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कमला भसीन इंटरव्यू में कहती हैं, प्रकति ने बनाया 'सेक्स', समाज ने बनाया 'जेंडर'! हम समाज को बदलना चाहते हैं, कुदरत को नहीं!
कमला भसीन इंटरव्यू में कहती हैं, प्रकति ने बनाया ‘सेक्स’, समाज ने बनाया ‘जेंडर’! हम समाज को बदलना चाहते हैं, कुदरत को नहीं!
कमला भसीन भारत की सबसे प्रसिद्ध विकासवादी, नारीवादी कार्यकर्ता, सामाजिक वैज्ञानिक, कवि और लेखिका हैं। वे ऐसी सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो सामाजिक लिंग, शिक्षा, मानवीय विकास जैसे मुद्दों पर सूक्ष्म समझ रखती हैं। कमला जी महिलाओं के अधिकारों, मानव विकास, शांति और लोकतंत्र के क्षेत्र में 48 वर्षों से काम कर रहीं हैं। वे वर्तमान में संगत के साथ काम करती हैं, जो दक्षिण एशियाई नारीवादियों का नेटवर्क है और वन बिलियन राइजिंग अभियान के लिए दक्षिण एशिया कॉर्डिनेटर भी हैं।
वाकई कमला भसीन वो बिंदास महिला हैं, जो इस दुनिया को एक अलग ही चश्मे से देखती हैं। इनकी खासियत है कि ये इतने सरल तरीके से अपनी बातें समझाती हैं कि कोई भी समझ सकता है। इनकी बेबाक बातें समाज को आइना दिखाती हैं और ऐसे मुद्दों पर गहरी चोट करती हैं, जिनसे समाज ग्रसित है।
कमला भसीन से बात करने के बाद मुझे भी कई सामाजिक मुद्दों पर एक अलग नज़रिया मिला। और बहुत कुछ नया सीखा। आप सभी के साथ कमला भसीन के साथ हुआ ये इंटरव्यू साझा कर रहे हैं, जिसे पढ़ने के लिए शायद आप भी उत्सुक होंगे। इसे आप एक बार ज़रूर पढ़े…
कमला भसीन के माँ पिताजी दोनों वेस्ट पंजाब से हैं जो बाद में पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। पिता जी डॉक्टर थे, उन्होंने पार्टीशन से पहले नौकरी राजस्थान में ले ली थी। तो हम यहीं रहते थे और मेरे बड़े भाई बहन भरतपुर जिले के गाँवों में पैदा हुए। मेरी क़िस्मत से मेरी माँ मेरी बुआ की शादी में पंजाब गयी हुई थी तो मेरा जन्म वहां के गाँव शहीदांवाली में हुआ और फिर मैं राजस्थान में पली बढ़ी हूँ। अब मेरा गांव पाकिस्तान में चला गया है। तो मेरे एक नहीं दो दो देश हैं। एक मेरी मातृ भूमि और एक जन्म भूमि और दोनों के लिए ही मेरे मन में बहुत इज़्ज़त है। मैं चाहती हूँ कि अब दोनों में दोस्ती हो जाये और लड़ाई खत्म हो जाये।
पिताजी सरकारी डॉक्टर थे और उनका हर 3 साल में अलग अलग गाँवों में तबादला होता था। मैं वहीं के सरकारी स्कूल में पढ़ी हूँ। मेरी पहली पाठशाला का नाम था – ‘तांगेवाले अड्डे की पंडित जी की पाठशाला।’ फिर आगे की 10 वी तक की पढ़ाई कोटा जिले में करी। उसके बाद जयपुर के महारानी कॉलेज से प्री यूनिवर्सिटी और फिर बी ए करा। जयपुर में हम चार भाई बहन एक कमरा लेकर रहते थे।
आगे कमला भसीन इंटरव्यू में बताती हैं कि चूँकि मैं गांव के स्कूल से आयी थी और मुझे कुछ भी नहीं आता था और खास दिलचस्पी भी नहीं थी। शुरू से ही खेलने कूदने का शौक था और मेरे माँ बाप ने कभी ये नहीं कहा कि तू लड़की है तो बाहर नहीं खेलेगी। मुझे बचपन से कुछ भी लड़कियों जैसा पसंद नहीं था। न ही लड़कियों के खेल न खेलना। तो मैं बचपन से ही गिल्ली डंडा खेलती और पेड़ों पर चढ़ती। और उसी वक़्त देख लिया था कि और लोगो की बेटियों को बाहर नहीं आने दिया जाता। मैं अपने आत्म विश्वास के साथ खूब खेला करती थी। कॉलेज के समय में भी हर खेल खेलती थी और जनरल कैप्टन थी।
