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विदा होती हुई बेटियां अपने घर के आँगन की मिट्टी से, अपनी जड़ों को हौले से कुछ यूं उखाड़ती हैं कि उस मिट्टी को भी स्वयं के दरकने का अहसास नहीं हो पाता!
विदा होती हुई बेटियां,अपने घर के आँगन की मिट्टी से,अपनी जड़ों को हौले से कुछ यूंउखाड़ती हैं कि उस मिट्टी को भीस्वयं के दरकने काअहसास नहीं हो पाता!
विदा होती हुई बेटियां,मायके और ससुराल के बीच,फासला तय करते, रास्ते भरसूख कर मरती अपनी जड़ों को,आँसुओं से लगातार सींचकर,उनमें जीवन का प्रवाह संचारित करआखिरकार उन्हें एक नितांत अंजानअजनबी ज़मीन में हौले से रोप देती हैं!
वो अंजान जमीन जिस पर,विभिन्न आँगनों से आईऔर भी कई बेटियों की पौधअब हरी-भरी बेल बन करफल और फूलों से लदी,आँगन में मुस्कुराकर लहलहा रही हैं!
इन बेलों को, इस नई पौध की जड़ों को,अपने आँगन की जमीन पर पकड़ बनाकरइसकी फलने फूलने में मदद करनी होगी!
और इस निरंतर प्रयास से एक दिनऐसा अवश्य आएगा जबविदा होती बेटियों को अपनी विदाई पर,अपनी जड़ों को उखाड़ कर लाते वक्तमायके और ससुराल के बीच का फासलातय करते, रास्ते भर अपने आँसुओं सेइन्हें सींचने की कोई आवश्यक्ता नहीं होगी!
क्योंकि उन्हें विश्वास होगा इस नई जमीन की मिट्टी पर,जो अंजान और अजनबी हरगिज़ नहीं होगी!
मूल चित्र : VikramRaghuvanshi from Getty Images Signature via Canva Pro
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