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तराजू के दोनों पलड़े बराबर होते हैं तभी न्याय होता है, इसी प्रकार जब स्त्री और पुरुष दोनों के अधिकार बराबर होंगे तब समाज को बदलना पड़ेगा।
पितृसत्तात्मक समाज एक ऐसी गाड़ी जहाँ दो पहिए हैं और उसमें भी स्त्री हमेशा पीछे बैठती है। उसे चालक की भूमिका में नहीं देखा जाता। स्त्री-पुरुष गाड़ी के दो पहिए है, यह सोच ही ग़लत है।गाड़ी तो चार पहिए की होती है जब तक इस गाड़ी में बच्चे नाम के पहिए की बराबर से हिस्सेदारी नहीं होगी समाज की गाड़ी भी संतुलित नहीं चलेगी।
“विनय लगता है बिटिया की नौकरी लगने पर ही उससे मुलाक़ात होगी”, मैंने पूछा।
“अरे मैम! मैंने सोचा कि आप बिटिया की शादी की बात करेंगी।”
“विनय अब समय बदल चुका है, बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं, दोनों को आत्मनिर्भर होना चाहिए। लड़कों को भी घर के कामों को सिखाना चाहिए।”
“मैम आप भी क्या अजीब बात करती हैं!” कहते हुए वह हँस दिया। मैं सोचने लगी समाज सच में पूरी तरह से तो नहीं बदला।
विनय की ऐसी बातें उसके बचपन से सुने तथा देखे जाने वाले व्यवहार की झलक है जहां पुरुष ही घर की सत्ता का केंद्र है, निर्णायक भूमिका में है और माँ अनुकरण की। लड़की-लड़का एक बराबर तो उसकी सोच में ही नहीं है। ऐसी सोच का कारण हमारे समाज में पारिवारिक व्यवस्था का आधार पितृसत्तात्मक व्यवस्था है।
ऐसी व्यवस्था जहां घर का सबसे बड़ा पुरुष घर का मुखिया माना जाता है और उसका निर्णय प्रभावी होता है। जबकि स्त्री उसके निर्देशों का अनुकरण करती है। इसमें लड़की या स्त्री से ज्यादा लड़के या पुरुष को महत्व दिया जाता है और वही शक्ति का केंद्र होते हैं।
चाहे घर पर सबसे बड़ी महिला हो, पर व्यवहार में यह व्यवस्था अभी भी नहीं है कि उसकी बात मानी जाए। आज भी बेटे के पैदा होने पर सोहर गाना, केवल लड़के होने पर छठ पूजा करना पितृसत्तात्मक समाज की जड़ लड़के-लड़की के स्थान में अन्तर को दिखाता है।
इस व्यवस्था में अज्ञानता के चलते घर की बड़ी महिलाएं भी लड़कियों के प्रति नकारात्मक भूमिका निभाती हैं। हालाँकि इसमें भी परिवर्तन की बयार चली है पर प्रतिशत बहुत कम है।
कन्या भ्रूण हत्या, कन्याओं में कुपोषण, महिलाओं के शरीर का समय से पहले जर्जर होना पितृसत्तात्मक व्यवस्था की ही देन है जहां लड़कों को लड़कियों से ज्यादा महत्व दिया जाता है।बेटा ही पैदा करने पर जोर की भावना के कारण कई बार महिलाओं के प्रति शारीरिक और मानसिक हिंसा भी देखी जाती है। लड़के को ही कुलदीपक माना जाता है। आवश्यकता से अधिक गर्भाधान और प्रसव से अनेक महिलाएं काल के गाल में भी समा जाती हैं।
राजनीति और नीति निर्माण में महिलाओं की भूमिका का प्रतिशत अभी भी पुरुषों के समान नहीं है। कम वेतन, प्रोन्नति देर से देना, शारीरिक शोषण, सुरक्षा का डर, प्राथमिक कार्यों का समान वितरण ना होना, यहां तक की घर वालों का भी देर रात काम करने से मना करना, दूसरे शहर में जाकर शिक्षा या करियर आगे बढ़ाने से ऐतराज़ करना पितृसत्तात्मक समाज की परिणिति है। वेशभूषा स्वास्थ्य और करियर को लेकर लड़के और लड़की में असमानता आज भी समाज के एक बड़े वर्ग में पाई जाती है। ऐसे समाज कैसे बदलेगा?
तराजू के दोनों पलड़े बराबर होते हैं तभी न्याय होता है, इसी प्रकार जब स्त्री और पुरुष दोनों के अधिकार बराबर होंगे तभी समाज प्रगति करेगा।
मेघालय की 30% आबादी वाली गारो जनजाति जहां पर मातृ सत्तात्मक समाज का बोलबाला है, माइकल सेयम 30 सालों से इस व्यवस्था के विरुद्ध अपनी संस्था ‘मैथशाफ्रांग’ के माध्यम से संघर्ष कर रहे हैं। यानि व्यवस्था कोई भी हो पर एकपक्षीय सही नहीं। समाज को बदलना चाहते हैं तो संतुलन आवश्यक है।
समाज को बदलना है तो ऐसी व्यवस्थाएं आधुनिक समाज में किसी काम की नहीं। समाज का आधार बिना किसी जाति या लिंग के भेदभाव के मानव विकास होना चाहिए। हर व्यक्ति को अपनी योग्यता क्षमता के अनुसार आगे बढ़ने तथा सपनों को पूरा करने के लिए खुला आसमान होना चाहिए ना कि कोई लकीर खींचा हुआ कोना, फिर वे चाहे स्त्री हो या पुरुष।
मूल चित्र : A still from the film Thappad
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