उसके बाद राजस्थान यूनिवर्सिटी से एम ए करा। फिर वहां पर मुझे दो जर्मन महिलाएं मिली। तो उन्होंने मुझसे कहा कि अगर तुम आगे जर्मनी जाकर पढ़ना चाहती हो तो हम तुम्हारी मदद कर सकते हैं पर तुम्हें फ़र्स्ट डिविजन लानी होगी। फिर मैंने कोशिश करी और मुझे 61% आये। फिर मैंने उन्हें कहा कि मेरे माँ बाप के पास तो पैसे नहीं है। तो उन्होंने मेरा टिकट खरीद कर दिया और हम लोग पानी के जहाज़ से गए थे और मैं जर्मनी पहुंच गयी।
वहां 2 साल मैंने सोशियोलॉजी पढ़ी। और ये बस मैं अपने तर्जुबे के लिए गयी थी। फिर मुझे वहां नौकरी ऑफर हुई। मगर मैंने 11 महीने बाद वो छोड़ कर वापस इंडिया आ गयी। उसके बाद मैंने बहुत सोचा। और अंत में मैंने गाँवों में स्वयंसेवी संस्था के साथ काम करने का फैसला लिया। मैंने 1972 में सेवा मंदिर, उदयपुर जॉइन किया। हज़ारों रुपयों की नौकरी छोड़ कर मैंने 250 रूपये की नौकरी की। जबकि उस समय घर वालों को भी पैसे की ज़रूरत थी। लेकिन मैंने कह दिया कि मैं पैसे के लिए नौकरी नहीं करना चाहती। मुझे यहीं काम करना है।
मैं ऐसा कुछ नहीं कह सकती कि उस समय मेरे दिल में ऐसी कोई प्रेरणा रही होगी। बस मुझे इतना मालूम था कि मैं पैसे के लिए नौकरी नहीं करूंगी। अब जब मैं सोचती हूँ कि क्या प्रेरणा रही होगी तो शायद वो ये होगी कि नया देश बना था और मन में ये इच्छा थी कि अब हम उस देश को आगे ले जाने में मदद करें।
उस देश में गरीब लोग (इन्हें मैं शोषित जाति कहती हूँ।) भी रहते हैं और ये साफ़ दिख रहा था कि उन तक मदद नहीं पहुंच रही है। जो भी हो रहा था वो बस सो कॉल्ड ऊँची जाति (जिन्हें मैं शोषक जाति कहती हूँ।) के लिए हो रहा था। ये गांव में जाकर और साफ़ हो गया था और सारी स्कीम भी गांव में बड़े किसानों के पास जा रही थी क्योंकि भ्रष्टाचार और चाचा भतीजावाद फैला हुआ था। उस वक़्त ये भी सोच थी कि अगर गांव के अमीर आगे बढ़ेंगे तो गरीब अपने आप आगे बढ़ जायेंगे। जो की बाद में पता चल गया कि गलत सोच थी अमीर और गरीब का फर्क बढ़ता चला गया।
एक और प्रेरणा हो सकती है, महात्मा गाँधी जैसे लोगों की। उन्होंने जैसे पिछड़े, सबसे पीछे धकेले हुए लोगों ( मैं उन्हें पिछड़े हुए नहीं कहती हूँ क्योंकि उन्हें कई तरह से शोषक लोगो के द्वारा पीछे धकेला गया है।) के लिए काम किया। जो फर्क मैंने गाँवों में देखा था अब वो मुझे समझ आने लगा था। और फिर मैंने लिखना शुरू कर दिया और चीज़ों को बारीकी से समझने लगी। तो मेरी यही सब प्रेरणा रही होगी।
कमला भसीन का इंटरव्यू में कहना है कि सबसे पहली चीज़ तो गांव और शहर में फ़र्क करना मुश्किल है क्योंकि गांव और शहर दोनों में अमीर और गरीब रहते हैं। तो मेरे हिसाब से गांव और शहर से फ़र्क नहीं पड़ता है। फर्क पड़ता है कि आप गरीब हैं या अमीर। गांव में जो शूद्र, मज़दूर या आदिवासी औरतें हैं वो गांव की ब्राह्मण औरतों से बिल्कुल अलग हैं। मेरी नज़र में और समझ में जो आदिवासी औरत है वो कई ज़्यादा आज़ाद है, उसको घुंघटे