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एक नारी की दास्तान

कभी- कभी दम घुटता है इन ऊंची- ऊंची दीवारों में। खुली हवा भी कैसे खाऊंहैवान बैठे है सडक़ों के किनारों में।

कभी- कभी दम घुटता है इन ऊँची-ऊँची दीवारों में। खुली हवा भी कैसे खाऊंहैवान बैठे है सडक़ों के किनारों में। 

बहुत अलग हूँ मैं इस दुनिया से
हर किसी पर भरोसा करने से डर लगता है
इस ज़माने के इंसान को
पहचानने में बहुत वक्त लगता है। 

कोई रंग नहीं जो
आसानी से घुल जाऊँ
मैं कोई धूल नहीं जो
जमीं में मिल जाऊँ। 

अभिमान बहुत है मगर
स्वाभिमान से जीना है
सीता तो नहीं मगर
अग्नि परीक्षा रोज़ाना है। 

हज़ारों दर्दों  को तकिए तले
छोड़कर फिर से नये दर्दों से उभरना है
एक नहीं दो परिवारों को
संग लेकर चलना है। 

एक फूल हूँ उस बगिया का
तोड़कर कहते हो
कोई पीड़ा नहीं होगी
तुम्हारी लाडली को। 

हर रोज का तुम्हारा
एक ही बहाना है
दहेज तो नहीं लायी,
ओर कहती है पढने जाना है। 

कभी- कभी दम घुटता है
इन ऊँची -ऊँची दीवारों में
खुली हवा भी कैसे खाऊं
हैवान बैठे है सडकों के किनारों में। 

अस्तित्व का पता नहीं
सब गँवा बैठी है जिम्मेदारियों में
खुद की उम्र का पता नहीं
उलझी बैठी है जवाबदारियों में। 

मूल चित्र: Gleb Lucomets via Unsplash 

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Aarti Sudhakar Sirsat

Author✍ Student of computer science Burhanpur (MP) read more...

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