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स्वतंत्रता की लड़ाई में सुशीला चैन त्रेखन अन्य महिलाओं के साथ बढ़-चढ़ कर भाग लिया करती और पुलिस की यातनाओं का भी सामना करती।
हमारे देश में कई महिलाएं ऐसी रहीं जिन्होंने देश के स्वाधीनता संग्राम में अपना भरपूर योगदान दिया। आजादी के बाद एक सच्चे समाज सेवक के रूप में समाज की सेवा में मिशन की तरह लग गई। कभी सरकार और समाज से यह उम्मीद ही नहीं रखा कि उन्होंने देश समाज के लिए जो किया उसका उन्हें सम्मान भी मिलना चाहिए। इन नायिकाओं को स्वतंत्रता की लड़ाई की विस्मृत नायिका कहा जा सकता है।
इसी तरह की एक विस्मृत नायिका हैं पाठनकोट के मथुरादास त्रेहन जो पेशे से ठेकेदार और पठानकोट में कांग्रेस पार्टी के संस्थापकों में से एक थे – उनकी सबसे छोटी बेटी सुशीला जिनका जन्म 1 जुलाई 1923 को हुआ था। बाल अवस्था के दिनों में ही, जब सुशीला छोटी थी तब पिता के साथ पठानकोट स्थित आर्य समाज मंदिर में हो रही एक मीटिंग में गई थी।
जिसे रोकने के लिए ब्रिटिश के अधीन पुलिस ने स्टेज को चारों ओर से घेर लिया था और वहां मौजूद लोगों को पीटना शुरू कर दिया। इस घटना ने सुशीला को झंकझोर के रख दिया और उन्होंने इस अन्याय के खिलाफ लड़ने की ठान ली। उनके शिक्षक और स्वतंत्रता सेनानी पंडित देवदत्त अटल ने सुशीला चैन त्रेखन को एक किताब भेंट में दी – “गांधी और समाजवाद” जिसने उनके संकल्पों को संवारा।
अभी सुशीला आजादी के संकल्पों के लिए के लिए तैयार ही हो रही थी कि तभी उनके पिताजी की मृत्यु कुछ रहस्यमयी परिस्थितियों में हो गई। अपने और परिवार के रोजमर्रा की जरूरत के लिए दूसरों पर निर्भरता का सामना बतौर एक लड़की उस दौर में कठिन काम था। इसी समय उनकी मुलाकात शकुंलता आजाद नाम की एक महिला से हुआ और मात्र 18 साल के उम्र में सुशीला चैन त्रेखन ने घर छोड़ दिया। भूमिगत रहकर आजादी की रणनीतियां बनाई। पुलिस के डंडे भी खाए पर मातृभूमि को आजाद करवाने की ठान ली।
साइकिल पर लंबा सफर तय कर सुदूर गांव में जाती और महिलाओं की शिक्षा का अलख जगाती। उस समय लड़कियों का साइकिल चलाना अच्छा नहीं माना जाता था और उसके कारण उन्हें गांव के लोगों और समाज के लोगों से भी हतोत्साहित किया जाता था।
सुशीला लाहौर के “किर्ती पार्टी” में शामिल होने की इच्छुक थी परंतु इसके लिए उन्हें बहुत विरोध का सामना करना पड़ा। लोगों का मानना था कि पार्टी पुरुषों की है और ब्रिटिश पुलिस की कठोर सजा को सुशीला अपनी छोटी उम्र के कारण कमजोर पड़ सकती थी। इसी समय सुशीला ने अपने परिवार को पत्र लिख दिया कि वे उनकी शादी के लिए लड़का न खोजे। वह खुद को स्वतंत्रता के लड़ाई में समर्पित कर चुकी है।
इसी दौरान उनकी मुलाकाल अपने भावी पति, चैन सिंह चैन से हुई जो खुद भी एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ कीर्ती पार्टी के सदस्य भी थे जिसमें सुशीला भी शामिल हो चुकी थी। कीर्ति किसान मोर्चे पर और अन्य आयोजनों पर सुशीला अन्य महिलाओं के साथ बढ़-चढ़ कर भाग लिया करती और पुलिस की यातनाओं का भी सामना करती।
आजादी के जंग में सुशीला अपने पति और अपने तीन बच्चों को बहुत कम उम्र में खो चुकी थी क्योंकि उन्हें पुलिस और अधिकारियों से छिपकर अपना मकसद पूरा करना पड़ता था। उनके लिए देश की सेवा ही सबसे ऊपर रही। उनकी एकलौती बची हुई संतान है उसे भी जीवित रहने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाते रहना पड़ा।
स्वतंत्रता के बाद भी सुशीला ने सामाजिक भलाई के लिए काम करना नहीं छोड़ा और समाज में हो रहे अन्याय के खिलाफ काम कर रहे संगठनों से जुड़ी रही। वह लड़कियों के लिए शिक्षा का महत्व समझती थी और शिक्षण संस्थान के निर्माण को प्रोत्साहित करती थी। सुशीला “स्त्री सभा” जलंधर की संस्थापक रह चुकी थी। अपने आखिरी दिनों वह अन्याय के खिलाफ लड़ती रही।
मात्र 18 साल के उम्र से अपने जीवन के आखरी सांस तक 28 सितंबर 2011 तक सुशीला चैन त्रेखन देश और देश के लोगों के लिए समर्पित होकर लड़ती रही। उन्हे पता था कि देश को औपनिवेशिक आजादी से मुक्ति के बाद सामाजिक कुरितियों के मानसिकता से भी आजाद होना जरूरी है। जिसके लिए वह अंतिम सांस तक लड़ती रही।
मूल चित्र : Provided by author
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