में नहीं रहना पड़ता, उसको बाहर जाकर कमाना है। जबकि अमीर औरतों को बाहर नहीं जाना पड़ता क्योंकि उनके पति इतना कमा लेते हैं। जो गरीब औरतें हैं उन्हें तो जीने के लिए मजदूरी करनी ही पड़ती है। केवल मिडिल क्लास और अपर क्लास औरतें हैं जो हाउसवाइफ का रोल अदा कर सकती हैं। तो जो गरीब औरते हैं उन्हें तो मर्दों के साथ सड़क पर नौकरी करनी है। वो घूंघट में नहीं रह सकती हैं। जबकि अमीर औरतें दो फुट घूंघट लेकर घर से निकलती हैं। तो ये फर्क है।
औरत और मर्द में फर्क हम ने जर्मनी में भी देखा और इंडिया में। पितृसत्ता हर देश में है बस उसकी शक्ल अलग हो सकती है। जैसे जर्मनी में सती प्रथा, दहेज़ प्रथा नहीं थी। वही बलात्कार, औरत मर्द के वेतन में फर्क आदि वहां भी है। और धीरे धीरे कई जल्दी फर्क आ गया कहीं अभी भी आ रहा है।
(जब कमला भसीन जी ने मुझसे जेंडर का हिंदी में अर्थ पूछा तो मैं भी एक मिनट के लिए सोच में पड़ गयी और वही गलत ज़वाब दिया जो सालों से सुनते आये हैं।)
कमला भसीन इंटरव्यू के दौरान समझाती हैं कि सेक्स हमारी बायोलॉजिकल/ शारीरिक परिभाषा है। जैसे मैं मादा हूँ और मेरे योनि, वक्ष और मेरे पास बच्चे दानी है। एक पुरुष के पास न ही बच्चेदानी है और न वक्ष। उसके पास लिंग है और उसके चेहरे पर अधिक बाल आएंगे। सिर्फ ये कुछ फर्क हैं नर और नारी में। इसके अलावा 95% हमारे शरीर एक जैसे हैं। प्रकति ने ये भेद केवल प्रजनन के लिए बनाया है। पुरुष प्रजनन नहीं कर सकता है, वो सिर्फ एक मिनट का काम कर सकता है, मुझे प्रग्नेंट बनाने का। और कोई भी भेद कुदरत ने नहीं बनाया है। ये है मेरी शारीरिक परिभाषा – मेरा सेक्स।
लेकिन जैसे ही मैं पैदा होती हूँ घरवाले रोने लगते हैं। मेरा लिंग नहीं है, तो रोने लगते हैं। फिर मुझे खाना कम देते हैं, मुझे बाहर नहीं जाने देते हैं, मुझसे घर के काम कराते हैं। और ये मेरी सामाजिक परिभाषा हैऔर इसे कहते हैं जेंडर।
जेंडर की परिभाषा इसलिए आयी है क्योंकि हम सामाजिक चीज़ को प्राकृतिक चीज़ से बिलकुल भिन्न करके रख दें। तो हम ये जेंडर की अवधारणा इसलिए लेकर आये क्योंकि समाज हमको उल्लू बना रहा था। अगर मैं सीटी बजाती हूँ तो मेरी माँ कहती है, “देख कमला तू सीटी नहीं बजा सकती।” लेकिन जब हमारे पास ये शब्द नहीं थे कहने के लिए कि “माँ मैं सीटी सेक्स की वजह से नहीं बजा सकती या जेंडर की वजह से?” अब हम पूछ सकते हैं कि मैं रात को सेक्स की वजह से नहीं जा सकती या जेंडर की वजह से। क्या रात होते ही मेरे पैर गल जाते हैं?या समाज ने ऐसा ढांचा बना रखा है? मुझे प्रॉपर्टी मेरी योनि की वजह से नहीं दी जाती या समाज की परिभाषा की वजह से? तो जो प्रकति ने बनाया वो सेक्स है और जो समाज ने बनाया वो है जेंडर।
तो जब मैंने ये शब्द सुने तो मैंने सोचा ये शब्द अंग्रेजी में तो ठीक है लेकिन मैं हिंदी में क्या कहूंगी इनको? तब मैं यूनाइटेड नेशंस में काम करती थी और मैंने तब पहली बार सुना था कि ये जेंडर और सेक्स क्या होते हैं। फिर मैंने कहा कि अगर हम दोनों को लिंग कहेंगे तो सत्यानाश करना होगा। और हमारे हिंदी में सेक्स, जेंडर और पेनिस के लिए भी एक ही शब्द है। तो मैंने कहा की हम क्यों नकल करें?
