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सोचने और बोलने वाली स्त्री इस समाज को नहीं भाती…

कुल मिलाकर आज के संदर्भ में सभी अपराधों और समाजिक ढांचे मे होने वाली हलचल की वजह सिर्फ एक लगती है - सोचने व बोलने वाली स्त्री

कुल मिलाकर आज के संदर्भ में सभी अपराधों और समाजिक ढांचे मे होने वाली हलचल की वजह सिर्फ एक लगती है – सोचने और बोलने वाली स्त्री

पिछले कुछ दिनों से कुछ ऐसे मसलों में उलझी रही जिनका कोई हल नहीं और जो हल है वो पीड़ादायक है। बहरहाल, जीवन मे अक्सर मुश्किल फैसले लेने होते हैं, जो लिए जाएंगे। इस समय पर और आसपास होने वाली सभी घटनाओं पर नज़र बादस्तूर रही।

इसीबीच कुछ किताबें पढ़ी और मिर्ज़ापुर देख डाली! इस पर विचार बाद में, फिलहाल तो बीते कुछ दिनों में हुई घटनाओं ने भीतर तक झकझोर रखा है। हम उस समाज और देशकाल में रह रहे हैं  जहाँ कोई अपराध ,अपराध नहीं माना जाता जब तक उसे सभी पलड़ों पर घिस न लिया जाए।

धर्म, जाति से निकल कर अपराध सत्ता की कसौटी पर आते हैं। अगर अपराधी किसी पार्टी विशेष से ताल्लुक रखते है तो वो अपराधी नहीं रह जाते। अगर वो स्वयं ताल्लुक नहीं रखते, तो उस शहर उस राज्य में सत्ताधारी दल कौन सा है इस पर भी बहुत कुछ निर्भर है।

धर्म का खास महत्व है। शोषित और शोषण करने वाले की जाति भी पलड़ों पर तौली जाती है।

अगर लव जिहाद जैसा कोई एंगल तो उस पर कार्यवाही अलग तरह से होगी और अगर ऑनर किलिंग की सुगबुगाहट है तो अलग तरह से कारवाही की जाएगी। कुल मिला कर अपराधी के अपराध पर ही निर्भर नहीं करता, बाकी सभी कसौटियां भी महत्वपूर्ण हैं।

इन सबके बीच एक बिंदु समान है या यूं कहें कि अपराध के पृथ्वी की धुरी एक है – स्त्री। ये जितने भी अपराध होते हैं, उनका केंद्र स्त्री होती है, जिस पर दमन कर पुरुष को अपने पुरुषत्व पर भरोसा हो जाता है।

अगर इस मानसिकता को देखें और कुरेदने जाएं तो पता चलता है स्त्री को समाज वस्तु से अधिक कभी नहीं समझता था। एक वस्तु जिसे बाँट दिया जाए जिस पर बाज़ी खेली जाए, और फिर अगर वो प्रतिकार करे तो रक्त रंजित युद्ध का कारण भी माना जाए।

बहरहाल ये तो उस काल की बात हुई और बहस से ज्यादा जीवनदर्शन और विश्वास से जुड़ी कथा है। किन्तु स्त्री को जागीर या वस्तु की तरह देखना, जीतना या लूटना इतिहास के कई युद्धों में दर्ज है। समय साक्षी है कि स्त्री को जीतना युद्ध का कारण बना। युद्ध रोकने के लिए सन्धि प्रस्ताव में स्त्री की भेंट चढ़ी और महान राजाओं के महानता के किस्सों में कहीं रानी की महानता का ज़िक्र न हुआ।

तो कुल मिलाकर स्त्री जड़ वस्तु में तौली जाए इसका प्रमाण और इसकी प्रेरणा ऐतिहासिक है।
अब अगर नए युग या बदलते समय मे देखे तो तमाम लोग कहेंगे कि स्थिति इतनी बुरी भी नहीं जैसा कि बोध हो रहा है।

