़ मांग कर आपने अपने आप को बहुत छोटा कर दिया। जो इंसान अपने बेटे की कीमत लगा सकता है उसके सामने अपनी बहू का क्या मोल होगा?”
“आपकी बातों से साफ मतलब है कि आपने मुग्धा को बहु के रूप में नहीं बल्कि उसके पिता के पैसों के रूप में स्वीकार किया। माफ करिएगा नीरज जी ऐसे घर में मैं आपकी बेटी नहीं दे सकता। नीरज जी को काटो तो खून नहीं कोई जवाब ही नहीं था कि वह मोहन जी को दे सके।”
बड़ी अम्मा सब सुन रही थी। “मां अपने सुना ना ठीक किया ना मैंने?” उदास हो मोहन जी ने अपनी मां से कहा।
“बिल्कुल ठीक किया बेटा। ऐसे घरों में हम बेटी नहीं दे सकते जो पिता के पैसों के लालच में हमारी मुग्धा को अपनाएं। देखना हमारे बिटिया के लिए तो लाखों में कोई एक आयेगा।”
“सच कहा माँ लाखों में कोई एक आयेगा लेकिन ऐसे लालची के घर हम बेटी नहीं देंगे।”
दरवाजे के ओट में खड़ी मुग्धा मुस्कुरा उठी। उसे विश्वास था कि उसके पिता उसके साथ कभी अन्याय नहीं होने देंगे।
मूल चित्र : VICKIIDO via Unsplash
read more...
Please enter your email address