हम एक ही शब्द को क्वालीफाई कर देंगे। तो हम सेक्स को कहेंगे प्राकृतिक लिंग और जेंडर को हम कहेंगे सामाजिक लिंग। और फिर लोग कहते क्या जेंडर को बार बार सामाजिक लिंग लिखेंगे तो मैंने कहा नहीं आप सालिंग/ सामाजिक लैंगिक कहिये। अब इन शब्दों में ही परिभाषा निहित है और ये सिर्फ विशेषताएं नहीं है। ये सब कुछ है। मैं खड़ी कैसे होती हूँ, मेरे बाल कैसे हैं। मेरे अधिकार क्या होंगे। हर चीज़ की परिभाषा है, अधिकारों की, कर्तव्यों की और यहां तक की अपनों की भी। तो ये शब्द लाया गया इस भरम को दूर करने के लिए की भगवान ने हमको नीचा बनाया, भगवान ने हमको कमतर बनाया।
कहते हैं तू औरत है, तू औरत है। तो हमने कहा चलो हम औरत को टुकड़ों में करके देख लेते हैं। एक तो मेरा शरीर है और एक है समाज की थोपी हुई चीज़ें हैं। मेरे शरीर से मुझे कोई दिक्कत नहीं है। मुझे कुदरत ने एक ताकत दी है जो मर्दों को नहीं दी है। मेरा शरीर ताकतवर है इसलिए पूरी दुनिया में पितृसत्ता आने से पहले मेरी पूजा होती थी। क्योंकि पुरुष बच्चा पैदा नहीं कर सकता और मैं माँ हूँ। आज भी हिंदुस्तान में देवियों की पूजा होती है हमारी मातृ शक्ति के कारण। पहले तो प्रकति की पूजा होती थी क्योंकि वो पैदा करती है और हमारी क्योंकि हम पैदा करते हैं। मर्दों की पूजा नहीं होती थी। मर्दों की पूजा पितृसत्ता आने के बाद होनी शुरू हुई है। ये ज़बरदस्ती, बनाई हुई और थोपी हुई चीज़ें हैं जिसका प्रकति से कोई लेना देना नहीं है। तो हमें प्रकति से कोई शिकायत नहीं है। क्योंकि प्रकति ने हम में फर्क बनाया है नीचा नहीं बनाया है।
प्रकति भेद बनाती है, समाज उसे भेद भाव में बदल देता है। हम नारीवाद सेक्स इक्वलिटी की बात नहीं करते हैं, हम जेंडर इक्वलिटी (सामाजिक लिंग) की बात करतें हैं। तो जेंडर का मतलब न ही समानता है और न ही असमानता। जेंडर का मतलब है समाज द्वारा दी गयी लड़के लड़की की परिभाषा। अब वो परिभाषा समानता की भी हो सकती है और असमानता की भी। आज समाज में ये असमानता की है। तो हम उसको बदलना चाहतें हैं। हम समाज को बदलना चाहते हैं। कुदरत को नहीं बदलना चाहते है।
जेंडर का असर सिर्फ औरत पर नहीं होता है, मर्दों पर भी होता है। उनको भी बताया जाता है कि उनको क्या पहनना है, उनको नौकरी करनी है, उनको माँ बाप की रक्षा करनी है। वो कोई भी बदतमीज़ी कर सकते हैं। तो लड़कों को भी लड़कियों की तरह एक बॉक्स में डाला जाता है बस कुछ चीज़ों में लड़को का बॉक्स बड़ा है वहीं कुछ में और भी छोटा। वो रो नहीं सकते हैं, वो हर तरह के कपड़े नहीं पहन सकते हैं, वो अपने पिताजी से ये नहीं कह सकते के कि मुझे नौकरी नहीं करनी है।
तो जेंडर दोनों को बॉक्स में डालकर इंसान नहीं बनने देता है। जेंडर आदमी को रोने नहीं देता, औरत को हसने नहीं देता। उसे भी अधूरा कर दिया, मुझे भी हसने नहीं देता। हम कहते हैं हमें डिसाइड करने दो कि हमे क्या करना है। अगर बचपन में मेरे माँ पिताजी ने मुझे बाहर नहीं खेलने दिया होता तो मैं टूटी हुई होती, क्योंकि उन्होंने मुझे इंसान नहीं बनने दिया, लड़की बनाकर छोड़ दिया।
जेंडर पावर (सत्ता) ताल्लुख़ रखता है। जेंडर लड़को को सत्ता देता है और पुरुषों को सत्ता दे देता है। जेंडर आया क्यों? अगर पितृसत्ता नहीं होती तो जेंडर नहीं होता। ठीक वैसे ही जैसे जातिवाद नहीं होता तो शूद्र नहीं होते हैं। तो प्रॉब्लम जेंडर नहीं है। प्रॉब्लम है पितृसत्ता जो कहती है कि पुरुष उत्तम है। ये एक सोशल सिस्टम जो ये मानता है कि पुरुष औरत से उत्तम है। जैसे जातिवाद में माना जाता है कि ब्राह्मण शूद्र से उत्तम हैं। अब ये उन्होंने कहा जिनके पास पावर थी। और फिर इन्हें नियम बना दिया और भगवान से जोड़ दिया। कहा जाता है ब्राह्मण ब्रह्मा जी के सर से निकले हैं इसलिए उन्हें उत्तम कहा जाता है और शूद्र पैरों से निकला। लेकिन क्या किसी ने देखा था?
