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कभी- कभी दम घुटता है इन ऊंची- ऊंची दीवारों में। खुली हवा भी कैसे खाऊंहैवान बैठे है सडक़ों के किनारों में।
कभी- कभी दम घुटता है इन ऊँची-ऊँची दीवारों में। खुली हवा भी कैसे खाऊंहैवान बैठे है सडक़ों के किनारों में।
बहुत अलग हूँ मैं इस दुनिया सेहर किसी पर भरोसा करने से डर लगता हैइस ज़माने के इंसान कोपहचानने में बहुत वक्त लगता है।
कोई रंग नहीं जोआसानी से घुल जाऊँमैं कोई धूल नहीं जोजमीं में मिल जाऊँ।
अभिमान बहुत है मगरस्वाभिमान से जीना हैसीता तो नहीं मगरअग्नि परीक्षा रोज़ाना है।
हज़ारों दर्दों को तकिए तलेछोड़कर फिर से नये दर्दों से उभरना हैएक नहीं दो परिवारों कोसंग लेकर चलना है।
एक फूल हूँ उस बगिया कातोड़कर कहते होकोई पीड़ा नहीं होगीतुम्हारी लाडली को।
हर रोज का तुम्हाराएक ही बहाना हैदहेज तो नहीं लायी,ओर कहती है पढने जाना है।
कभी- कभी दम घुटता हैइन ऊँची -ऊँची दीवारों मेंखुली हवा भी कैसे खाऊंहैवान बैठे है सडकों के किनारों में।
अस्तित्व का पता नहींसब गँवा बैठी है जिम्मेदारियों मेंखुद की उम्र का पता नहींउलझी बैठी है जवाबदारियों में।
मूल चित्र: Gleb Lucomets via Unsplash
Author✍ Student of computer science Burhanpur (MP) read more...
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