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नए कृषि कानून कृषि क्षेत्र की महिलाओं को भी प्रभावित करता है क्यूंकि उनकी भूमिका को इस क्षेत्र में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में 27 सितंबर 2020 की तारीख इतिहास में दर्ज हो गई है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हस्ताक्षर के बाद तीनों नए कृषि बिल, कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 (The Farmers’ Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Bill, 2020), मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020 (The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Bill, 2020), आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 (Essential Commodities (Amendment) Bill 2020) देश में कानून बनकर लागू हो गए हैं। और इन कानूनों का कई राज्यों में विरोध जारी है। सैकड़ों की संख्या में किसान और विपक्षी दलों के नेता सड़कों पर उतर आये हैं।
अगर आपने कानून को थोड़ा भी पढ़ा तो शायद आपको भी कहीं न कहीं किसानों का विरोध उचित लगेगा। ये कानून न सिर्फ देश में प्राइवेट कंपनियों को किसानों का शोषण करने के लिए बढ़ावा दे रहे हैं बल्कि इनमें मिनिमम सपोर्ट प्राइस का भी कहीं ज़िक्र नहीं किया गया है। और यदि किसान अपनी उपज को पंजीकृत कृषि उपज मंडी समिति (APMC/Registered Agricultural Produce Market Committee) के बाहर बेचते हैं, तो राज्यों को राजस्व का नुकसान होगा क्योंकि वे ‘मंडी शुल्क’ प्राप्त नहीं कर पायेंगे। इसके अलावा आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दाल, तिलहन, प्याज और आलू जैसी कृषि उपज को भी असामान्य परिस्थितियों को छोड़कर सामान्य परिस्थितियों में से हटा दिया गया है।
गांव कनेक्शन के हाल ही में किये गए सर्वे के अनुसार 52 फीसदी किसान यानि देश का हर दूसरा किसान हाल ही में लागू हुए तीनों कृषि कानून के विरोध में हैं, जबकि 35 फीसदी किसान नए कानून के समर्थन में हैं।
लेकिन उन 73.2% ग्रामीण महिलाओं की तो कहीं बात ही नहीं करी गयी हैं जो कृषि क्षेत्र में काम कर रही हैं। हाँ क्योंकि अन्य क्षेत्रों की तरह एग्रीकल्चर सेक्टर में भी महिलाओं के काम को तव्वज़ो नहीं दी जाती है या यूँ कहें ये भी जेंडर बायस्ड है। लेकिन आपको बता दें, ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट के आंकड़े कहते हैं कि भारत में, कृषि क्षेत्र, सभी आर्थिक रूप से सक्रिय महिलाओं में से 80% महिलाओं को रोज़गार देता है। लेकिन सिर्फ 13% महिला किसानों का ही जमीन पर पूर्ण रूप से अधिकार है। और 8% महिलाऐं ही ऐसी हैं जिनका उपज से प्राप्त धन पर पूर्ण रूप से अधिकार है और लगभग 60-80% भोजन ग्रामीण महिलाओं द्वारा उत्पादित किया जाता है।
तो जब इतने बड़े पैमाने पर महिलाऐं इस क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं और वो पहले से ही दयनीय स्थिति में हैं तो वो भी इन कानून से बहुत प्रभावित होंगी।
इसी के लिए छह उल्लेखनीय राष्ट्रीय महिला संगठनों ने, पीएम नरेंद्र मोदी को लिखे एक खुले पत्र में नए फार्म कानूनों का विरोध करते हुए कहा है कि उनका ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं पर “प्रतिकूल” प्रभाव पड़ेगा।
ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमेंस एसोसिएशन (AIDWA), नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन (NFIW), ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वुमेन्स एसोसिएशन (AIPWA), प्रगतिशील महिला संघटन (PMS), ऑल इंडिया सांस्कृतिक संघटन (AIMSS), और ऑल इंडिया अग्रगामी महिला समिति (AIAMS) महिला संगठन इसमें शामिल हैं।
इस ओपन लेटर में किसान संघर्षो का साथ व्यक्त करते हुए महिला संगठनों ने पत्र में कहा: “हम किसानों के संघर्ष, आंसू गैस और कड़ी ठंड में उन पर वाटर कैनिंग की कड़ी निंदा करते हैं। भाजपा-आरएसएस की केंद्र और भाजपा की यूपी और हरियाणा राज्य सरकारों ने भी शांतिपूर्ण किसानों पर अभूतपूर्व बर्बरता को उजागर किया है जो अपनी उचित मांगों के लिए दिल्ली पहुंचना चाहते हैं।”
इसमें 10 बेहद ज़रुरी मांगें रखी गयी हैं। पहली यह है कि किसानों को शांति से विरोध करने की अनुमति दी जाए। इसके अलावा बच्चों के लिए मिड डे मील सुनिश्चित करने, सभी कृषि उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा न देने, और आत्महत्या से मरने वाले किसानों की विधवाओं के लिए ऋण माफ करने के लिए भी कहा गया है।
पत्र में कृषि में महिलाओं के योगदान पर रौशनी डालते हुए कहा गया है, “कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है क्योंकि उनमें 33% कृषि श्रम शक्ति और 48% स्व-नियोजित किसान शामिल हैं।”
इसके अलावा उसमे लिखा है कि आपकी सरकार द्वारा महामारी से निबटने के लिए उठाये गए कदमों से किसान पहले ही और ज्यादा तनाव और मंदी का सामना कर रहे हैं। इसी वजह से किसानों में आत्महत्या के मामलों में भी बढ़ोतरी देखने को मिली है। और आत्महत्या प्रभावित परिवारों की महिला किसान पूरी तरह से कमजोर स्थिति में हैं। महिलाएं जमीनों के मालिक नहीं हैं। इसलिए उन्हें ऋणग्रस्तता और आत्महत्या की दोहरी आपदा से निपटने के लिए सरकारों से कोई मदद नहीं मिलती है।”
इन सबसे साफ़ जाहिर होता है कि इस कानून ने पहले से ही पीड़ित महिलाओं को और धकेल दिया है। क्योंकि जहां पहले से ही सरकार की तरफ से महिलाओं को प्रॉपर रिसोर्सेज नहीं मिल रहे थे वहां प्राइवेट सेक्टर की मनमानी चलना एक गलत कदम साबित हो सकता है। अब हमें एक जेंडर फ्रेंडली पॉलिसी की जरूरत है। साथ ही सरकार को किसानों से बात करके उनकी राय भी नए कानून में शामिल करनी चाहिए क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है।
मूल चित्र : Google (for representational purpose only )
A strong feminist who believes in the art of weaving words. When she finds the time, she argues with patriarchal people. Her day completes with her me-time journaling and is incomplete without writing 1000 read more...
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