हमने तो हर मनुष्य हमेशा से औरत की योनि से निकलता देखा है। अब ये सब अनसाइंटिफिक बातें हैं जिन्हें डंडे के जोर पर चला दी और हज़ारों साल से चल रही है। उसी प्रकार से गॉड ने पहले एडम को बनाया ईव को बनाया और वो उसका पति परमेश्वर बन गया। एक मालिक है तो दूसरी दासी है। इसलिए समस्या जेंडर नहीं है बल्कि पितृसत्ता है। जेंडर पितृसत्ता की ही देन है। तो अगर पितृसत्ता होगी तो जेंडर लाना ही पड़ेगा।
जेंडर बताता है कि पितृसत्ता में लड़के कैसे हों – तो लड़के रो नहीं सकते हैं, लड़के मार खाकर नहीं आएंगे क्योंकि ये सब कमजोरी है। पितृसत्ता में लड़को को दबंग और बद्तमीज़ बनना पड़ता है ताकि वो बाज़ारों में पिट कर नहीं आये। और पैट्रिआर्की को सिर्फ मर्द ही नहीं औरते भी मानती हैं क्योंकि वो इस सोशल सिस्टम का हिस्सा है और ये नज़दीकी से धर्मों के साथ जोड़ दिया गया है। और फिर धर्मों ने पितृसत्ता को फ़ैलाया है।
कमला भसीन इंटरव्यू को बढ़ाते हुए समझाती हैं कि पितृसत्ता कहती है कि ये सब भगवान ने बनाया है तो लड़ाई समाज से मत करो, भगवान से करो। मंदिरों में घंटे बजाओ, पूजा करो लेकिन आंदोलन मत करो, सड़कों पर मत निकलो। गरीब, शूद्र, महिलाएं, काले लोग आदि सब पूजा करें, लेकिन आवाज़ मत उठाओ। तो पैट्रिआर्की एक ग्लोबल सिस्टम है जिसने औरतों को अपवित्र, नीचा बताया ताकि समानता का भाव पैदा न हो। इनके हिसाब से हर औरत हर महीने महावारी के समय नीच हो जाती है। ये पितृसत्ता के तरिके हैं।
कमला भसीन इंटरव्यू में बताती हैं कि हमारे देश में लोगो को जेंडर का मतलब ही नहीं पता तो वो समझेंगे कैसे। उन्हें लगता है जेंडर मतलब स्त्री और पुरुष। तो मैं ऐसे लोगो से बिल्कुल नाखुश नहीं हूँ। उन्हें किसी ने बताया ही नहीं। अगर मैं इस पर काम नहीं कर रही होती तो शायद मैं भी समझती। तो जेंडर इक्वलिटी की तो बात ही मत करिये। बात करिये स्त्री पुरुष समानता की।
तो पहले बात ये है कि कौन नहीं समझना चाहता। औरत नहीं समझना चाहती या मर्द नहीं समझना चाहते। और मेरा सवाल ये है की हमको कैसे पता की वो नहीं समझना चाहते। जेंडर का कांसेप्ट तो कोई नहीं समझता, मुझे 50 साल हो गये समझाते समझाते। औरत मर्द को बदलना ये भी लोग नहीं समझते हैं। क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि ये प्रकति ने ही बनाया है कि औरत को दबना है और मर्द को दबाना है। इसलिए ही वो नहीं समझना चाहते। और अगर आप समझाये तो मेरा अनुभव कहता है कि लोग समझने को तैयार हैं। आप उनको कैसे समझाते हो इस पर डिपेंड करता है। आप उन्हें भाषण देकर समझाते हो, या ऊँगली दिखा दिखा कर या फिर पहले आप उन्हें कहते हैं कि आप तो समझना ही नहीं चाहते फिर उन्हें समझाते हो तो कौन हमारे पास आएगा।
हां कुछ लोग है, जिन्हे पावर मिली हुई है, जिन्हें बहुत से अधिकार मिले हुए हैं वो नहीं बदलना चाहें। और ऐसा नहीं है कि वो समानता को समझते नहीं है। अब तो 70 साल हो गये, हमारे संविधान ने कह दिया है कि औरत और मर्द समान है। तो ये जानते हैं कि समानता क्या होती है, ये जानते हैं कि इंदिरा गाँधी देश की प्रधान मंत्री थीं। ये लोग अंधे नहीं है। सब समझते है लेकिन बदलना नहीं चाहतें। क्योंकि हम ये समझते है कि ये प्रकति ने ही बनाया है।
फिर हमारे तमाम धर्म हमें कहते हैं, हमारी भाषा भी तो यही कहती है – पति परमेश्वर, कन्या दान। तो सालों से यही चलता आ रहा है। और क्या हम बदल रहे हैं? आज कितनी महिलाएं इसके बारे में खुलकर लिख रही हैं, लेकिन क्या वो बदली? क्या उन्होंने कन्यादान नहीं करवाया, क्या फेरों के बाद अपने पति के पैर नहीं छुए?
