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क्यों अपनी लड़की को लड़के के बराबर बना रही हो?

आदमी काम करने जाते हैं, मेहनत करते हैं, पैसा लाते हैं तो उनका पहला हक बनता है ना? औरतों को घर में रहना है तो बराबरी की कोई दरकार नहीं है।

आदमी काम करने जाते हैं, मेहनत करते हैं, पैसा लाते हैं तो उनका पहला हक बनता है ना? औरतों को घर में रहना है तो बराबरी की कोई दरकार नहीं है।

“बताओ, अब लड़की के लिए अलग से सब्जी भी बनाई जाएगी। अरे सब खाना चाहिए न। हद हो गई ये तो। पढ़ाई-लिखाई करवाई जा रही है, खेल-कूद के लिए भेजती हो, फिर साइकिल भी दिला दी? बिगाड़ो और सिर पर चढ़ा लो लड़की को। जब देखो, अकेले भेज देती हो। भाई के बराबर बना रही हो?

हां भाई, नया जमाना है, कुछ भी उल्टा पुल्टा लोग करते हैं और जब पढ़-लिखकर लड़कियों का दिमाग खराब हो जाता है, तब आदमियों से बराबरी के चक्कर में पड़ जाती हैं।” मम्मी जी बड़बड़ाते हुए सुमित्रा को घूरकर देखे जा रही थीं। आखिर किसी बेटी की फरमाइशें पूरी होने जैसी अनहोनी अपने लड़के के घर में कैसे देख सकती थीं?

बहू पर हर जोर चलता था उनका पर वही बहू अपनी बेटी के बारे में कोई भी समझौता नहीं करती थी, चाहे कुछ हो जाए। बस यही खटकता था मम्मी जी को कि पोते पर खर्च करो पर पराई अमानत पर क्यों खर्च करना है ये उनकी समझ से बाहर था।

“मम्मी जी, इस मामले में आपको मेरे विचार पता तो हैं। सोनू का आप जिस तरह पक्ष लेती हैं, वो सही तो नहीं है ना। लड़का है, गलती करने पर उसे भी टोकना ही पड़ेगा मुझे, जैसे बेटी को टोकती हूं। पर जहां सही है वहां मैं हमेशा दोनों के साथ खड़ी रहूंगी। और जहां तक लड़की को मनपसंद खाना खिलाने की बात है, वो तो मैं सबके लिए करती हूं फिर बेटी के लिए क्यों नहीं? क्यों लौकी, तरोई ही या फिर बचा हुआ खिलाऊं उसे? क्यों ना कभी- कभी उसकी भी फरमाइश पूरी करूं?

आखिर बेटी है। कल को घर बाहर का हर काम करना होगा उसे तो इसलिए खूब मजबूत बनाऊंगी खिला पिलाकर और फिर कल को उसे भी ऐसी ससुराल मिल जाए जहां वो ना मर्जी से खा पी सके, ना बोल सके तो क्या कर पाऊंगी मैं? भविष्य का तो कुछ नहीं कर सकती पर जब तक मैं हूं उसका वर्तमान तो सुंदर, सुखदायी, सरल और यादगार बना ही सकती हूं। इसलिए ही इस विषय में कुछ नहीं सुनती हूं मैं। और फिर खाने पीने, पढ़ने लिखने जैसी बेसिक जरूरतों में हम कटौती क्यों करें और ऐसा मौका आया कि कटौती करनी पड़ी तो बेटा बेटी दोनों की ही जरूरतों में से कटौती करेंगे हम”, सुमित्रा बोली।

“पर आदमी बाहर काम करने जाते हैं, मेहनत करते हैं, पैसा लाते हैं तो उनका पहला हक बनता है ना औरतों का क्या है, घर में रहना है तो इतनी बराबरी की कोई दरकार नहीं है। और एक तुमको ही देखा है लड़के से भी घर के काम करवाती हो औरत बना के ही छोड़ोगी उसको तुम”, मम्मी जी बोलीं।

“हां, आदमी पैसा लाते हैं, मेहनत भी करते हैं। सब माना पर ये बताइये क्या पैसे को ही यूं खा भी सकते हैं या फिर पैसे से खरीदी चीजों को बस खरीदते ही खा सकते हैं? नहीं ना? उन चीजों को खाने या प्रयोग में लाने लायक हम औरतें बनाती हैं, हम ही घर को घर बनाती हैं। अगर लड़के भी काम करें घर के तो क्या समस्या है उसमें? उनको भी पता होना चाहिए घर के काम भी इतने आसान नहीं होते।

जैसे अब औरतें बाहर के और घर के काम एक साथ संभालती हैं वैसे ही पुरुषों को भी घर के काम सीखना और करना आना ही चाहिए। लेकिन समस्या वहीं आती है जब एक औरत ही दूसरी औरत की बेसिक जरूरतों तक को नाजायज ठहरा दे कि पुरुषों के लिए तो सब जरूरी है पर लड़कियों के लिए नहीं। ऐसा क्यों? मनपसंद खाना तक खाने पर उनको सुनना पड़ता है वो भी अपने ही घर में? फिर कल को ससुराल भी ऐसा ही मिल गया तो बेटी की जिंदगी तो यूं ही निकल जाएगी जहां हर दूसरे व्यक्ति की फरमाइशें वो पूरी करेगी पर खुद के लिए उसे याद भी नहीं आएगा कि उसकी खुद की भी कोई पसंद है।

पर जरा सोचिये, उसी जगह एक शारीरिक व मानसिक रूप से सबल, जीवन में सफल लड़की, जिसे उसके अपने घर में हर सही मौका मिला हो, वो अपने घर परिवार को कितने बेहतरीन ढंग से संभाल पाएगी? खुद तो वो मजबूत होगी ही हर फैसला दृढ़ता से लेकर परिवार को भी मजबूती देगी”, आज सुमित्रा ने अपने मन की कह ही दी।

मम्मी जी आज बहू के मुंह से खरी खरी सुनकर सच को अपने मुंह से स्वीकार तो नहीं कर सकीं पर उनके चेहरे की लकीरें भी शायद एक सोच में डूबी सी दिख रही थीं कि काश उनके जमाने में भी किसी ने लड़कियों-औरतों के लिए यूं सोचा होता।

मूल चित्र : VikramRaghuvanshi from Getty Images Signature, via Canva Pro 

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Smita Saksena

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