सही है, स्त्री सजग हुई, अपने अधिकारों के प्रति अपनी सोच के प्रति और अपने अस्तित्व के प्रति। वो आने जीवन को मात्र व्यय करने में नहीं बल्कि जीने में विश्वास करने लगी। उसे अपनी सोचने समझने की शक्ति पर भी विश्वास होने लगा और यही सबसे बड़ी भूल हो गयी।

अब तक जड़ सम्पत्ति की तरह मूक वो अपनी किस्मत का फैसला दूसरों के हाथों में सौंप देती थी । कहीं किसी ने आवाज़ बुलंद की, कहीं कोई सोचने वाली बोलने वाली स्त्री हुई तो उसे इतिहास के पन्नो में इतना नीचे दबा दिया गया कि वो हम तक और हम उस तक न पहुँच पाएं।

कुल मिलाकर आज के संदर्भ में सभी अपराधों और समाजिक ढांचे मे होने वाली हलचल की वजह सिर्फ एक – सोचने व बोलने वाली स्त्री। सोचे अगर तो स्वयं में सोचे, मुखर न हो। बोले अगर तो हाँ बोले, क्योंकि पुरुष को ना सुनाई नहीं देता।

इस कमी की वजह पौरुष नहीं हो सकता क्योंकि पौरुष कमज़ोर नही होता,असन्तुलित नहीं होता।
किसी सशक्त स्त्री से विमर्श और उसके विचार सुनने की हिम्मत मात्र एक सशक्त पुरुष ही कर पाता है। वो वाद विवाद, प्रतिवाद सब करता है किंतु, चरित्र हनन तक नहीं पहुँचता क्योंकि वो मात्र कमज़ोर पुरुष की निशानी है।

जब कुछ न कर पाने की बौखलाहट होती है तब पुरुष स्त्री पर अपनी क्षमता से कोई दमन का हथियार उपयोग में लाता है चाहे वो शारीरिक चोट हो, अथवा मानसिक। हमारे समाज मे सभी प्रचलित गालियां इसका प्रमाण है।

एकल स्त्री को संशय की नज़र से देखना इस समाज के निम्नस्तरीय सोच का सबूत है। तो अपराध के बढ़ने की वजह साफ है। आधी आबादी ने आँखे खोल, परत दर परत समाज को खंगालना शुरू किया है और भीतर तक सड़ी हुई सोच के दलदल पर बसा ये सुंदर बाग यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ दरक जाता है और हो जाता है कोई कांड, बलात्कार का, एसिड फेंक देने का,गला रेत देने का शारीरिक मानसिक शोषण का।

समाज सही, समाज के कायदे सही बस आधी आबादी की सोच गलत। सोचने की क्षमता गलत और ‘ना’ बोलने की हिम्मत गलत। लेकिन कभी कभी कुछ सही करने के लिए गलत करना पड़ता है। तो दलदल के कीचड़ की सफाई में वक़्त भी लगेगा और बदबू भी आएगी।

हो सकता है स्वयं के कुछ आभूषण इस गंदगी को साफ करते हुए फिसल जाएं लेकिन शायद आने वाली पीढ़ी, या उसकी अगली पीढी बेख़ौफ़ ‘ना’ कह पाएगी और पुरुष ‘ना’ सुनने की हिम्मत जुटा पायेगा। जितनी जी है, जैसी जी है, उसे मत सोचिए। उस पुरुष को बदलिए जिसे सींच रहीं हैं, उस स्त्री को बदलिए जिसे पोषित कर रही हैं।

तो आवाज़ उठाते रहिये, सही और गलत को बांट लिखते रहिये, विचार करिए और मुखर रहिये। एक आवाज़ शायद सुनाई न दे तो मिल कर बोलिये – सोचेंगे, बोलेंगे, लिखेंगे।

चित्र आभार : triloks from Getty Images Signature, via Canav Pro

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Sarita Nirjhra

Founder KalaManthan "An Art Platform" An Equalist. Proud woman. Love to dwell upon the layers within one statement. Poetess || Writer || Entrepreneur read more...

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