तो ना समझने के पीछे बहुत से कारण है। जिनके पास सत्ता है वो छोड़ना नहीं चाहते, जिनके पास पावर नहीं है वो कुछ बदल ही नहीं सकती। तो ये आसान नहीं है। और जिनको हमने आराम से समझाने की कोशिश करी है वो समझते भी हैं। ये कोई 2 – 3 घंटों में नहीं होता है। हमारी वर्कशॉप्स होती है 3 दिन से लेकर 1 महीने तक। जिसमे सब समझते हैं। अब वो बदल सकें या नहीं वो अलग बात है। कई लोग चाहते हैं, लेकिन हिम्मत नहीं है। वो ‘लोग क्या कहेंगे’ से डरते हैं। लेकिन डर असल में डर हमारा अपना होता है। लोग क्या कहेंगे ये तो सिर्फ बहाना है।
आगे कमला भसीन इंटरव्यू में कहती हैं कि कई लोगों ने अपनी माँ अंतिम संस्कार सिर्फ इसलिए नहीं किया क्योंकि लोग क्या कहेंगे। लेकिन मैंने किया, मुझे तो किसी ने कुछ नहीं किया। मेरे पास कुछ लोग आये और कहा कि नहीं हमारे यहां बेटियां कन्धा नहीं देती है। मैंने कहा, आपके यहां नहीं करती होंगी, मेरी माँ है, मैं कन्धा दूंगी। मेरी माँ को मैंने जिंदगी भर कन्धा दिया है। मेरे पास ही रहती थी। फिर कहते हैं, “शाबाश बेटा, करो करो।” वहीं एक बुज़ुर्ग महिला कहती हैं, “आज पहली बार किसी औरत को कन्धा देते देखा। अच्छा लगा।” तो मैं ये कहूंगी कि लोग बदल रहें हैं, समय के साथ बहुत कुछ बदला है। और अभी बहुत बदलना है।
इस इंटरव्यू में कमला भसीन ने कहा कि फेमिनिस्ट वो लोग हैं जो वो चाहते हैं जो हमारे संविधान ने हमें दिया है। संविधान ने कहा स्त्री पुरुष बराबर हैं तो बस फ़ेमिनिस्ट भी वही चाहते हैं। फ़ेमिनिस्ट पितृसत्ता के खिलाफ है क्योंकि पितृसत्ता समानता के खिलाफ है। तो नारीवाद स्त्री पुरुष में असमानता के खिलाफ हैं, स्त्री के साथ भेदभाव किया जाता है उसके खिलाफ है।
समानता से मतलब है कि हमे समान रिसोर्सेज, समान अधिकार, समान मौक़े दिए जाये। और जब मैं समान अधिकार मांग रही हूँ, तो समान कर्तव्य की भी बात करूंगी। अगर मैं माँ बाप की सम्पति में अधिकार ले रही हूँ तो मैं बुढ़ापे में उनकी ज़िम्मेदारी भी लूंगी। तो मेरा नारीवाद कर्तव्य और अधिकार दोनों की बात करता है और यही मेरी परिभाषा है।
अगर बात करें नेगेटिव इमेज की तो, हाँ मीडिया/ बॉलीवुड में जो दिखाया जाता है वो फेमिनिस्ट की छवि को नहीं। वो एक मॉडर्न शहरी औरत की छवि को दिखाया जाता है। हमेशा से ही हर पढ़ी लिखी लड़की को ऐसे ही दिखाते है, वो फ़्लर्ट करती है, वो मियां को लेकर भाग जाती है। और जो घूंघट वाली, सिंदूर वाली है वो अच्छी है, जो कि बिलकुल झूठ है। सिंदूर वाली भी जो मदर इन लॉ होती हैं, वो भी दहेज़ के लिए अपनी बहु बेटियों को मारती हैं। ये वही फिल्में बनाते हैं जो समाज को देखना पसंद हैं। लेकिन कुछ 4-5% फिल्में अच्छी भी बनाई जाती है।
फेमिनिज़्म को बदनाम भी किया गया है। भले लोग जानते नहीं हो फेमिनिज़्म क्या है लेकिन वो डरते हैं, वो बस इतना जानते हैं कि हम समानता चाहते हैं और कुछ लोग जो पावर में हैं वो समानता नहीं चाहते हैं। हमेशा जब जब समानता की बात करी गयी है तो पावर में बैठे लोग इसका विरोध करते हैं। तो मैं बिलकुल हैरान नहीं हूँ कि लोग क्यों नारीवाद को पसंद नहीं करते हैं।
