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जब भी कोई त्यौहार आता सुगंधा बहुत उदास हो जाती, सब कुछ होते हुए भी एक अजीब सी ख़ामोशी और खालीपन भरा था उसके जीवन में।
दिल्ली के पॉश इलाके में सुन्दर सा फ्लैट था सुमित और सुगंधा के जीवन में हर ख़ुशी थी, धन, दौलत, मान सम्मान। बस एक कमी थी, उनके बगिया में कोई फूल नहीं खिला था। शादी के दस साल होने को आये थे, हर तरह का इलाज, पीर फ़क़ीर सब कर लिया था दोनों ने। कोई नतीजा ना निकलते देख ईश्वर की मर्जी मान चुप बैठ गए थे।
सुमित ने तो अपने ग़म भुलाने को खुद को काम में डूबा दिया था, लेकिन सुगंधा वो पीछे अकेली रह जाती। जब होली, दिवाली या कोई त्यौहार आता तो आस पास के बच्चों का उत्साह उनका अपने मम्मी-पापा से अपनी फरमाइशें पूरी करवाते देख दिल में एक हुक सी उठती कि काश जो आज उनके भी बच्चे होते तो रंगों से खेलने को मचलते, नन्ही-नन्ही पिचकारियों में रंग भर पुरे घर में भागते और मैं उनके पीछे-पीछे भागती फिरती। दिवाली में नये कपड़ों और पटाखों की ज़िद करते, मेरे हाथों के बने तरह तरह पकवान और मिठाई खा कहते, “मम्मा आप तो बेस्ट मम्मा हो।”
अपनी खुली आँखों से रोज़ सपने बुनती सुगंधा और उन सपनों में ना जाने क्या क्या ख़्वाब सजाती रहती कभी हँसी तो कभी आँखों के कोर गीले कर लेती। इस बार भी जैसे जैसे दिवाली का त्यौहार पास आ रहा था, सुमित और सुगंधा का दिल बहुत उदास सा हो रहा था। त्यौहार का कोई उत्साह रहता ही नहीं था। दोनों पति पत्नी बस एक नियम बुझे दिल से निभा देते थे। सुगंधा को उदास देख सुमित भी उदास हो जाया करता। दोनों पति पत्नी एक दूसरे से अपने आंसू छिपाते फिरते थे।
दिवाली के दिन सुबह सुबह सुमित बिना नाश्ता किये कहीं निकल गए पीछे से सुगंधा परेशान हो रही थी, ‘ना जाने क्या चले गए? ऐसा क्या लेना था? पूजा की चीज़ें तो पहले ही मैं ले आयी थी। इतनी देर भूखे रहने से शुगर ना लो हो जाये।’ खुद से बातें करती सुगंधा पूजा की तैयारी कर रही थी कि सुमित भी आ गए।
“कहाँ चले गए थे बिना बताये?”
“कुछ जरुरी काम था। अच्छा मैं नहा लेता हूँ, तुम जल्दी से नाश्ता लगा दो”, मुस्कुराते हुए सुमित ने कहा, तो सुगंधा सोचने लगी आज इतना क्यों मुस्कुरा रहे है क्या बात हो सकती है?
शाम को दोनों पति पत्नी ने पूजा की, सुगंधा बालकनी खड़ी हो नीचे कैंपस में इक्कठा बच्चों को देखने लगी। अपने-अपने मम्मी-पापा के साथ पटाखे जलाते बच्चे कितने ख़ुश लग रहे थे। पटाखों की रोशनी में उनकी झिलमिलाती हँसी कैसी मासूमियत भरी है। अभी ये सब सोच ही रही थी की सुमित की आवाज़ आयी, “सुगंधा ज़रा चलो मेरे साथ।”
“इस वक़्त कहाँ जाना है सुमित?”
