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क्या बलात्कार रोकने के लिए मृत्युदंड का डर काफी है या करना होगा कुछ और?

क्या शक्ति बिल जैसे विधेयक एक रेपिस्ट को रेप करने से रोक पाएंगे और क्या मृत्युदंड बलात्कार को रोकने के लिए काफी है? क्या सोचते हैं आप?

क्या शक्ति बिल जैसे विधेयक एक रेपिस्ट को रेप करने से रोक पाएंगे और क्या मृत्युदंड बलात्कार को रोकने के लिए काफी है? क्या सोचते हैं आप?

कुछ दिन पहले महाराष्ट्र कैबिनेट ने ‘शक्ति बिल’ को मंजूरी दी, जिसे कल विधानसभा सत्र में पेश करके पास कराने भेजा गया। इस ‘शक्ति बिल’ महिलाओं के साथ घृणित अपराध करने वालों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया गया है। साथ ही कानून को और सख्त किया गया है। इस विधेयक में बलात्कार, तेजाब हमला और महिलाओं तथा बच्चों के खिलाफ आपत्तिजनक सामग्री सोशल मीडिया पर डालने जैसे अपराधों के लिए मृत्यु दंड एवं 10 लाख रुपये तक के जुर्माने समेत कठोर सजाओं का प्रावधान किया गया है।

ज़ाहिर है कि ऐसे कानून को लाने के पीछे मकसद देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा को कम करना है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार 4 लाख ऐसे केस दर्ज हुए जिसमें महिलाओं के खिलाफ अपराध हुआ। ये आंकड़े साल 2017 और 2018 से ज्यादा बढ़ें है। जहां 2017 में ये आंकड़ा 3.59 लाख था, वहीं 2018 में 3.78 लाख। महिलाओं के खिलाफ अपराध में बढ़ोतरी ही हुई है।

इसी एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार साल 2019 में 32,033 बलात्कार के केस दर्ज हुए याने रोजाना 88 बलात्कार प्रतिदिन। ये उन केसों के बारे में है जो कि रिपोर्ट हुए। देश में बलात्कार के केस नाम, इज्जत, शर्म, डर और खौफ के कारण दर्ज ही नहीं होते। अगर, उस आंकड़े को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो जो तस्वीर हमारे सामने आएगी वह बेहद ही भयावह है।

2018 में थॉमस रॉयटर्स फाउंडेशन के एक सर्वेक्षण ने भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश का दर्जा दिया।

क्या बलात्कार का न्याय मृत्युदंड पर्याप्त है?

आप इन आंकड़ों को देख आग बबूला हो गए होंगे और देश की अधिकतर लोगों की तरह बलात्कारियों को फांसी देने की मांग करना चाहते होंगे। क्या उन गुस्से से भरे लोगों की तरह मन में ख्याल आता है कि बलात्कारियों को सरेआम गोली मार दो, या सरेआम जला डालो, फांसी दे डालो, मार डालो।

पर क्या इससे सबकुछ ठीक हो जाएगा? 20 मार्च, 2020 को ‘निर्भया’ ज्योति सिंह के बलात्कारियों को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया। पर क्या इसके बाद देश में बलात्कार की घटनाएं खत्म हो गईं? साफतौर पर जवाब होगा नहीं।

बलात्कारी को पकड़े जाने का डर

दरअसल, मौत जैसी कड़ी सजा के डर से बलात्कार नहीं कम होंगे। बल्कि, पकड़े जाने पर बलात्कार के केसों में कमी आएगी। बलात्कारी को डर ही नहीं रहता कि वो पकड़ा जाएगा। लेकिन कारण? एक तो केस दर्ज नहीं होगा, लड़की खुद अपनी नाम इज्जत बचाने के लिए केस दर्ज नहीं कराएगी क्यूँकि इज्जत समाज ने महिला की योनि में जो डाल रखी है। अगर, लड़की बहादुर हुई तो उसे जान से मार दिया जाएगा या नहीं तो कोई और हथकंडा। इसी कारण 2018 और 2019 में, बलात्कार के लिए सजा दर 30% से नीचे थी। जिसका मतलब है कि 100 मामलों में से केवल 30 मामलों में दोषी पाए गए।

इसका कारण, फॉरेंसिक लैब का न होना है, जिसके कारण तुरंत महिला की जांच नहीं हो पाती। पुलिस की जांच में कमी। एक तो पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने से हिचकिचाती है, फिर जांच ठीक से नहीं करती। न्याय मिलने में भी देरी हो जाती है। फास्ट ट्रैक कोर्ट में भी ‘निर्भया’ के मामले में एक लंबा इंतजार करना पड़ा।

समाज का पितृसत्तात्मक होना

मेरा मानना है कि जब कहीं कोई बलात्कार होता है, तो यह समाज की भी गलती है। हमने समाज में ऐसा वातावरण बनाया जिसमें पुरुषों को श्रेष्ठ बताया और औरतों को दोयम दर्जे का। हमने औरतों को भोग की वस्तु की तरह पेश किया। हमने औरतों को चार दीवारी में कैद किया। जब वे बाहर निकलती तो बलात्कारी भेड़िए की तरह नोंचने आते।