कमला भसीन इंटरव्यू में कहती हैं, “गांधीजी ने इतने सालों पहले चरखा चलवा दिया था। देश में जितनी भी संस्थाएँ चल रही है, वो महिलाओं को लोन देती हैं, उनके लघु उद्योग को सशक्त करती हैं। नरेगा में करोड़ों औरतें काम कर रही हैं। शुरू से ही NGOs महिलाओं को आत्म निर्भर बना रहे हैं। इसलिए आर्थिक स्तर पर महिलाओं की समानता की बात बहुत सालों से हो रही है। और सच बात तो ये है कि कभी सामाजिक स्तर पर तो ठीक से सशक्तिकरण की बात होती ही नहीं है। गरीब औरतें हमेशा से काम करती आयी हैं। देश की खेती औरत चलाती है, चाहे पैसा उसके हाथ में न हो।
हमारे देश की गरीब औरतों (जो की 80% है) ने आर्थिक योगदान दिया है। पुरुषों के साथ वो मजदूरी भी करती हैं तो फ़ैक्टरी में भी काम करती हैं। एक औरत और पुरुष दोनों के लिए आर्थिक इंडिपेंडेंस आवश्यक है। लेकिन सिर्फ आर्थिक इंडिपेंडेंस से कुछ नहीं होगा। आज लाख रूपये कमाने वाली औरतें भी सामाजिक रूप से नीचे हैं। इसलिए दोनों को साथ लेकर चलना ज़रूरी है। आर्थिक स्वत्रंता ज़रूरी है लेकिन काफी नहीं है।”
सबसे पहले हमे औरतों की तरफ देखना बंद करना होगा और अब ऑपरेशन टेबल पर पुरुषों को लाना होगा क्योंकि अत्याचार वो करते हैं। अब उनका एग्जामिनेशन करने की बारी है कि आखिर क्या प्रॉब्लम है इन बेचारों को? हमे देखना ये है कि ये करने वाले कौन हैं और कहाँ से आ रहे हैं। ये बलात्कारी क्या पेड़ों पर उगते हैं?
इन्हें हिंसक हमने बनाया है। इनके सारे खेल हिंसा पर है। सबमें प्रतिस्पर्धा है, मारपीट है। अगर कभी कोई लड़का मार खाकर घर में आ जाये तो पिता दो थप्पड़ और मारता है और कहता है, “मार खाकर आ गया साले, बदनाम करा दिया मुझे?” अगर लड़के ने 14 साल में सिगरेट नहीं पी तो उसके दोस्त कहते हैं, तो उसके दोस्त कहते हैं, “तूने अभी तक सिगरेट नहीं पी, तूने लड़की को नहीं छेड़ा?” तो ये हमारा समाज है जो उसको ऐसी परवरिश देता है, बद्तमीज़ बनाता है।
उनको फिल्में दिखाई जाती है ‘दबंग’ जिसमें बेहूदा गाने होते हैं। हर फिल्म में लड़की को छेड़ेंगे, पकड़ पकड़ कर उनके दुप्पटे खीचेंगे और बाद में वही लड़की कहेगी कि ‘ना ना करके प्यार तुम्ही से कर बैठे।’ तो बाक़ायदा लड़कों को 20 साल तक ट्रेनिंग देकर ऐसा बनाया जाता है।
सेक्स एजुकेशन नहीं होगी तो ऐसा होगा। बलात्कार हो गया तो औरत की इज़्ज़त चली गयी। लेकिन इसमें मेरी इज़्ज़त क्यों गयी। क्या मेरी इज़्ज़त मेरी योनि में है? इसमें इज़्ज़त बलात्कारी की गयी। तो देखना ये है कि क्यों पुरुष हिंसा कर रहे हैं? अब हम जाकर उन्हें तो कहते नहीं है कि हमारी हिंसा करो।
कमला भसीन इंटरव्यू में लॉक डाउन की स्तिथि को उजागर करते हुए कहती हैं कि कोविड 19 में हर देश में औरतों के साथ हिंसा बढ़ी है। तो हमें मर्दों को समझना है, क्यों वो हिंसा करते हैं। क्योंकि उन्हें समाज कहता है कि तू पति है यानि मालिक है और मालिक तो मार सकता है। हर शादी में लड़कों को उम्र में, साइज में, पैसों में बड़ा होना है तो वो हर तरह से मालिक है। पैसा उसका है और गुस्सा करना उसको बचपन से सिखाया गया है। उसकी अंदर की भावनाओ को मार कर खत्म कर दिया है। वो रो नहीं सकता है। उसको भावनात्मक झूठ बोलना बचपन से सीखा दिया जाता है। इसमें उन बेचारो का क्या कसूर है।
