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सिर्फ किसी खास रिश्ते में मारा थप्पड़ ही घरेलू हिंसा नहीं है। हमारे समाज में हिंसा के स्वरूप कई प्रकार के हैं जिसमें हम और आप सब शामिल हैं।
क्या अन्तर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस सिर्फ एक और दिवस है? आपकी तवज्जो वहां ले जाने के लिए जिसके बारे में या तो आप सोचते नहीं या सोचना नहीं चाहते, जानते नहीं या फिर कहें कि जानना नहीं चाहते। सुन कर हर बार आप निकाल लेते हैं कोई वजह ‘उसकी’ – शराब, परवरिश, गुस्सा, पितृसत्ता की सोच सहने वाले की कमज़ोरी या उसकी ही गलती – कुछ भी! सोच है आपकी और आपकी सोच पर किसका ज़ोर है?
फिर आते हैं ये सारे # वाले दिन और आप निकालते हैं अपनी सोच के खज़ाने या गूगल के समद्र से कोई मोती और चेंप देते हैं (ये वाला शब्द लखनउआ लोग ढंग से समझेंगे या फि कानहेपुर वाले भी) मतलब चस्पा कर दते है, चिपका देते हैं और बन जाते हैं सोशल मिडिया इन्फ्लुएंसर या कुछ और बड़ा भारी सा शब्द।
जिसे देखिये वही है ये सब! लेकिन सवाल ये नहीं कि आप ये सब क्यों हैं, सवाल ये है कि ये सब हो कर भी आप सोचते क्या हैं? मतलब आप वाकई वही सोचते या समझते है जो बोलते लिखते फिर बस यूँ ही भौकाल!
अच्छा रुकें सप्ताह का आखिरी दिन है और चाय के प्याले के साथ कुछ कम दिलचस्प सा ये लेख, पढ़ ही लीजिये।
तो आपसे सवाल ये कि जिस अन्तर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस पर आपने पोस्ट डाला उसे आप कितना समझते हैं या आप उसके हिस्से कितने प्रतिशत हैं? शक नहीं मुझे, आप समझते होंगे, कुछ हद तक आपके बगल में बैठा शख्स भी, शायद मैं भी। लेकिन कितना?
‘थप्पड़’ के दायरे से बाहर आएं। ये मत सोचें कि किसी खास रिश्ते में मारा थप्पड़ ही घरेलू हिंसा है।उस थप्पड़ पर बहुत बातें हुई हैं, होती रही हैं और बदकिस्मती से होती रहेंगी। वो थप्पड़ ही नहीं होता एक रिश्ते का कत्ल होता है। किसी के आत्मसम्मान को रौंदना और उसे ज़मीन पर मौजूद किसी कीड़े मकोड़े की भांति महसूस कराना भी होता है। ये समझाना की तुम ‘निर्भर हो’ या कि ये कि ‘सोचना’ और ‘बोलना’ बंद करो या कि बौखलाहट अपने कमतर और गलत होने के एहसास को छुपाने की। बहुत कुछ और होता है उस थप्पड़ में।
तो वो तो अलग हुआ किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस हिंसा के स्वरूप के लिए है। बस या मेट्रो या टेम्पो या फिर पैदल ही चलते हुए किसी के ‘पुट्ठों’ पर हाथ मार देना या फिर भीड़ में गुम हो कर दबोच लेना जिस्म का हिस्सा जिसे ‘वक्ष’ कहते है और आदमी या औरत दोनों ही उससे चिपट कर बड़े होते है।
ये हिंसा कुंठित वर्ग की जिसका इलाज सिर्फ एक है – गंदगी साफ करो, काटो, जलाओ, गाड़ो कुछ भी! बहरहाल ये इलाज 56 इंच का सीना नहीं मांगता एक सोच मांगता है। इसके बाद आती है, सोच की हिंसा, शब्दों की हिंसा, ज़िम्मेदारी के बोझ वाली हिंसा! जिसमें मानें न मानें हम और आप सब शामिल हैं।
यकीनन आप महिला हिंसा में लिप्त हैं और आपको अपने इन विचारों के उन्मूलन की ज़रूरत है। इन दिनों में अपनी सोच मत सिमित रखिये। हर दिन एक सोच रखे और उसे जिएँ भी।
मूल चित्र : a still from the movie The Lunchbox
Founder KalaManthan "An Art Platform" An Equalist. Proud woman. Love to dwell upon the layers within one statement. Poetess || Writer || Entrepreneur read more...
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