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भारत में धर्म की अद्वितीय महत्वता है इसलिए इन धर्मों के साथ शादी के कानून भी बदलते हैं, कहीं है सिविल कॉन्ट्रैक्ट, कहीं हैं पर्सनल लॉ।
इन दिनों अंतर्जातीय विवाह सुर्ख़ियों में बना हुआ है और इस पर बहुत से कानून भी बन रहे हैं। भारत में शादी एक बहुत ही महत्वपूर्ण सामाजिक रिवाज़ है और कानूनी रूप से भी इसको बहुत महत्वता मिली हुई है। भारत में ऐसे बहुत से अधिनियम और धाराएं हैं जिसके अंतर्गत शादी संपन्न की जा सकती है। भारत में धर्म की अद्वितीय महत्वता है इसलिए बहुत से धर्मों के शादी के लिए अपने पर्सनल कानून हैं। धर्मों के अनुसार शादी करने के अतिरिक्त भी स्पेशल मैरिज एक्ट के अंतर्गत भारत में अंतर्जातीय विवाह करने का विकल्प मौजूद है।
आज हम आपको ऐसे ही कुछ तरीकों के बारे में बताने वाले हैं जिसके अंतर्गत आप भारत में विवाह कर सकते हैं।
1950 में बना यह कानून मुस्लमान, परसी, यहूदी और अनुसूचित जाति के लोगों के अतिरिक्त सभी भारतीयों पर लागू होता है। यह अधिनियम शास्त्रीय विधि और आधुनिक कानून का समावेश है।
इसी अधिनियम के अंतर्गत हिन्दू विवाह और तलाक को कानूनी मंज़ूरी दी जाती है। इस अधिनियम के अंतर्गत अगर कोई भी महिला और पुरुष कुछ पुश्तों से सम्बंधित नहीं हो तो शादी कर सकते हैं।हालाँकि अगर किसी समुदाय में सम्बन्धियों से शादी करना आ रहा है तो उसकी छूट है। धरा 7 के अनुसार कोई भी हिन्दू विवाह बिना संस्कार के पूरा नहीं माना जाता है, और संस्कार समुदाय के अनुसार हो सकते हैं, जैसे सप्तपदी, आदि।
समय के साथ साथ हिंदु विवाह अधिनियम में बहुत सी कमियों को उजागर किया गया है। जैसे, कुछ ज़रूरी संस्कारों के पूरे होने के बाद यह अधिनियम दूसरी शादी को भी मान्य करता है और धारा 9 के अनुसार यह दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना की बात करता है जो सहवास को बाध्य करता है।
हिन्दुओं में जहाँ शादी को धार्मिक माना जाता है वहीं इस्लाम धर्म में शादी एक सिविल कॉन्ट्रैक्ट यानी अनुबंध है जिसके लिए किसी धार्मिक संस्कार की आवश्यकता नहीं होती। इस अनुबंध में सहमति बहुत ज़रूरी है और यह मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) अधिनियम, 1937 के आधार पर चलती है।
इसके अनुसार दूल्हे को शादी पर दुल्हन को दहेज़ भी देना पड़ता है। परन्तु इस नियम में कुरान के अनुसार मर्द को पहली बीवी के सहमति के बिना भी अन्य 4 बीवियाँ रखने की छूट है। हालाँकि सभी बीवियों का बराबर पालन पोषण करना अनिवार्य है।
इस्लाम समुदाय में महिलाएँ तलाक-ए-एहसान और तलाक-ए-हसन के माध्यम से तलाक ले सकती हैं परन्तु तलाक की मंज़ूरी तीन महीने के सुलह की अवधि के बाद ही मिलती है। 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने हनफ़ी समुदाय द्वारा मंज़ूर होने के बाद भी ट्रिपल तलाक को प्रतिबंधित कर दिया था।
ईसाई समुदाय के विवाह के नियम ईसाई विवाह अधिनियम 1872 में प्रस्तावित हैं। इस अधिनियम के अनुसार शादी करने के लिए दोनों पक्षों का ईसाई होना अनिवार्य है और विवाह संस्कार का पुजारी द्वारा पूरा किया जाना भी अनिवार्य है। हालाँकि यह विवाह कोई धार्मिक नेता या मैरिज रजिस्ट्रार द्वारा भी संपन्न कराई जा सकती है।
साथ ही साथ शादी का चर्च में प्रातः 6 बजे से शाम के 7 बजे के बीच होना अनिवार्य है। अगर 5 मील के दायरे में कोई चर्च न हो तो छूट मिल सकती है। 2001 में इस कानून में कई संशोधन लाये गए जिससे महिलाओं के लिए तलाक लेना आसान हो गया है। यह अधिनियम त्रावणकोर, मणिपुर, जम्मू कश्मीर और कोच्चि में लागू नहीं होता है।
पारसी विवाह विच्छेद अधिनियम 1936 के अनुसार पारसी विवाह एक पारसी पुजारी और दो पारसी गवाहों की मौजूदगी में ही होना चाहिए। मुस्लमान धर्म की तरह ही पारसी विवाह भी एक अनुबंध की तरह है।
पारसी धर्म में तलाक के लिए अलग से कोर्ट बनाये गए हैं और किसी एक के धर्म परिवर्तन के आधार पर शादी रद्द की जा सकती है।
भारत में एक आधुनिक और प्रगतिशील माना जाने वाला स्पेशल मैरिज अधिनियम 1954 के अंतर्गत कोई भी धर्म, जाति या समुदाय के पुरुष और महिला विवाह कर सकते हैं। ऐसे जोड़े जो पर्सनल लॉ से दूर अन्तर्जातीय विवाह करना चाहते हैं उनके अधिनियम ज़रूरी है।
हालाँकि इस अधिनियम के अंतर्गत शादी करने वाले जोड़े का नाम, पता और तस्वीर शादी के 30 दिन पहले मैरिज रजिस्ट्रार को भेजनी होती है जिसे सार्वजानिक रूप से प्रदर्शित किया जाता है। इससे शादी में समुदाय के लोगों द्वारा कई बार अड़चने डाली जाती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इससे प्राइवेसी का हनन भी होता है।
भारतीय संस्कृति में शादी और धर्म की एक अलग जगह है। फेमिनिस्ट पाठकों के इन सभी शादी करने के तरीकों में कमियाँ उजागर करते हुए यह बताया है कि यह सभी नियम महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता को भंग करते हैं। स्पेशल मैरिज अधिनियम एक प्रगतिशील कानून है परन्तु इसमें भी कई खामियां है।
मूल चित्र : Photo by Marcus Lewis on Unsplash
Political Science Research Scholar. Doesn't believe in binaries and essentialism. read more...
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