अगर अभी कोविड 19 में देखें तो हिंसा इसलिए बढ़ रही है क्योंकि एक तो वो सुबह से लेकर रात तक घर में बैठे हुए हैं। समाज के अनुसार पुरुष की इज़्ज़त पैसा कमाने में हैं और आज वो करोड़ों हिंदुस्तानी पैसा नहीं कमा पा रहे हैं। औरत और बच्चें कह रहे हैं पैसा लाओ लेकिन वो नहीं ला पा रहा तो गुस्सा किस पर निकालें। उनमे इतना तो दम नहीं है कि वो किसी नेता को पकड़ कर मारे या अपने मालिक को कहे कि हमे पैसा दो। इसलिए बस वो बीवी बच्चों को मारते हैं।
तो हिंसा को समझने के लिए अब हमे मर्दों को समझना है कि वो क्यों ये सब कर रहे हैं? क्योंकि पितृसत्ता में उनको अधिकार है हिंसा करने का और पितृसत्ता तो बिना हिंसा के हो ही नहीं सकती। तो इसके लिए लम्बी लड़ाईयाँ लड़नी पड़ती हैं। हमने सब तरह के कानून तो बना दिए लेकिन कानून से समाज नहीं बदलते, उसमे तो बस एक मापदंड बना दिया जाता है । इसको बदलने के लिए पितृसत्ता को खत्म करना पड़ना पड़ेगा। पुरुषो की मानसिकता को बदलना पड़ेगा, उनको हिंसक बनाना बंद करना पड़ेगा और इंसान बनाना होगा।
आगे कमला भसीन इस इंटरव्यू में कहती हैं कि मैं तो ये मानती हूँ कि पितृसत्ता मर्दों का सबसे ज़्यादा नुकसान करती है। एक औरत के साथ तो बलात्कार होता है, उसमें पितृसत्ता दोषी उसे नहीं पुरुष को बनती है। पैट्रिआर्की में सारी बदतमीज़ी पुरुष करते हैं क्योंकि औरत को तो दबाया गया है। लेकिन जैसे ही औरत सास बनती है, वो भी बदतमीज़ी करती है। तो ये सारा खेल केवल पावर का है।
तो पितृसत्ता और जेंडर पावर का खेल है और हम फेमिनिस्ट उस पावर को समान रूप से बाँटना चाहते हैं। और मैं ये मानती हूँ जब तक परिवार में समानता नहीं आएगी तब तक परिवार हिंसक रहेंगे, परिवार में डर रहेगा। जब तक औरत आज़ाद नहीं होगी मर्द आज़ाद नहीं हो सकते हैं। पुरुषों के ऊपर से हमे कमाने का बोझ खत्म करना होगा। ये तभी हो सकता है जब औरत भी कमाएगी। पुरुषों के ऊपर से सबको प्रोटेक्ट करना का बोझ खत्म करना होगा। ये तभी हो सकता है जब औरत खुद को और अपने माँ बाप, भाई बहन की ज़िम्मेदारी ले।
कमला भसीन इंटरव्यू के अंत में कहती हैं, “मैं अपने आप को इस स्तर पर नहीं समझती हूँ कि किसी को मैसेज दे सकूं। जो मुझे कहना था वो ऊपर सब कह दिया है। लोग मुझे देखकर ज़्यादा सीखते हैं, मुझे पढ़कर नहीं सीखते हैं। मेरे लिखे हुए से वो नहीं सीखते हैं बल्कि मैं जिंदगी में कैसे व्यवहार करती हूँ, उससे ज़्यादा सीखते हैं। और मैं समझती हूँ कि जो राइटर है वो मुझसे भी ज़्यादा जानते हैं और इस लेख को पढ़ने के बाद सभी मेरे विचार समझ जायेंगे तो अलग से कुछ नहीं कहना चाहती हूँ।”
नोट : आपको कमला भसीन का ये इंटरव्यू कैसा लगा, अपने कमैंट्स में ज़रूर बताएं।
मूल चित्र : herald.dawn.com
A strong feminist who believes in the art of weaving words. When she finds the time, she argues with patriarchal people. Her day completes with her me-time journaling and is incomplete without writing 1000 read more...
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