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अगर पुरुषों को पीरियड्स होते तो यह दुनिया कैसी होती?

महिलाओं को, पुरुषों को पीरियड्स होने पर, उनको कैसी प्रतिक्रिया दें, कैसे उनका ध्यान रखना चाहिए, इसकी ट्रेनिग हर संस्था में दी जाती।

महिलाओं को, पुरुषों को पीरियड्स होने पर, उनको कैसी प्रतिक्रिया दें, कैसे उनका ध्यान रखना चाहिए, इसकी ट्रेनिग हर संस्था में दी जाती।

बेगम रुकैया सखावत हुसैन, अपने दौर में प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका रहीं और स्त्री शिक्षा की गहरी पैरोकार रहीं। एक शाम वह अपने सोने के कमरे में एक मुलायम कुर्सी पर आराम कर रही थीं और हिंदुस्तानी औरतों  के हालात के बारे में सोच रही थीं।

उनकी आंख लग गई और उन्होंने एक सपना देखा कि वह एक ऐसी दुनिया में पहुंच गईं, जहां शक्ति के हर साधन पर महिलाओं का ही अधिकार और नियंत्रण था। बाद में उन्होंने उस सपने को लिखा जो ‘सुल्ताना ड्रीम्स’ के शीर्षक से अंग्रेजी में छपा, उसका हिंदी अनुवाद ‘सुलताना का सपना’ शीर्षक से हुआ। जो स्त्री अधिकारों के लिए संघर्षशील लोगों में काफी पसंद ही नहीं किया जाता है स्त्री विमर्श की सैद्धांन्तकी में भी महत्वपूर्ण साहित्य भी है।

इस लेख का मूल्यांकन करें तो इस तथ्य तक पहुंचा जा सकता है कि सत्ता किसी शक्तिशाली समूह के पास होता है तो उसे अच्छा समझा जाता है। उसके बाद यह फर्क नहीं पड़ता है कि सत्ता और उसकी राजनीति चीज क्या है? उसकी अपनी व्याख्या होती है और अपने ही राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक व्याकरण या गुणा-गणित भी।

इस रचना को पढ़ते हुए, मैं भी एक विचार के साथ खुली आंखों से एक दुनिया के बारे में विचार करने लगा कि अगर पुरुषों को पीरियड्स होता तो यह दुनिया कैसी होती?

जाहिर है पीरियड्स एक ईष्या योग्य, गौरव करने लायक और पुरुषोचित घटना सबसे पहले सिद्ध कर दी जाती। आधी आबादी पर थोपी गई टैबूज़ तो कतई ही हावी नहीं होती पुरुषों के ऊपर। पुरुष शायद इस बात में शेखी बघारने में पीछे नहीं रहते कि उन्हें कितने दिनों तक और कितना रक्तस्त्राव हुआ।

नौजवान लड़के मर्दानगी की शुरुआत के दिनों पर इसपर चर्चा करते। तोहफे, धार्मिक संस्कार, पारिवारिक रात्रिभोज और कुवारे लड़कों की पार्टियों का आयोजन करके इस दिन को उत्सव के रूप में मनाते। गली-कस्बे-मोहल्ले में लड़के इसको लेकर छींटाकशी-फब्तियां इजाद करते हुए कहते, “वाह, आज तुम जम रहे हो!”

“हां, यार मेरे ‘वो’ दिन चल रहे हैं।”

इन बातचीत पर तालियां और ठहाके भी लगते। टीवी और अखबारों पर ‘उन दिनों’ बोलकर केयर के विज्ञापन छापे जाते, न ही सैनिटरी पैड्स का प्रचार आते ही टीवी के चैनल बदले जाते और न ही सैनटरी पैड्स को दुकानकार पेपर या काली पन्नी में लपेट कर देते। यह भी संभव होता कि जिस तरह सिगरेट पीने या कोई भी नशा करने पर एक मर्दानगी का एहसास चस्पा है। सैनटरी पैड्स के इस्तेमाल और खदीद-बिक्री पर भी यही एहसास चस्पा हो जाता।

पीरियड्स के मात्र एक मैसेज से ही पुरुषों के लिए छुट्टी तय होती और पीरीयड लीव जैसे अधिकार नौकरी शर्तों में पहले से दर्ज होते। सैनटरी पैड्स का खर्च भी सरकार उठा रही होती, या हो सकता है वह मुफ्त ही मिला करता।

पीरियड्स के दौरान पुरुषों के खेलकूद में बेहतरीन प्रदर्शन के आकड़े दिखाए जाते। यह बताया जाता कि पीरियड्स के दौरान बेहतरीन प्रदर्शन बहुत बड़ी बात है। ‘उन दिनों’ सेक्स करने के बारे में वैज्ञानिक शोध प्रकाशित होने लगते और इसका प्रचार जोर-शोर से किया जाता। ‘उन दिनों’ के कमजोरी को दूर करने के लिए कई तरह की दवाईयां बाजार में उपलब्ध होतीं।  कार्य के हर क्षेत्र में महिलाओं को सहानभूति से देखा जाने लगेगा यह बताकर महिलाओं को कोई नैसर्गिक प्रतिभा क्यों नहीं दी भगवान ने?

समाजिक जीवन में दखल देने वाली हर संस्था इस बात का प्रमाण देने लगेगी कि मेनस्ट्रूएशन इस बात का प्रमाण है कि सिर्फ पुरुष ही ईश्वर की पूजा कर सकते हैं। यह जरूर होगा कि सुधारवादी उदार मत वाले इस बात पर जोर देगे कि महिलाएं और पुरुष समान हैं, इसलिए पुरुषों को जैविक आधार पर कोई प्राथमिकता नहीं मिलनी चाहिए। महिलाओं को इस पर कैसे प्रतिक्रिया करनी चाहिए इसकी ट्रेनिग हर सार्वजनिक और निजी संस्था में दी जाती।

स्त्री अधिकारों के लिए संघर्षशील समूह जरूर इस बात के लिए संघर्ष कर रहा होता कि महिलाओं को पीरियड से ईष्या करने की कोई जरूरत नहीं है। महिला का संघर्षशील समूह तब शायद पीरियड के कारण महिलाओं के साथ किए जाने वाले व्यवहार के खिलाफ मुखालफत करता।

इन सारी बातों को चंद शब्दों में समेटना चाहे तो शायद यदि पुरुषों में पीरीयड्स होता तो इसके लिए एक से एक शक्तिशाली तर्क देकर इसे महान प्रक्रिया सिद्ध किया जाता। महिलाएं चूंकि सत्ता के शक्ति संरचना के शीर्ष पर नहीं रही है कभी भी, इसलिए आधी आबादी को  कोई लाभ नहीं होता, वह स्वयं को हाशिए पर ही पातीं…

चित्र साभार : Jose Manuel Gelpi via CanvaPro 

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