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लेकिन माँ का प्यार, पिता के दिए शब्दों के ज़ख्म नहीं भर सका। उस दिन के बाद से, ऋषभ अपने पिता मोहन के सामने बहुत कम जाता।
ऋषभ बहुत ही समझदार और होनहार लड़का था। लेकिन हमेशा अपने पिता से डरा-डरा रहता था। उसके पिता मोहन का स्वभाव बहुत गुस्सैल था। गुस्सा चाहे ऑफिस का हो, रिश्तेदारों का या घर का। सारा गुस्सा मोहन, अपनी पत्नी मीरा और बेटे ऋषभ पर ही उतारता था। मीरा ने बहुत बार समझाने की भी कोशिश की कि ऋषभ आपके इस व्यवहार से, आपसे दूर होता जा रहा है। पर मोहन के पास में ना तो इतना समय था और ना ही उसे यह समझने की कोई जरूरत लगती थी।मोहन कहता, “यह मेरा घर है, और यहाँ रहना है तो सबको मेरी बात सुननी ही होगी। जिसे पसंद नहीं वो यहाँ से जा सकता है।”
समय गुजरता गया। ऋषभ पंद्रह बरस का हो गया था। जब उसके बोर्ड एग्जाम के रिजल्ट आए तब भी मोहन ने उसे बहुत डाँटा। जबकि वह 90% अंक लेकर पास हुआ था। मोहन का कहना था , “और ज्यादा अंक क्यों नहीं आए?” ऋषभ रोते हुए अपने कमरे में चला गया।
किशोरावस्था (टीन-एज), उम्र का एक ऐसा पड़ाव होती है, जब बच्चे अंतर्द्वंद से गुजर रहे होते हैं।उस समय उन्हें अपने माता-पिता का भरपूर प्यार और सहयोग चाहिए होता है। पिता के स्वभाव से ऋषभ अंदर तक टूट गया और पिता के प्रति जो भावनात्मक लगाव था, वह समाप्त हो गया। उसकी माँ मीरा ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की। लेकिन माँ का प्यार, पिता के दिए शब्दों के ज़ख्म नहीं भर सका। उस दिन के बाद से, ऋषभ अपने पिता मोहन के सामने बहुत कम जाता। समय यूँ ही गुजरता गया, पिता पुत्र के बीच की दूरी बढ़ती गई।
ऋषभ ने पढ़ाई पूरी करके एक अच्छी कंपनी में, लंदन में जॉब शुरू कर दी। मोहन ने उसके परदेस जाने का खूब विरोध किया। पर ऋषभ ने एक न सुनी। मोहन अब चाहता था कि ऋषभ, उसके साथ बात करे, सलाह ले; पर ऋषभ मीरा से ही बात करके फ़ोन रख देता। घर भी काम की वजह से नहीं आने का बहाना बनाता। हालांकि मीरा से उसने लंदन आने के लिए बहुत बार ज़िद की। पर मोहन को सिर्फ हाँ-ना में जवाब देकर फोन रख देता।
तीन बरस बाद मीरा चल बसी। ऋषभ घर आया और खूब रोया। मोहन ने उसे, ढाँढस बंधाते हुए कहा, “बेटा चिंता मत कर, मैं तेरे साथ हूं। अब हम बाप बेटे एक दूसरे का सहारा हैं।” ऋषभ बिफरते हुए बोला, “जब बचपन में मुझे आपके साथ की जरूरत थी, आप के पास सिवाय डाँटने- फटकारने के, मेरे दिल और स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने के, मेरे लिए और कुछ नहीं था।अब मैं अपने पैरों पर खड़ा हूँ और मुझे आपके साथ की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं जा रहा हूँ, हमेशा के लिए, अब आप अपने इस घर में अकेले, अपना शासन चलाइए।” यह कह कर ऋषभ वहाँ से चला गया। मोहन आज सचमुच अपने आप को बहुत अकेला महसूस कर रहा था। उसने मीरा की तस्वीर को देखकर कहा, “काश मैं समय को वापस ला पाता, काश। ”
मैं यह नहीं कहती कि ऋषभ ने जो किया वह सही है पर गलती हमेशा बच्चों की ही नहीं होती, कभी-कभी माँ- बाप भी गलत हो सकते हैं। हम में से कई लोग कहते हैं सब बच्चों के लिए ही तो कर रहे हैं परंतु यकीन मानिए, जब आप अपने बच्चे के साथ कुछ समय के लिए खेलते हैं तो वह पल आपके लिए भी और बच्चे के लिए भी बेशकीमती होते हैं। आपके दिए हुए कीमती उपहारों से भी ज्यादा मूल्यवान और यादगार होता है, आपका वह समय जो आपने बच्चे को दिया। इससे माता पिता और बच्चों में आपसी संवाद भी बना रहता है।
मूल चित्र : Movidagrafica Barcelona via Pexels
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