हमने पुरुषों को बंद करने के बजाय औरतों को समय पर पाबंद कर दिया – अंधेरा होने से पहले आ जाना। हमने स्कूलों में लड़कों और लड़कियों को अलग-अलग करके हमने एक लाइन बना दी। वह लाइन अब खाई बनने लगीं तो अब कहते हैं कि फांसी दे दो। हमने सीखाया ही नहीं पुरुषों को बराबरी का पाठ। न पुरुष समझ सके औरतों को।

अब हम फांसी की मांग करके केवल अपनी गलतियां छुपा रहे हैं। इसके बजाय हमें लोगों को शिक्षित करना चाहिए। गर्ल्स एजुकेशन को बढ़ावा देना चाहिए। पुरुषों और महिलाओं की बीच की खाई को बचपन से खत्म करना चाहिए। इस समाज को सशक्त औरतें जब पढ़ लिख कर तैयार हो उसे समझने के लिए समझ के विकास की जरूरत है।

जेल को सुधारगृह बनाने की आवश्यकता

हमारे लिए जेल का मतलब सजागृह है। इसे हमें सुधारगृह सही मायनों में बनाना पड़ेगा, वरना जेल भेजकर बलात्कारियों में कोई बदलाव नहीं आएगा।

समाजशास्त्री डायना (Diana Scully) ने पुरुषों के बलात्कार करने की प्रवृत्ति पर एक शोध किया। जिसमें उन्होंने बलात्कारियों से बात की। उन्होंने पाया कि उन पुरुषों के लिए औरतों की ‘हां’ या ‘न’ का कोई महत्व ही नहीं है। उन पुरुषों का मानना है कि उन औरतों ने उन्हें उकसाया। उनके अंदर कहा जाए तो सिर्फ और सिर्फ जहर भरा था, जो इस पितृसत्ता ने उनमें भरा था।

हमें इस सुधारगृह में इस पितृसत्ता के जहर को खत्म करना पड़ेगा। उन्हें ‘कंसेंट’ का मतलब बताना पड़ेगा। उनके अंदर के दरिंदे को मारकर इंसान को जिंदा करना पड़ेगा। उन्हें बराबरी का पाठ पढ़ाना पड़ेगा। औरतें बलात्कार के लिए नहीं उकसाती यह बताना पड़ेगा। औरतें कोई भोग की वस्तु नहीं है, यह समझाना पड़ेगा। उन्हें बताना पड़ेगा कि औरतें केवल घर की चार दीवारी में ही रहकर नहीं बल्कि बाहर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भी काम कर सकती है।

अगर, उन्हें उनकी सजा काटने के दौरान सुधार का पाठ पढ़ाया जाए तो सचमुच समाज में बदलाव आएगा। जब वे समाज में आएंगे पुनः तो समाज को सुधरे हुए इंसान दिखेंगे तो बदलाव दिखेगा।

मानवीय तौर पर भी सही नहीं है मृत्युदंड

हमें इन अपराधियों को सुधरने का मौका देना चाहिए। हम सब इंसान हैं। हम कोई जानवर नहीं। हमने सभ्यता बनाई ताकि, हम मनुष्यता समझ सकें और यह मनुष्यता इंसान के द्वारा इंसान को मारने से नहीं आती। यह जानवर की प्रवृत्ति है, जानवर जानवर को मारते है। इंसान ऐसा नहीं करते। हम आंख के बदले आंख लेने की सोच को खत्म करना पड़ेगा वरना दुनिया अंधी हो जाएगी। इसके बजाय में समाज में अहिंसा और करुणा का पाठ पढ़ाना पड़ेगा।

बलात्कार में मृत्युदंड देने का क्या हक है इस समाज को?

दिल्ली स्थित अपोलो हॉस्पिटल के सीनियर कंसलटेंट मनोचिकित्सक, डॉ. अचल भगत, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं। उनका कहना है कि मौत की सजा पाने वाला शख्स फांसी पर लटकने से पहले कई बार मर चुका होता है।

वे कहते हैं कि एक फांसी पाने वाले शख्स गुस्से, निराशा और उदासी से भर जाता है। वह ग्लानि से भर जाता है। वह सोचने लगता है कि अगर वैसी स्थिति दोबारा आए तो मैं वैसा दोबारा नहीं करूंगा। उसके चेहरे पर आपको मौत को स्वीकार कर लेने के भाव नज़र आ सकते हैं। यह बात उसके बातचीत और व्यवहार भी नज़र आने लगता है। उसके अंदर से परिवार का मोह खत्म हो जाता है। पर उसके लिए यह लंबी पीड़ा से कम नहीं रहता।

उनके अनुसार एक समाज के तौर पर जब हम किसी को फांसी देते हैं तो क्या हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि वह आदमी सुधर नहीं सकता? हमें सोचना चाहिए कि हम किस समाज में रहते हैं? जहां हम एक दूसरे की जान ले लेते हैं?

लोग तर्क दे सकते हैं कि उस व्यक्ति ने भी तो एक जगन्य अपराध किया था। उसने भी तो जिंदगी ली थी। लेकिन वैसी ही हिंसा करने की इस समाज को जरूरत नहीं है। दंड की ऐसी व्यवस्था समाज में बदलाव नहीं ला सकती।

मैंने जैसा कहा समाज को खुद भी बदलना पड़ेगा। फांसी नहीं है समाधान। बलात्कार का जवाब मृत्युदंड नहीं, इस समाज को अपराध होने से पहले जागना होगा।

मूल चित्र : gilas from Getty Images, via Canva Pro 

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