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हमेशा खुद को ही सही समझती, सिद्ध करती। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि उसके अंदर प्रेम का बिरवा नहीं था। बस उसने उसे पोषण से वंचित रखा था, लहलहाने नहीं दिया था।
बला की खुबसुरती वाली वो बाला कब किसी के लिए बला बन बैठेगी कहना मुश्किल था। तभी बिना जरुरत के एक काग पंछी भी उसकी देहलीज़ पर कदम नहीं रखता। ऐसा नहीं था कि नम्रता शर्मा तन से बलिष्ठ थी, पर इसमें भी संदेह नहीं था कि पचपन किलो की नम्रता का कलेजा हजार किलो का था। स्कूल और कालेज के दिनों से ही नम्रता ने अन्याय के विरुद्ध कमर कस ली था। ना खुद बर्दाश्त करती ना किसी और को अपनी नज़रों के सामने करने देती। नतीजतन दोस्त तो गिनती के थे, दुश्मनों की फेहरिस्त लंबी थी।
उसके चमचे उसकी दबंगई की वजह से उसे नम्रता भाई बुलाया करते थे। यहांँ तक तो ठीक था पर कहते हैं ना कि जिसका काम उसी को भावे, अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक नम्रता अपनी सहजता और मौलिक गुणों से ही किनारा करती जा रही थी। इसकी वजह से उसका रिश्ता बीसियों बार बनते बनते रह गया। पीछे तीन भाई बहन और थे जो धीरे-धीरे बहन की नाफिक्री से त्रस्त होकर मन ही मन खार पाल रहे थे।
नम्रता जैसे लोगों की त्रासदी यही होती है क्षणिक आकर्षण तो पैदा कर लेते हैं पर दूरगामी प्रभाव में हर जगह नकारात्मक छवि बनाती है। बाहर की लड़ाई तो इंसान फिर भी लड़ ले परन्तु घर की लड़ाई में तो हार भी जीत और जीत भी हार।हालाँकि सब कुछ उसकी कमाई का था पर फिर भी घर में मांँ के अलावा उससे कोई सीधे मुंह बात नहीं करता था। परन्तु बाहर उसके नाम से फायदा लेना कोई नहीं भूलता था ।
नम्रता शर्मा बस इसी मुद्दे पर कमजोर पड़ जाती थे और रात को जब मर्दाना लिबास उतार कर उसके अंदर की स्त्री बिछौने पर आती तो नींद और ख्वाबों के अतिरकित उसके पास सबकुछ होता था जैसे दर्द ,दुख ,तड़प ,टीस और आंँसू। लगभग हर रात औंधे मुंँह लेटे-लेटे भूत के पन्ने पलटती रहती।
पहली संतान बन कर आई नम्रता, भरपूर प्यार में पलती बढ़ती लड़के-लड़की के भेद को समझ ही नहीं पाई। उस पितृविहीन लड़की के लिए वह भेद समझना बेहद कष्टदायी और दर्दनाक रहा। हर रोज कोशिश करती कि दुख के उन निशानों को खुरचकर निकल दे पर सब व्यर्थ। काश उस समय की यादों को वो धारावाहिकों और चलचित्रों की तरह मिटा पाती। जब तक स्त्रीत्व के एहसास को जीने की शुरुआत करती, परिस्थितियांँ उसके वर्तमान पर ही भविष्य का ठप्पा लगा चुकी थी।
खैर खुश रहने की कोशिश करते करते वो खुश रहने भी लगी, पर अपने हम उम्रों के बीच खुद को एलियन सा पाती। क्योंकि वो किसी की कद्र भी नहीं करती थी और सबको एक ही लाठी से हांँकती थी। किसी को पास तक फटकने नहीं देती थी। एक अभागा कई दिनों तक उसके घर के चक्कर काटा करता था और अपने को अच्छा और सच्चा दिखाने के जाने कितने जतन करता गया बेचारा, पर नम्रता के हाथ जो पड़ा फिर किसी लायक ही नहीं रहा। इस कारण भी लोग उससे बच कर निकलने लगे थे।
अपने अंदर पुरुषत्व महसूस करने वाली नम्रता कहीं ना कहीं अपने इस रुप की, इस छवि की इस छद्म व्यक्तित्व पर आत्ममुग्ध भी थीं जिसके कारण वह अहं ब्रह्मास्मि में जीने लगी थी। हमेशा खुद को ही सही समझती, सिद्ध करती। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि उसके अंदर प्रेम का बिरवा नहीं था। बस उसने उसे पोषण से वंचित रखा था, लहलहाने नहीं दिया था। स्कूल के दिनों में शशांक की मितभाषिता और आत्मविश्वास ने कई बार उसके बिरवे को हवा दी पर उसके मिथ्या अहम ने हृदय के कपाटों पर तब तक ताला जड़े रखा जब तक वह उससे दूर ना हो गई। हांँ, उन यादों की कसक अभी भी गाहे-बगाहे उसकी हसरतों की जमीं को गीला कर जाती है और वो खुद को वहीं ठहरा पाती है जहांँ थी।
हालांँकि उसके पास एक अच्छी नौकरी है, घर-बार, पैसा, रुतबा और वो सारा कुछ है जो वो चाहती थी। वो जैसी बनना चाहती थी वैसी बन चुकी है पर पता नहीं कैसी खलिश है जो जीने नहीं देती। अक्सर सोचती जो वो पाना चाहती थी वो ग़लत था या जो वो पाकर बन गई है वो ग़लत है? कहांँ चूक हुई उससे?
हर किसी को अपने अस्तित्व से प्यार होता है, उसे भी था और अंदर ही अंदर अभी भी है। पर कम उम्र की नम्मो अचानक कैसे नम्रता शर्मा बनी ना किसी ने जाना ना समझा। दोहरेपन को जीती नम्रता खुद पेशोपेश में पड़ जाती है कि अपने आप पर गर्व करे या खुद को खो देने का शोक मनाए? पर, एक बात, इस रुप को जीते जीते इस बात पर कृतबद्ध जरूर हो गई थी कि अपनी नज़रों के सामने अब वो दूसरी नम्रता शर्मा नहीं बनने देगी। कभी भी नहीं।
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