“तुम बहुत सवाल करती हो सुगंधा! अभी मैं कुछ नहीं बता सकता। बस तुम चलो मेरे साथ”, गंभीर हो सुमित ने कहा, तो बिना कोई सवाल किये सुगंधा अपने पति के पीछे हो ली।
गाड़ी में बैठने के करीब बीस मिनट के बाद सुमित ने गाड़ी वात्सल्य बालनिकेतन के सामने रोक दी।
“ये कहाँ आये हैं हम सुमित?” गाड़ी से निकलते हुए सुगंधा ने सुमित से पूछा। तब तक महिला ने आगे बढ़ कर सुमित को नमस्ते किया और दोनों आगे बढ़ गए अपने उत्सुकता को दबाते। सुगंधा भी उनके पीछे हो ली। थोड़ा आगे जाने पे एक बड़े से मैदान में ढेरों बच्चे मुस्कुराते खड़े थे। कुछ बच्चे छोटे-छोटे झिलमिलाते दियों से भवन को सजाने में लगे थे।
“आओ सुगंधा, बच्चों को मिठाईया और पटाखे दो। बच्चे कब से इंतजार कर रहे हैं, कब उनकी माँ आयेंगी और उन्हें दिवाली के तोहफे देंगी।”
सुमित की बात सुन सुगंधा जैसे नींद से जगी और आश्चर्य से अपने पति को देखने लगी।
“ऐसे क्या देख रही हो सुगंधा? तुम एक बच्चे के लिये तरस रही थी और देखो यहाँ इतने बच्चे अपनी माँ के लिये तरस रहे हैं। आज से यही हमारे बच्चे हैं और हम इनके मम्मी-पापा। अब हमारा कोई त्यौहार सूना नहीं जायेगा। हम सारे त्यौहार अब इन बच्चों के साथ ही मनाएंगे।”
सुगंधा की ऑंखें आँसुओ में डूब गई, “सच कहते हो सुमित खुशियाँ तो बांटने से बढ़ती हैं और ग़म बांटने से घटता है। इन बच्चों के बीच आ आज मेरा ग़म भी घट गया और खुशियाँ दुगनी हो गईं।”
सुमित और सुगंधा ने सारे बच्चों के साथ मिल कर पूजा की सुगंधा ने बच्चों को अपने हाथों से मिठाई खिलाई बच्चों के साथ पटाखे जलाती हँसती खिलखिलाती अपनी सुगंधा को देख सुमित आज अपने आंसू रोक नहीं पाया।
“सुमित जी!” सुमित ने पलट कर देखा तो सामने वात्सल्य बालनिकेतन की केयरटेकर शर्मीला जी खड़ी थीं। अपने आंसू पोंछ सुमित ने उनके सामने हाथ जोड़ लिये, “बहुत धन्यवाद शर्मीला जी आपका आज आपके कारण मेरी सुगंधा फिर से जी उठी।”
“नहीं! सुमित जी धन्यवाद तो मुझे आपका करना चाहिये। परिवार और प्यार को तरसते इन मासूमों को आज माता-पिता का प्यार आप दोनों से मिल गया। चीज़ें तो बहुत मिल जाती है इन्हें, लेकिन माँ के प्रेम को तरसते इन बच्चों को आज माँ का आँचल भी मिल गया।”
होठों पे मुस्कान और आँखों में ख़ुशी के आंसू ले शर्मीला जी और सुमित कोने में खड़े माँ और बच्चों का अद्भुत मिलन देख रहे थे। आज सच में वात्सल्य भवन में त्यौहार मन रहा था खुशियों का त्यौहार। आज जहाँ बच्चों को माता-पिता का प्यार मिला था, तो वहीं सुमित और सुगंधा के सूने जीवन में फिर से ख़ुशी लौट आयी थी। ये दिवाली सच में खुशियों की दिवाली हो गई।
प्रिय पाठक, त्यौहार की खुशियाँ तो बांटने से बढ़ती हैं और जब ये खुशियाँ उनके साथ बांटी जाये तो अपनों के लिये तरस रहे हैं, तो सच में खुशियाँ दुगनी हो जाती हैं। जैसे सुमित ने किया, आज मासूम अनाथ बच्चों के साथ दिवाली मना वे अपने जीवन का सूनापन भूल गए थे। आपको सुमित का प्रयास कैसा लगा जरूर बताईयेगा।
चित्र साभार : shylendrahoode from Getty Images Signature via CanvaPro
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