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जब मेरी माँ अकेली औरत होकर हम बहनों को बेटों की तरह पाल सकती है, तो हम बहनें क्यूँ नहीं उनको अंतिम विदाई दे सकते हैं?
सुबह के पांच बजे फ़ोन की आवाज़ से नींद खुली। इतनी हाड़ कंपकंपाती ठण्ड में कौन इतनी सुबह फ़ोन कर रहा है, वो भी मोबाइल के ज़माने में लैंड लाइन पर। थोड़ी घबराहट भी होने लगी सोच कर। जल्दी से रजाई से निकल हॉल में गई।
“हैलो? कौन?”
दूसरी तरफ से जो ख़बर आयी सुन के वहीं बैठ गई। तब तक विनय भी आ गए और पूछने लगे, “क्या हुआ ऋचा? किसका फ़ोन था? इस तरह क्यूँ बैठी हो?”
“रमा जीजी नहीं रही”, बस इतना ही बोल पायी मैं। सदमा विनय को भी लगा। आनन फानन में हमने कपड़े बदले और गाड़ी से रमा जीजी के घर की तरफ चल दिये। रमा जीजी, विनय की दूर की बहन थी। जब नई नई शादी कर इस शहर में आये तो पता चला रमा जीजी भी यही रहती हैं।
“बहु किसी दिन मिल आना रमा से भी”, जब माँजी ने कहा तो हम दोनों एक रविवार गए उनसे मिलने। रमा जीजी, सुधीर जीजाजी और उनकी दो प्यारी बेटियां, यही परिवार था उनका और हम दोनों कब उस परिवार में चीनी की तरह घुल गए पता ही नहीं चला।
सारे तीज त्यौहार एक साथ होने लगे। सगी नन्द ने कभी इतना प्यार इतना अपनापन नहीं दिया था जितना रमा जीजी से मिला। मेरे दोनों बच्चे के जन्म के समय जीजी मेरी माँ बन मेरी सेवा की थी। सब कुछ बहुत अच्छा था तभी सुधीर जीजाजी अचानक एक एक्सीडेंट में चल बसें सब कुछ इतना जल्दी हुआ की कोई कुछ समझ ही नहीं पाया।
रमा जीजी के वैधव्य रूप देख ह्रदय चीत्कार उठता। अपनी बेटियों रूपा और अंजू के लिये संभालना था उनको और वो संभली भी। जीजाजी के ऑफिस वाले अच्छे थे, जल्दी सारी कागज़ी करवाई करवा जीजी की नौकरी लगवा दी।
फिर से शुरू हुई एक नई जिंदगी हम सब की। बहुत बातें हुई उनके बारे में रिश्तेदारी में कि कितनी जल्दी अपने पति का ग़म भूल नौकरी पे जाने लगी। पर किसी ने जीजी से ये नहीं पूछा कुछ जरुरत हो तो बताना। यही समाज है हमारा, यहाँ ग़म में कोई नहीं पूछता, सब सिर्फ लांछन लगाने को तैयार रहते है ख़ास कर एक अकेली औरत पर।
स्वाभिमानी जीजी ने कभी हमसे भी मदद नहीं ली थी लेकिन दोनों बच्चों के बहाने तीज त्यौहार हमसे जो बनता हम उनके लाख इंकार करने पर भी करते। समय के साथ सारे बच्चे बड़े हो गए और रूपा अंजू की शादी भी हमने अच्छे से कर दी।
बहुत बार हमने जीजी से कहा, “अब आप हमारे साथ रहो जीजी।”
“नहीं रे! तेरे जीजीजी ने बहुत शौक से ये मकान बनवाया था। इसे नहीं छोड़ सकती मैं”, ये कह जीजी मना कर देती और हम चुप रह जाते।
गाड़ी एक झटके से रुकी और मेरे विचार भी घर के बाहर भीड़ लगी थी अंदर से अंजू और रूपा के रोने की आवाज़े बाहर तक आ रही थी। मुझे देखते दोनों बहने लिपट रोने लगी। मेरी भी अब तक रुकी रुलाई जीजी के पार्थिव शरीर को देख फूट पड़ी। आज कई रिश्तों की मौत हुई थी रमा जीजी के साथ।
तभी विनय आ कर फुसफुसाए, “सुनो ऋतू बाहर सब बातें कर रहे हैं कि जीजी को आग कौन देगा?” मैं उनका चेहरा देखने लगी और सोचा कि जिस औरत ने सिर्फ खुशियाँ बाँटी थी उम्र भर उसके लिये आग देने वाला ढूंढा जा रहा था?
रूपा और अंजू ने भी सुना और दोनों बहनों ने आपस में विचार कर विनय से कहा, ” मामाजी हम देंगे आग।”
“बेटा मैं भी भाई हूँ। मैं दूंगा”, विनय ने रोती हुई अंजू और रूपा से कहा।
अभी हम बात कर ही रहे थे की रमा जीजी की नन्द और देवरानी आ गए, “ये क्या बात हुई लड़कियाँ कब से अंतिम क्रिया करने लगीं ? अरे हमारे भी तो लड़के हैं। उनमें से कोई दे देगा आग और क्या।”
“नहीं बुआ! माँ की अंतिम क्रिया हम बहनें ही करेंगी। याद है हमें जब पापा के अंतिम क्रिया में चाचा ने आग दिया था, उसके बाद जब भी मौका लगा आप सब ने एहसान जतलाया। बेटा ना होने का ताना दे मेरी माँ को कितना रुलाया आप सब ने? लेकिन इस बार नहीं।
जब मेरी माँ अकेली औरत होकर हम बहनों को बेटों की तरह पाल सकती है, इस मुकाम पे पंहुचा सकती है तो हम बहने क्यूँ नहीं उनको अंतिम विदाई दे सकते हैं? हम नहीं मानते इन कुरीतियों को और अगर आपको कोई समस्या हो तो आप जा सकते है हमारे मामा मामी हैं हमारे साथ।” दोनों बहनों ने जब हाथों में हाथ डाले दृढ़ स्वर में अपनी बुआ और चाची से कहा तो उन्होंने खिसकने में ही अपनी भलाई समझी।
हमने अपनी प्यारी रमा जीजी को आंसुओं के साथ अंतिम विदाई दी। दोनों बहनों ने अपनी माँ की अर्थी को कन्धा दिया और आग भी। दोनों बहनों के इस साहसी काम को कुछ लोगों ने सराहा तो कुछ ने आलोचना की। लेकिन अंजू और रूपा ने एक शुरुआत की समाज को इन कुंठित कुरीतियों की बेड़ियों से आजाद करने की।
मूल चित्र : ziprashantzi from Getty Images, Canva Pro
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